मूल्यविहीन राजनीति के दुष्परिणाम: युवा पीढ़ी को ही स्थिति में सुधार करने का लेना होगा उत्तरदायित्व

मूल्यविहीन राजनीति के दुष्परिणाम

Update: 2021-11-22 13:45 GMT
जगमोहन सिंह राजपूत। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात स्वतंत्र हुए देशों में से लगभग सभी ने औपचारिक तौर पर जनतांत्रिक प्रणाली अपनाने का निश्चय किया। यह अलग तथ्य है कि सभी इसमें सफल नहीं हो सके। कहीं तानाशाही तो कहीं सेना सत्ता पर काबिज होती रही। इसके उलट भारत में जनतांत्रिक प्रणाली जिस प्रकार प्रारंभ हुई और अनवरत चल रही है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और विद्वानों ने भी समय-समय पर सराहना की है। यहां जिस शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता-परिवर्तन होता रहा है, वह तमाम लोगों को आश्चर्यचकित करता है। 17 अप्रैल, 1999 को केंद्र की वाजपेयी सरकार मात्र एक वोट से हार गई। इस कारण फिर से चुनाव हुआ। हर अवसर पर सत्ता परिवर्तन शब्दश: संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप ही होता रहा है।
नि:संदेह समय के साथ और नैतिक मूल्यों में गिरावट के कारण कुछ चिंताएं अवश्य सता रही हैं। ऐसे में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश को यह ध्यान में रखना होगा कि समकालीन स्थिति का उचित आकलन किया जाए, ताकि हम अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर इसी प्रकार गर्व करते रहें। जैसे घर की स्वच्छता पर निरंतर ध्यान देना होता है, वैसे ही शासन व्यवस्था में कतिपय कारणों से आ रहे परिवर्तनों का निष्पक्ष विश्लेषण भी आवश्यक है। स्वतंत्रता संग्राम के तपे हुए हमारे सेनानी संविधान निर्माता बने। उन्होंने भारत के समेकित विकास हेतु समन्वय, सहयोग, समता, समानता, सहृदयता और संवेदनशीलता से ओतप्रोत मार्ग निर्धारित किया। उनकी अपेक्षा तो यही थी कि विविधता में एकता के लिए विश्वविख्यात भारत वैश्विक समाज के सम्मुख सामजिक, सांस्कृतिक एवं पंथिक सद्भाव की व्यावहारिकता का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करेगा।
विगत सात दशकों में परिवर्तन की गति बढ़ी है। विज्ञान, तकनीकी और संचार प्रौद्योगिकी ने सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में अकल्पनीय प्रभाव डाले हैं। एक भाषा, संस्कृति और मजहब को मानने वाले अनेक देशों में विभिन्न कारणों से आए प्रवासियों ने जनसंख्या की संरचना ही बदल दी है। यूरोप के कई देश इस नई स्थिति से निपटने में भारत के लंबे अनुभवों से लाभ उठाना चाहेंगे। ऐसे में यह भारत का नैतिक उत्तरदायित्व है कि देश में किसी भी प्रकार के वैमनस्य और अविश्वास को बढ़ने से रोका जाए। इसके लिए पर्याप्त सतर्कता बरतनी होगी।
चीन और पाकिस्तान जैसे देश भारत की आंतरिक सद्भावना को ध्वस्त करने का हरसंभव कुत्सित प्रयास करते आए हैं, जिसमें कोई कमी आने के आसार नहीं। दुर्भाग्य यह है कि इनसे निपटने के लिए राष्ट्रीय एकता का जो स्पष्ट संदेश विश्व के समक्ष जाना चाहिए, उसे तमाम नेता और उनके दल गहराई से समझ नहीं रहे। सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर एयर स्ट्राइक तक इसके तमाम उदाहरण हैं। नकारात्मकता से ग्रस्त कई विपक्षी दल उस वक्त राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की पूर्ति से चूक गए। उन्हें समझना होगा कि कुतर्को पर की गई आलोचना से काम नहीं होगा, परंतु हताशा में वे यही करते हैं। यही हताशा उन्हें यह स्वीकार नहीं करने देती कि पिछले छह-सात वर्षो के दौरान हाशिये पर पड़े तबकों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार द्वारा कितने बड़े-बड़े कदम उठाए गए हैं। ऐसा ही एक कदम कृषि कानून थे, जो विपक्ष की नकारात्मक राजनीति की भेंट चढ़ गए। इन कानूनों की वापसी से किसानों को ही नुकसान हुआ है। इस पर जश्न नहीं, अफसोस मनाया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता के बाद दो-तीन दशकों बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि चुनावों को संविधान सम्यक भावना से संपादित कराना अत्यंत दुरूह कार्य है। नेताओं द्वारा बूथ लूटने से लेकर पैसे बांटने और शराब का प्रलोभन देना आम हो गया। जिन दलों को इसे रोकना चाहिए था दुर्भाग्य से वही इसे खाद-पानी देते रहे। साथ ही साथ देश में राजनीति के जाति केंद्रित होने से संविधान की मूल भावना क्षीण होती गई। किस्म-किस्म के जातीय-मजहबी समीकरण बनाए जाने लगे। तुष्टीकरण का बोलबाला बढ़ता गया। जैसे-जैसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ी नेपथ्य में जाती रही, वैसे-वैसे क्षेत्रीयता, जातीयता और सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले सत्ता तक पहुंचने लगे। जाति, क्षेत्र या पंथ आधारित ऐसे दल कोई सकारात्मक राष्ट्रीय दृष्टिकोण नहीं विकसित कर सके। उनमें से अनेक स्वार्थ, परिवारवाद और व्यक्तिगत धन संग्रह से आगे नहीं बढ़ पाए।
भारत में लोकतंत्र का अपेक्षित स्वरूप तभी बचेगा जब पक्ष और विपक्ष द्वारा सिद्धांतों के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता स्वीकार्य हो। वहीं विद्वत वर्ग और सिविल सोसाइटी को निष्पक्ष भाव से इस पर अपनी निगाह बनाए रखनी होगी। समझ लीजिए कि भारत में जनतंत्र पर प्रहार तभी आरंभ हुआ जब चुनाव खर्च की सीमाओं को लांघना आम हो गया। पिछले कई चुनावों से चुनावी खर्च सीमा का खुला मखौल उड़ाया जा रहा है। जनता भलीभांति जानती है कि चुनाव अब सामान्य नागरिक के लिए एक अलभ्य संभावना रह गए हैं। वहीं चुनावों में नैतिक मूल्यों की गिरावट का पहलू और भी कष्टदायी है। संविधान निर्माताओं ने जिस अपेक्षा के साथ राज्यसभा का सृजन किया था, वह उस लक्ष्य से भटक गई है। यही हाल राज्यों की विधान परिषद का है।
चुनावी राजनीति में मूल्यों के ह्रास का परिणाम है कि जनता द्वारा खारिज किए गए अधिकांश नेता और राजनीतिक दल सकारात्मक दृष्टि गंवा चुके हैं। कोरोना संकट के समय को ही याद करें कि कितने दल उस वक्त सरकार के साथ सहयोग के लिए आगे आए। वे केवल आलोचना में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मानते रहे। देश की युवा पीढ़ी को ही इस स्थिति को समझने और उसमें सुधार करने का उत्तरदायित्व लेना होगा।
(लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
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