भूले नहीं हैं लोग
अंग्रेजी में कहावत है कि ‘पब्लिक’ की याददाश्त कमजोर होती है। यानी आम लोग बहुत जल्दी भूल जाते हैं, अपने साथ शासकों की गलतियां। संगीन से संगीन गलती भी बहुत जल्दी भुला देते हैं आम लोग, शायद इसलिए कि दो वक्त की रोटी कमाने में ही उनके दिन बीत जाते हैं।
तवलीन सिंह: अंग्रेजी में कहावत है कि 'पब्लिक' की याददाश्त कमजोर होती है। यानी आम लोग बहुत जल्दी भूल जाते हैं, अपने साथ शासकों की गलतियां। संगीन से संगीन गलती भी बहुत जल्दी भुला देते हैं आम लोग, शायद इसलिए कि दो वक्त की रोटी कमाने में ही उनके दिन बीत जाते हैं। सो, ऐसा लगता है कि जनता भूल गई है कि कोरोना काल में मोदी सरकार ने कितनी गंभीर गलतियां की हैं। इनमें शायद सबसे बड़ी गलती यही थी कि चार घंटों की मोहलत देकर प्रधानमंत्री ने भारत का ऐसा चक्का जाम किया था कि अचानक बेघर, बेरोजगार हुए प्रवासी मजदूरों को महानगरों से पैदल अपने गांवों तक जाना पड़ा, क्योंकि यातायात की तमाम सेवाएं बंद हो गई थीं। घर वापस जाते हुए लोगों को कई-कई दिन भूखा-प्यासा रहना पड़ा था, क्योंकि रास्ते में ढाबों को खुला रखने की इजाजत नहीं थी। कई लोग घर पहुंचते हुए बीमार पड़ गए, कई पहुंचने से पहले दम तोड़ गए और कई पुलिस की लाठियां खाते हुए जेलों में बंद किए गए। उनका जुर्म सिर्फ यह था कि वे पूर्णबंदी के नियम तोड़ने पर मजबूर थे।
इतनी बेरहमी से पेश आए थे सरकारी अधिकारी और पुलिसवाले कि दुनिया की नजरों में भारत बहुत बदनाम हुआ। लेकिन ऐसा लगता है कि इस शर्मनाक हादसे को जनता पूरी तरह भूल चुकी है अब, वरना प्रधानमंत्री संसद के अंदर न कह पाते कि प्रवासी मजदूरों को शहर छोड़ने के लिए उकसाया था विपक्षी राजनेताओं ने। पिछले संसद सत्र में राष्ट्रपति के भाषण पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रधानमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में आरोप लगाया कांग्रेस राजनेताओं पर कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों की मदद की थी मुंबई से भागने के लिए और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के वाहन घूम रहे थे, जिन पर लगे लाउडस्पीकरों द्वारा मजदूरों को भागने के लिए कहा जा रहा था।
मोदी ने कहा कि इस तरह पूरे देश में कोरोना पहुंच गया और यह भी कहा कि शहर न छोड़ने के लिए उनकी सरकार ने खाने-पीने, रहन-सहन का इंतजाम किया था और मजदूरों के मालिकों से आश्वासन दिलवाए थे कि उनको दिहाड़ी मिलती रहेगी बंद के दौरान। यह सच नहीं है, हम सब जानते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण के बाद कोई हंगामा नहीं हुआ।
आमतौर पर पत्रकारों का काम होता है राजनेताओं के झूठ को झूठ साबित करना, लेकिन सच तो यह है कि मीडिया को इतनी चतुराई से 'मैनेज' किया गया है कि मेरे बंधु या तो डर के मारे चुप रहते हैं या हमको चुप करवाने के कई तरीके काम में लाए जाते हैं। मोदी को आलोचक पसंद नहीं हैं। अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री सिर्फ उन पत्रकारों से मिले हैं, जो उनकी तारीफ करते हैं।
सो, पिछले सप्ताह जब बरखा दत्त की नई किताब मैंने पढ़ी, तो मैं हैरान भी हुई और उसकी दिलेरी को सलाम भी किया। अंग्रेजी में किताब का शीर्षक है 'टू हेल एंड बैक' (नरक तक जाकर वापस आना)। इस किताब में कोरोना के भयानक दौर की पूरी कहानी सुनाने की कोशिश की है और मोदी सरकार की उन सारी गलतियों पर रोशनी डालने का प्रयास किया है, जिसको जनता के अलावा हम पत्रकार भी भुलाना पसंद करते हैं।
प्रवासी मजदूरों के पलायन के बारे में शायद ही दुनिया को जानकारी मिलती, अगर बरखा ने उन पर पहली खबर अपने 'मोजोस्टोरी' डिजिटल चैनल पर न दी होती। बाकी टीवी पत्रकार बाद में पहुंचे प्रवासी मजदूरों से मिलने और उनकी कहानियां बताने। लेकिन इसके बावजूद भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में 31 मार्च, 2020 को कहा कि सड़कों पर कोई प्रवासी मजदूर पैदल चल कर नहीं गए हैं। इस बयान के बाद बरखा ने ठान लिया उनकी पूरी कहानी दुनिया के सामने रखने का।
अपनी मारुति गाड़ी में एक छोटी टीम लेकर तीस हजार किलोमीटर घूमी, तेरह राज्यों में। दूरदराज गांवों में पहुंची, उनके परिजनों से मिलने, जिनकी मौत हुई थी रेल पटरियों पर थक कर सोते हुए। उस गांव में गई, जहां ज्योति यादव नाम की तेरह साल की वह बच्ची रहती है, जिसने अपने पिता को साइकिल पर बिठा कर बारह सौ किलोमीटर लंबी यात्रा की थी। इन कहानियों को पढ़ कर दर्द तो होता ही है, लेकिन निजी तौर पर मुझे शर्म भी आई।
कैसा देश है हमारा, जहां हमारे शासक स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि हमारे सबसे गरीब लोगों ने बहुत सारे ऐसे कष्ट उठाए, जो उनको उठाने न पड़ते अगर हमारे अधिकारियों ने इस महामारी को बेहतर ढंग से संभाला होता।
पूर्णबंदी के बाद दूसरी बड़ी गलती थी टीकों की समय पर खरीद न करना, सिर्फ इसलिए कि हमारे आला अधिकारी विदेशी कंपनियों से सौदेबाजी में उलझे हुए थे और प्रधानमंत्री चाहते थे कि जब तक भारतीय टीका न बने, तब तक हम विदेशों से टीके नहीं खरीदेंगे। जब तक कोरोना का दूसरा भयानक डेल्टा दौर नहीं आया था, तब तक टीकों की अहमियत नहीं समझ पाए थे हमारे शासक। तब तक गंगाजी में बहने लगी थीं लाशें और इस नदी के किनारे कब्रों की विशाल चादर दिखने लगी थी।
इसके बावजूद जब महामारी थोड़ी कम हुई, तो प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को जाकर शाबाशी दी, यह कहते हुए कि कोरोना को रोकने में उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा है। यथार्थ को जानने के लिए बरखा की किताब पढ़ना अनिवार्य है हम सबके लिए, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है उन लोगों के लिए इस किताब को पढ़ना, जिनकी गलतियों और घमंड के कारण लाखों, अति-गरीब भारतीयों को इतने कष्ट उठाने पड़े हैं। ऐसा कह तो रही हूं मैं, लेकिन जानती हूं कि उनकी प्रतिक्रिया यही होगी कि बरखा ने ऐसी किताब लिख कर देश को बदनाम करने का काम किया है।