संकट सत्ता का

श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने फिर से आपातकाल लगा दिया। पांच हफ्ते पहले भी देश में आपातकाल लगाया गया था, पर भारी जनविरोध को देखते हुए कुछ ही दिन में इसे हटा भी लिया था।

Update: 2022-05-09 04:00 GMT

Written by जनसत्ता: श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने फिर से आपातकाल लगा दिया। पांच हफ्ते पहले भी देश में आपातकाल लगाया गया था, पर भारी जनविरोध को देखते हुए कुछ ही दिन में इसे हटा भी लिया था। इस बार लगाया गया आपातकाल कब तक जारी रहेगा, कहा नहीं जा सकता। इससे यह साफ हो गया है कि श्रीलंका में हालात बेकाबू हैं। तीन महीने पहले जिस संकट की आहट सुनाई दे रही थी, वह अब चरम पर पहुंच गया लगता है।

चारों तरफ समुद्र से घिरा यह प्रायद्वीप इस वक्त अपने इतिहास के सबसे गंभीर राजनीतिक और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। ऐसे दुर्दिन यहां के लोगों ने शायद ही पहले कभी देखे होंगे। रोजाना के घटनाक्रमों और राजनीतिक उथल-पुथल को देख कर लगता नहीं है कि जल्द ही इस मुल्क की गाड़ी पटरी पर आ पाएगी। मुश्किलें इसलिए भी बढ़ गई हैं क्योंकि राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को लेकर देश की जनता में भारी गुस्सा भर चुका है। विपक्षी दलों से लेकर जनता तक अब राजपक्षे परिवार को सत्ता में और नहीं देखना चाहती।

देखा जाए तो श्रीलंका की कंगाली से कहीं ज्यादा बड़ा संकट राजनीतिक अस्थिरता का खड़ा हो गया है। महीने भर पहले राष्ट्रपति ने कैबिनेट भंग कर नए मंत्रिमंडल का गठन कर लिया था। लेकिन गठबंधन से इकतालीस सांसदों के अलग होने के बाद राष्ट्रपति ने संसद में बहुमत भी खो दिया था। तब से अंतरिम सरकार बनाने की बातें चल रही हैं।

गोटबाया राजपक्षे ने विपक्षी दलों से अंतरिम सरकार में शामिल होकर देश को आर्थिक संकट से निकालने का प्रस्ताव भी रखा। पर विपक्ष इस पर कैसे सहमत हो सकता है? प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे पर इस्तीफे के लिए भारी दबाव है। पर वे टस से मस नहीं हो रहे। उन्होंने विपक्ष के सामने नया पैंतरा यह चल दिया कि वे सरकार छोड़ने को तैयार हैं, बशर्ते अंतरिम सरकार इस बात की गारंटी दे कि वह सत्ता में आते ही देश को आर्थिक संकट से निकाल देगी।

श्रीलंका के मौजूदा संकट की जड़ यही है। इसलिए अब बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि श्रीलंका में जिस तरह का राजनीतिक गतिरोध बन गया है, वह कैसे टूटे? राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को लेकर देश के भीतर जिस तरह का आक्रोश है, वह किसी भी क्षण भयानक हिंसा के रूप में सामने आ जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी। छात्रों ने संसद को घेर रखा है। पूरे देश में न केवल लोग, बल्कि सरकारी कर्मचारी तक सरकार के खिलाफ सड़कों पर हैं। देशव्यापी हड़ताल और हिंसक प्रदर्शनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। इसी डर से राष्ट्रपति ने आपातकाल का सहारा लिया है।

अगर श्रीलंका में ऐसे हालात कुछ दिन और रह गए तो इसके नतीजे कितने गंभीर होंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोगों के पास खाने को नहीं है। जरूरी दवाएं तक नहीं मिल रहीं। स्वास्थ्यकर्मी भी सरकार के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए हैं। विश्वविद्यालयों के छात्र भी मैदान में उतर आए हैं। देश के पास विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो चला है। श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मदद के लिए गुहार लगा रहा है, पर उसे अभी तक कहीं से कोई ऐसी मदद नहीं मिली है जो उसे इस संकट से निकाल सके है। अगर श्रीलंका में सत्ता का झगड़ा जल्द नहीं सुलझा तो देश को और बुरे दिन देखने पड़ सकते हैं। लेकिन लगता है कि संसद में बहुमत खो देने और लोगों का भरोसा गंवा देने वाला गोटबाया कुनबा अब आपातकाल, सेना और पुलिस के बल पर सत्ता सुख भोगने का रास्ता निकाल चुका है।


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