कांग्रेस का 'बोझ' अधीर रंजन
संसद का ‘सावन’ सत्र शुरू हुए दो सप्ताह हो चुके हैं मगर कामकाज के नाम पर इसमें सिवाय शोर-शराबा और नारेबाजी तथा सांसदों के निलम्बन के अलावा और कुछ काम नहीं हो पा रहा है।
आदित्य चोपड़ा; संसद का 'सावन' सत्र शुरू हुए दो सप्ताह हो चुके हैं मगर कामकाज के नाम पर इसमें सिवाय शोर-शराबा और नारेबाजी तथा सांसदों के निलम्बन के अलावा और कुछ काम नहीं हो पा रहा है। आज तक कुल 27 सांसद (23 राज्यसभा से और चार लोकसभा से) निलम्बित हो चुके हैं। बेशक लोकसभा में इसी हुड़दंग के चलते कुछ विधेयक भी पारित करा लिये गये हैं मगर यह स्थिति किसी भी रूप में संसदीय लोकतन्त्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। इससे सबसे बड़ा खतरा देश के लोगों का इस प्रणाली में विश्वास कम होने का बन जाता है। मगर सबसे ज्यादा हालत खराब राष्ट्र की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस की है जो आजकल विश्वसनीयता के कई मोर्चों पर एक साथ जूझ रही है। इसमें भी इस पार्टी की सबसे ज्यादा खराब हालत लोकसभा में है जहां इसने अपनी बागडोर एक ऐसे नेता अधीर रंजन चौधरी के हाथ में दे रखी है जिनकी बौद्धिक योग्यता किसी स्कूली छात्र के समकक्ष कही जा सकती है। बात बहुत पुरानी नहीं हैं जब इस देश में 'नन्दन' व 'पराग' जैसी दो बाल हिन्दी पत्रिकाएं प्रकाशित हुआ करती थीं। ये दोनों पत्रिकाएं देश के दो बड़े प्रकाशन संस्थानों की थीं। बालक इन्हें बहुत चाव से पढ़ते थे। इनमें से 'नन्दन' में इन्दिरा गांधी सरकार के तत्कालीन उप प्रधानमन्त्री स्व. श्री मोरारजी देसाई (जो 1977 में भारत के प्रधानमन्त्री भी बने) बालकों के लिए एक स्तम्भ लिखा करते थे। इस स्तम्भ में वह बालकों व किशोरों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देते थे। साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में उनसे एक बालक ने प्रश्न पूछा था कि यदि भविष्य में कभी इस देश की राष्ट्रपति कोई 'महिला' बन जायें तो उन्हें हम 'राष्ट्रपति' कहेंगे या 'राष्ट्रपत्नी' ? तो मोरारजी देसाई ने उत्तर लिखा था कि हम उन्हें 'राष्ट्रपति' ही कहेंगे क्योंकि 'पद' का लिंग नहीं बदला जाता। मगर अधीर रंजन चौधरी की बुद्धि में यह बात भी नहीं घुस सकी। असलियत तो यह है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद पर श्री चौधरी को बैठा कर कांग्रेस ने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है क्योंकि आज तक श्री चौधरी ने सदन में कोई ऐसी बहस नहीं की जिसका संज्ञान लिया जा सके। उनका सतही ज्ञान और विषय की गहराई से अनभिज्ञता उनकी पार्टी पर एक न एक दिन भारी पड़नी ही थी क्योंकि उनका राजनैतिक जीवन किसी आन्दोलन या सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता की वजह से शुरू नहीं हुआ है बल्कि प. बंगाल में कथित माफिया गिरोहों की लड़ाई से शुरू हुआ है। मगर यह कांग्रेस नेतृत्व पर तरस खाने की भी बात है कि लोकसभा में उसे श्री चौधरी के अलावा कोई दूसरा नेता अपना सिरमौर बनाने के लिए नहीं मिला। ना उनका हिन्दी या अंग्रेजी भाषा पर कोई अधिकार है और न ही