कोरोना : महामारी के दौर में सामाजिक सुरक्षा
हम इस तरह के जोखिम को बर्दाश्त नहीं कर सकते।
एक साल खत्म हो गया और दूसरा साल बस अभी शुरू हुआ है, लेकिन कोरोना वायरस का जोखिम अब भी हमारे साथ बना हुआ है। अब यह अपने अधिक संक्रामक अवतार में ओमिक्रॉन वैरिएंट के रूप में तेजी से पूरे भारत में फैल रहा है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पिछले हफ्ते सप्ताहांत कर्फ्यू लगा हुआ था। इस समय, जब मैं यह आलेख लिख रही हूं, आवाजाही पर गंभीर प्रतिबंध हैं। रेस्तरां और बार बंद हैं, हालांकि अस्थायी तौर पर होम डिलीवरी की अनुमति दी गई है। नए वर्ष की शुरुआत में कई सवाल मन में उठ रहे हैं। एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि समाज के सबसे कमजोर लोगों की स्वास्थ्य देखभाल के मामले में हमने पिछले दो वर्ष में क्या सीखा है। दुखद है कि इसका संक्षिप्त उत्तर है, बहुत कम।
महामारी के बीच लगातार नफरती बयान दिए जा रहे हैं। जैसा कि कामकाजी दुनिया में हिंसक प्रथाओं वाले किसी देश में भारी असमानताओं की विरासत के साथ घोर गरीबी और अभाव में जीने वाले लाखों लोगों के पास थोड़े से विकल्प और बहुत कम उम्मीद बची रहती है। यह सब सामाजिक एकता को प्रभावित करता है, जो मौजूदा महामारी जैसे बड़े संकट के समय में लचीलेपन की कुंजी है। यकीनन, यह भारत के लिए अनूठा नहीं है। विश्व आर्थिक मंच ने इस हफ्ते जारी अपनी वैश्विक जोखिम रिपोर्ट, 2022 में कहा है कि 'सामाजिक एकता का क्षरण', 'आजीविका संकट' और 'मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट' अगले दो वर्षों में दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखे जाने वाले पांच जोखिमों में से हैं।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि 'यह सामाजिक संकट राष्ट्रीय नीति निर्माण की चुनौतियों से जुड़कर राजनीतिक पूंजी को सीमित करता है, वैश्विक चुनौतियों पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए नेताओं के ध्यान और सार्वजनिक समर्थन की जरूरत होती है। इस पृथ्वी की सेहत एक निरंतर चिंता बनी हुई है।' एक देश के रूप में, हम महामारी के दौरान अपने सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के जोखिमों के बारे में कितने जागरूक हैं और इसके बारे में क्या कर रहे हैं?
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव आयोग द्वारा 15 जनवरी तक चुनावी अभियान पर रोक लगाए जाने से पहले कई जगहों पर चुनावी रैलियां आयोजित की गईं। कौन जानता है कि उसके बाद क्या होगा? प्रत्येक बीतते दिन के साथ बड़ी संख्या में भारत में कोविड -19 के नए मरीज जुड़ रहे हैं और संक्रमित लोगों में केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों सहित राजनेताओं की बढ़ती संख्या शामिल है। एहतियात के तौर पर बूस्टर खुराक अब उन बुजुर्ग नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं, जिन्होंने टीके की दो खुराकें ले ली हैं और किशोरों को भी अब टीके लगाए जा रहे हैं। लेकिन हम अब भी सभी को पूरी तरह से टीका नहीं लगा पाए हैं।
