संघर्ष : युद्ध और हिंसा के शिकार बच्चों के हक में, माता-पिता के लिए भौतिक दूरी मायने नहीं रखती

उनके भविष्य को बनाना सभी का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि यही बच्चे देश के भविष्य होते हैं।

Update: 2022-06-04 01:56 GMT

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन में पिछले दो दशक में हुए युद्धों में 20 लाख बच्चे मारे गए और करीब एक करोड़ शरणार्थी बच्चों की देख-रेख यूएन रिफ्यूजी एजेंसी के द्वारा की जा रही है। वहीं लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र में करीब 10 हजार बच्चे हर वर्ष पारिवारिक कलह में मारे जाते हैं।

भाग-दौड़ भरी इस जिंदगी में भले ही हम अपने माता-पिता से दूर हों, लेकिन दुख हो या सुख हर परिस्थिति में वे हमारे साथ होते हैं। यही वजह है कि उनके महत्व को समझाने के लिए हर वर्ष एक जून को 'वैश्विक माता-पिता दिवस' (ग्लोबल डे ऑफ पैरेंट्स) मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की शुरुआत अमेरिका में वर्ष 1994 में हुई थी। इसके तीन दिन बाद हर वर्ष चार जून को दुनिया भर में 'आक्रामकता के शिकार मासूम बच्चों का अंतरराष्ट्रीय दिवस' (इंटरनेशनल डे ऑफ इनोसेंट चिल्ड्रेन विक्टिम्स ऑफ अग्रेशन) मनाया जाता है।
यह दिन बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। दरअसल माता-पिता और बच्चों के रिश्तों को समझने के लिए इन दोनों दिवसों को एक साथ जोड़कर देखने की जरूरत है। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छा पारिवारिक माहौल, जहां खुशी, प्यार और विश्वास हो, सबसे आवश्यक होता है। इसलिए सामाजिक जीवन का केंद्र सिर्फ परिवार है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए वह सब करते हैं, जितनी उनकी क्षमता होती है।
फिर भी, माता-पिता की जिम्मेदारियों से इतर समाज के रूप में भी हमारी बच्चों के प्रति जिम्मेदारियां हैं। इससे आक्रामकता के शिकार मासूम बच्चों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताने के लिए मनाए जाने वाले दिवस का महत्व समझा जा सकता है। विश्व भर में इसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण से पीड़ित बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने का मुख्य उद्देश्य पीड़ित बच्चों द्वारा झेले जाने वाले दर्द और पीड़ा के बारे में जागरूकता फैलाना है।
नेल्सन मंडेला इस मामले में एक प्रेरणास्रोत रहे हैं, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों को इस दिशा में जागरूक करने का काम किया। 'से यस फॉर चिल्ड्रेन' (बच्चों के लिए हां कहो) अभियान के जरिये उन्होंने करीब 9.4 करोड़ लोगों का समर्थन प्राप्त किया, जिसमें उन्होंने दुनिया भर के मासूम बच्चों का दर्द बांटा। 19 अगस्त, 1982 को, फलस्तीन के आग्रह पर आपातकालीन सत्र के दौरान संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इजरायल की हिंसा से प्रभावित हुए निर्दोष फलस्तीनी और लेबनानी पीड़ित बच्चों की याद में हर वर्ष चार जून को 'आक्रामकता के शिकार मासूम बच्चों का अंतरराष्ट्रीय दिवस' मनाने का फैसला किया था।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन में पिछले दो दशक में हुए युद्धों में 20 लाख बच्चे मारे गए और करीब एक करोड़ शरणार्थी बच्चों की देख-रेख यूएन रिफ्यूजी एजेंसी के द्वारा की जा रही है। वहीं लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र में करीब 10 हजार बच्चे हर वर्ष पारिवारिक कलह में मारे जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, पांच से 14 वर्ष तक के बच्चे इसके सबसे अधिक शिकार होते हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हाल के वर्षों में बच्चों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं।
हिंसा से प्रभावित संघर्ष क्षेत्रों और देशों में रहने वाले 25 करोड़ बच्चों की सुरक्षा के लिए ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है। इस दिशा में सुधार के लिए एक ही उपाय है कि हर देश अपने यहां अपने बच्चों के अधिकारों की रक्षा करे। इस तरह, एक जून और चार चून, दोनों ही दिनों में एक विशेष संबंध है। माता-पिता यदि अपने बच्चों का सही अर्थो में देखभाल करें, समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण सिखाएं, तो समाज में इन दिवसों का मनाना शायद सार्थक हो सकेगा। ये दोनों दिवस इस वर्ष तब मनाए जा रहे हैं, जब रूस और यूक्रेन में सबसे अधिक माता-पिता एवं उनके बच्चे युद्ध की विभीषिका का दंश झेल रहे हैं।
शांतिपूर्ण माहौल में रहने वाले जब युद्ध की विभीषिका का शिकार होते हैं, तब उनमें सुरक्षा की भावना खत्म हो जाती है और उनमें एक धीमा आक्रोश पनपने लगता है, जिसकी परिणति उनका आक्रमक व्यवहार होता है। अतः समाज, परिवार एवं माता-पिता और वैश्विक संगठनों व राष्ट्रों को ऐसे सभी बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य की चिंता करने की जरूरत है। बच्चों के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देना, उनके भविष्य को बनाना सभी का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि यही बच्चे देश के भविष्य होते हैं। 

सोर्स: अमर उजाला

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