Editorial: आरक्षण की छद्म राजनीति

Update: 2024-08-20 08:29 GMT
by divyahimachal : आरक्षण पर फर्जी, छद्म, झूठी, अतार्किक कहानियां गढ़ी जा रही हैं। खासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी आरक्षण और उसके आधार संविधान के जरिए मोदी-विरोध की राजनीति कर रही हैं। लोकसभा चुनाव में उनका यह ‘हथियार’, कमोबेश उप्र और महाराष्ट्र में, कारगर साबित हुआ। राजस्थान में भी भाजपा को कुछ हद तक नुकसान झेलना पड़ा। अब उपचुनावों और राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी वे इसका इस्तेमाल करना चाहती हैं। न तो संविधान को खत्म किया जा सकता है और न ही आरक्षण छीना जा सकता है, इसे देश को ‘ब्रह्मसत्य’ मानना चाहिए। यदि दलित, आदिवासी और ओबीसी के किसी बच्चे को, प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर, आरक्षण की सुविधा न मिले और पहली नौकरी के समय आरक्षण की अनिवार्यता लागू न की जाए, तो वह आरक्षण-विरोध है। उस पर आंदोलित भी होना चाहिए और अदालत का दरवाजा भी खटखटाना चाहिए, लेकिन भारत सरकार जिन शीर्ष पदों पर ‘विशेषज्ञों’ की सीधी भर्ती करना चाहती है, वे सामान्य आरक्षण के दायरे में नहीं हैं। संयुक्त सचिव 10 और निदेशक/ उपसचिव की 35 भर्तियां सरकार करेगी। उसका विज्ञापन भी सार्वजनिक किया गया है। यह कवायद पहली बार नहीं की जा रही है। इस सूची में पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का नाम भी है, जिन्हें ‘विशेषज्ञ अर्थशास्त्री’ के कारण तत्कालीन केंद्र सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया था। फिर ‘योजना आयोग’ का उपाध्यक्ष भी नियुक्त किया गया था। 1991 में जब वह केंद्रीय वित्त मंत्री बने, तो वित्त सचिव के पद पर उन्होंने मोंटेक सिंह आहलूवालिया को मांगा था। मोंटेक आईएएस नहीं थे, फिर भी देश के वित्त सचिव बनाए गए। बाद में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार में उन्हें ‘योजना आयोग’ का उपाध्यक्ष भी बनाया गया। इसी सूची में रघुराम राजन, विमल जालान, नंदन नीलेकणि, सैम पित्रोदा, एनटीपीसी के चेयरमैन रहे पी. कपूर आदि सैकड़ों नाम दर्ज हैं, जिन्हें सरकार ने सीधे ही नौकरशाही के वरिष्ठ पदों पर नियुक्त किया था।
ऐसी नौकरियां 1968 से दी जा रही हैं और अधिकतर कांग्रेस सरकारों के दौरान ही दी गई हैं। तब संविधान को खत्म करने और आरक्षण को छीनने के मुद्दे नहीं उठाए गए। अब भी सीधी भर्ती वाले 57 शीर्ष अधिकारी भारत सरकार में कार्यरत हैं। इन भर्तियों से आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, आईआरएस आदि के युवा दावेदार कहीं भी प्रभावित नहीं होंगे। यह मुद्दा राहुल गांधी बार-बार उठा रहे हैं। भारत सरकार में जो अधिकारी आज सचिव के पद पर हैं, वे 1990 के दशक में आईएएस बने होंगे। आरक्षण तब लागू हुआ होगा, नतीजतन 3-4 सचिव आज
अनुसूचित जा
ति और जनजाति के भी हैं। इस व्यवस्था में प्रधानमंत्री भी कुछ नहीं कर सकता। संघ लोक सेवा आयोग की अपनी स्वायत्तता है। लोकतंत्र में जनादेश ही अधिकार देता है। जनादेश से जिसकी सत्ता बनी है और प्रधानमंत्री, कैबिनेट आदि तय हुए हैं, तो संविधान उन्हें कुछ विशेषाधिकार भी देता है। पहले तो प्रधानमंत्री ही तमाम संवैधानिक पदों पर नियुक्ति करते थे। अब कमोबेश नेता प्रतिपक्ष भी चयन समिति के सदस्य हैं। लिहाजा सीधी भर्तियां भी सरकार कर सकती है। इसमें कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। यदि विपक्ष को कुछ गलत लगता है, तो वह सर्वोच्च अदालत में चुनौती दे सकता है। सचिव की बात छोड़ भी दें, तो संयुक्त सचिव पद के लिए भी कमोबेश 15 साल का अनुभव अनिवार्य है। निदेशक/ उपसचिव के लिए भी 10 साल का अनुभव जरूरी है। जो युवा आज आईएएस बन रहे हैं अथवा बनना चाहते हैं, उन्हें शुरुआती दौर में एसडीएम या सहायक कलेक्टर आदि पदों पर नियुक्त किया जा सकता है। सरकार अपेक्षाकृत वरिष्ठ पदों पर विशेषज्ञों के अनुभव का लाभ उठाना चाहती है। ऐसे विशेषज्ञ भी दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग के हो सकते हैं। आरक्षण को इतना संकीर्ण न बनाया जाए और न ही देश को गुमराह किया जाए, क्योंकि ऐसी राजनीति ‘क्षणिक’ होती है।
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