इस बीच, एक स्वतंत्र थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, दिसंबर में भारत की बेरोजगारी दर लगभग आठ फीसदी तक बढ़ गई। वर्ष 2020 और वर्ष 2021 के अधिकांश समय में यह दर सात फीसदी से अधिक थी। इससे सबसे ज्यादा अनियोजित क्षेत्र के श्रमिक प्रभावित हुए हैं, जो देश के कार्यबल का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। न केवल लोगों को नौकरी से निकाल दिया जाता है, बल्कि अक्सर उनके वास्तविक वेतन का भुगतान नहीं किया जाता है। पिछले दो वर्षों में हमने इस बारे में अनगिनत हृदयविदारक कहानियां सुनी हैं, लेकिन कुछ भी नहीं बदला है।
पिछले हफ्ते मैं अपने पड़ोस में घूमने गई थी। वहां मझे दो युवा घरेलू नौकरानियां मिलीं, जिन्होंने सप्ताहांत कर्फ्यू और आंशिक लॉकडाउन के दौरान वेतन कटौती के बारे में अपनी आशंकाएं जाहिर कीं। पिछले साल लॉकडाउन के दौरान उनके नियोक्ता ने उन्हें वेतन का भुगतान नहीं किया था। अब वे एक बार फिर नए प्रतिबंधों से डरी हुई हैं।
त्रिशाली चौहान एवं क्रिस्टॉफ जैफरलॉट ने एक अंग्रेजी अखबार में अपने ताजा आलेख में कहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी ज्यादा है। वर्ष 2019-20 और दिसंबर, 2021 के बीच विनिर्माण क्षेत्र में लोगों ने 98 लाख नौकरियां गंवाई, इसके विपरीत कृषि क्षेत्र में रोजगार में 74 लाख की वृद्धि हुई। वेतनभोगी लोगों का प्रतिशत 2019-2020 के 21.2 फीसदी से गिरकर 2021 में 19 फीसदी रह गया है, जिसका अर्थ है कि 95 लाख लोगों ने वेतनभोगी नौकरियां गंवाई और बेरोजगार हो गए अथवा अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा बन गए हैं। कर्ज में डूबे और भोजन जैसी जरूरी चीजों में कटौती कर रहे कमजोर लोगों के लिए किस तरह के सुरक्षा उपाय हैं?
महामारी की शुरुआत के कुछ समय बाद आवश्यक वस्तुएं पहुंचाने वाले श्रमिकों को उनकी नियोक्ता कंपनियों ने बताया कि संविदा (ठेका पर काम करने वाले) कर्मचारियों के लिए ताजा बीमा पॉलिसी लाई जाएगी। उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में फ्लिपकार्ट ने अपने संविदा कर्मचारियों के लिए तीन लाख रुपये के जीवन बीमा (टर्म लाइफ कवर) की पेशकश की थी। बीमा उद्योग के पेशेवरों के अनुसार, महामारी के बाद, इन कंपनियों ने प्रति संविदा कर्मचारी 50,000 रुपये से शुरू होने वाले चिकित्सा और जीवन बीमा कवर खरीदे थे। लेकिन दुख की बात है कि सामाजिक सुरक्षा, जिसमें जीवन भर के लिए कवर शामिल है, इस देश में अनौपचारिक श्रमिकों की हर श्रेणी के लिए लागू नहीं है।
श्रम अर्थशास्त्री और जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, जमशेदपुर के प्रोफेसर के. आर. श्याम सुंदर ने सामाजिक सुरक्षा संहिता के तहत अनिवार्य सामाजिक सुरक्षा के लिए सार्वजनिक रूप से वकालत की है। मजदूरी संहिता, 2019, स्वतंत्र रूप से काम करने वाले श्रमिकों सहित संगठित और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए सार्वभौमिक न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान करती है।
स्पष्ट रूप से, न केवल जीवन बीमा, बल्कि व्यापक सामाजिक सुरक्षा की भी आवश्यकता है, जो एक गंभीर संकट के समय में आय सुरक्षा का काम करता है। और यह पूरे देश में सभी श्रेणी के श्रमिकों पर लागू होना चाहिए। और इसे शीघ्र लागू किया जाना चाहिए। ऐसा होना अभी बाकी है; आने वाले महीनों में लाखों भारतीयों की नौकरी जाने का खतरा है। हम इस तरह के जोखिम को बर्दाश्त नहीं कर सकते।