उन्हें अपने विचारों को सारगर्भित तरीके से लयबद्ध रूप में पेश करने की कला आती है। जबकि संसद में इन गुणों को देख कर ही कोई भी पार्टी अपना नेता नियुक्त करती है, खास कर विपक्षी पार्टी। उनका रिकार्ड आपराधिक भी रहा है जिसे कांग्रेस पार्टी ने किस वजह से नजरअन्दाज किया, यह कहना भी मुश्किल है। प. बंगाल राज्य के वह पार्टी अध्यक्ष भी रहे और हुजूर ने अपनी पार्टी की अपने राज्य में इस तरह सेवा की कि इसका पूरी तरह सूपड़ा साफ ही करा दिया। पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का एक भी विधायक जीत कर नहीं आ सका। निश्चित रूप से उन्हें बांग्ला आती है और हिन्दी में वह गड़बड़ाते हैं मगर अंग्रेजी भाषा पर भी उनका अधिकार नहीं है। हिन्दी तो लगातार लोकसभा में 2004 से आठ वर्ष तक सदन के नेता रहे (राष्ट्रपति बनने तक) प. बंगाल के ही स्व. श्री प्रणव मुखर्जी को भी नहीं आती थी मगर अंग्रेजी पर उनका पूर्णाधिकार था। उससे पहले वह 35 वर्ष तक राज्यसभा में भी रहे मगर उनके दोनों सदनों में दिये गये भाषण संसदीय इतिहास की थाती है। आज भी प. बंगाल के ही श्री सौगत राय जैसे नेता विपक्षी बेंचों से जब बोलते हैं तो पूरा सदन उन्हें ध्यान से सुनता है मगर अधीर रंजन को तो खुद उनकी पार्टी के सांसद ही ध्यान से नहीं सुनते और सत्ता पक्ष के लोग उनका उपहास उड़ाते हैं। अतः कांग्रेस इसके लिए स्वयं ही जिम्मेदार कही जा सकती है। अब सवाल यह है कि श्री चौधरी कह रहे हैं कि एक टीवी पत्रकार से बात करते हुए उनकी जुबान फिसल गई थी। मगर इसके बाद जब वह अपनी 'करनी' की सफाई दे रहे थे तो उन्होंने फिर से अपनी 'बालबुद्धि' का परिचय दिया और कहा कि राष्ट्रपति चाहे ब्राह्मण हो या मुसलमान हो अथवा आदिवासी हो उनके और उनकी पार्टी के लिए राष्ट्रपति ही होता है। राष्ट्रपति के लिए जातिसूचक या सम्प्रदाय अथवा समुदायगत सम्बोधन लगाने को भी क्या जुबान फिसलना कहा जायेगा? इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि श्री चौधरी को अभी राजनीति के स्कूल में बाकायदा शिक्षा प्राप्त करने की जरूरत है। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ पक्ष भाजपा को भी चाहिए कि वह राष्ट्रपति को लेकर ज्यादा विवाद न खड़ा करे क्योंकि राष्ट्रपति किसी दल के नहीं होते बल्कि राष्ट्र के होते हैं। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत का गौरव हैं और संविधान की संरक्षक हैं। अधीर रंजन चौधरी को उसे उनकी समझ की सीमाएं देखते हुए माफ कर देना चाहिए। मगर दूसरी तरफ यह भी ध्यान देना चाहिए कि कल जिस तरह कांग्रेस की एक प्रदर्शनकारी महिला सांसद के कपड़े पुलिस से संघर्ष करते हुए फटे वह भी महिला का घनघोर अपमान है। गई वो बात कि हो गुफ्तगू तो क्यूं कर हो कहे से कुछ न हुआ, तुम्ही कहो क्यूं कर होसंपादकीय :विदेशी मीडिया और भारतअमृत महोत्सव : जारी रहेगा यज्ञ-10'रेवड़ी' और सर्वोच्च न्यायालयमेरा असली जन्मदिन है बुज़ुगों के चेहरों पर मुस्कानराजस्थान के अशोक गहलौतअमृत महोत्सव :अर्थव्यवस्था की छलांग-9जिसे नसीब हो रोजे स्याह मेरा सा, वो शख्स'दिन' न कहे 'रात' को तो क्यूं कर हो !