इतिहास बताता है कि सबसे पहले लोकतंत्र लिच्छवी में आया था। फिर लोकतंत्र भूमिगत हो गया और उसकी जगह राजशाही ने ले ली। अंग्रेज आए, लेकिन खाली हाथ। लोकतंत्र साथ नहीं लाए। उनके जाने यानी आजादी के बाद लोकतंत्र आया, लेकिन आते ही खतरे में आ गया। तब से लेकर आज तक लोकतंत्र का खतरे में आना-जाना लगा रहता है। कुछ साल पहले नोटबंदी हुई थी, तब लोकतंत्र खतरे में आया था। कश्मीर से 370 हटा, लोकतंत्र की सेहत खराब। अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ तो फिर लोकतंत्र कराह उठा। बकौल श्रीलाल शुक्ल, लोकतंत्र की हालत सड़क के किनारे बैठी उस कुतिया की तरह है, जिसे हर आने-जाने वाला लात मार सकता है।
अपने कभी पाकिस्तान में लोकतंत्र को खतरे में सुना है। वहां अल्पसंख्यक खतरे में होता है, मंदिर खतरे में होते हैं, लड़कियों-महिलाओं की आबरू खतरे में होती है, लेकिन लोकतंत्र कभी खतरे में नहीं होता। वहां की सेना और आइएसआइ लोकतंत्र के इतने तगड़े पैरोकार हैं कि आतंकियों को ट्रेनिंग दे सकते हैं, आत्मघाती हमले की साजिश रच सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र को खतरे में डालने की ख्वाब में भी नहीं सोच सकते। यही हाल, हाल में बेहाली को प्राप्त हुए अफगानिस्तान का भी है। वहां भी मजाल है जो लोकतंत्र खतरे में होने की हिमाकत कर सके। आखिर कोड़ा, पत्थर, खंजर और बंदूक भी तो कोई चीज हैं। वहां बिन दाढ़ी की मुंडी, हिजाब विहीन खातून, हक की बात करने वाली जुबान तो खतरे में हो सकती है, किंतु लोकतंत्र कभी नहीं। वहां तो इतना गाढ़ा लोकतंत्र है कि लाश को भी चौराहे पर लटकने की आजादी है।
अपने देश का लोकतंत्र दुनिया में सबसे पुराना है। पुराना है तो खतरा तो होगा ही। आपने एंटीक्स पर अक्सर कड़े पहरे देखे होंगे। पुरातत्व विभाग पुरानी-संरक्षित इमारतों और पेड़ों को कितने जुगाड़ से बांस-बल्ली लगाकर टिकाए रखने की कवायद करता है। तब कहीं दर्शक टिकट लेकर उन्हें देखने जाते हैं। पता नहीं, लोकतंत्र को अभी तक पुरातत्व विभाग के हवाले क्यों नहीं किया गया। हालांकि उस पर टिकट लगाने की नौबत अभी नहीं आई है। और तो और, उसका बीमा तक नहीं कराया गया। देश में बच्चों तक के लिए स्वास्थ्य बीमा योजनाएं हैं.. फिर लोकतंत्र तो इतनी वयोवृद्ध रवायत है, फिर भला उसकी तंदुरुस्ती का पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किया जाना चाहिए।
दुनिया के अन्य किसी देश के लोकतंत्र का साइज हमारे इतना बड़ा नहीं है। जो चीज जितनी बड़ी होती है, उसे खतरा उतना ही ज्यादा होता है। हमारे लोकतंत्र के नीचे बहुत सारे अनचाहे, असामाजिक तत्व शरण पा जाते हैं। ऊपर से देखने पर सब 'एक भारत-नेक भारत' लगते हैं, किंतु भीतर ही भीतर लोकतंत्र की जड़ें खोदने में लगे रहते हैं। हमारे लोकतंत्र की जड़ें टमाटर की तरह कमजोर नहीं हैं और न वह आलू-प्याज है, जिसे कोई भी कड़ाही में डालकर तल ले। हमारा लोकतंत्र जिंदाबाद!