चिंता महिलाओं के स्वास्थ्य की
महिलाओं के स्वास्थ्य का मामला अगर देश के समग्र जीवन के हर पहलू पर असर डाल रहा हो तो इसका आकलन करने के लिए बड़े पैमाने पर सिर्फ महिला केंद्रित शोध सर्वेक्षणों की दरकार है।
सुविज्ञा जैन: महिलाओं के स्वास्थ्य का मामला अगर देश के समग्र जीवन के हर पहलू पर असर डाल रहा हो तो इसका आकलन करने के लिए बड़े पैमाने पर सिर्फ महिला केंद्रित शोध सर्वेक्षणों की दरकार है। मगर अब तक जो अंदाजा लगता है उस हिसाब से महिलाओं को ध्यान में रख कर स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर करने की फौरी जरूरत दिखाई पड़ती है।
देश के कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी की बात हर साल होती है। खुल कर बताया जाता है कि आर्थिक मामले में देश की महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं। समाज में महिलाओं को समान अधिकार न मिलने का मुद्दा दशकों से चला आ रहा है, मगर उनके स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं होती। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में महिलाओं की आबादी पुरुषों से ज्यादा हो जाने के संकेत हैं।
ऐसे में देश की आबादी के सबसे बड़े तबके के रूप में भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर नजर जरूर जानी चाहिए। यह तथ्य चौंकाने वाला है कि देश की हर दूसरी महिला खून की कमी से पीड़ित है और हर तीसरी महिला का 'बाडी मास इंडेक्स' कम है। कुल आबादी की एक चौथाई महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। तमाम वादों और उसके बाद दावों के बावजूद अगर यह हालत हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर हमें सतर्क हो जाने की जरूरत है।
कई सर्वेक्षणों से उजागर है कि महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम पोषण मिलता है। इसका एक बड़ा कारण हमारी पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था को भी माना गया। सीमित आय वाले परिवारों में बचत के दबाव में आमतौर पर लड़कियों की तुलना में लड़कों को ज्यादा पोषक आहार दिया जाता है। कोरोना महामारी के पहले 'कम्प्रेहेंसिव नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे 2019' के मुताबिक सभी पोषक तत्त्वों से भरपूर भोजन देश के बड़े तबके को नहीं मिल पा रहा था। मगर कोरोना काल में हालात हद से ज्यादा बिगड़ गए।
टाटा कार्नेल इंस्टीट्यूट फार एग्रीकल्चर ऐंड न्यूट्रीशन की एक अध्ययन के मुताबिक कोरोना बंदी के समय महिलाओं के पोषक आहार में बयालीस फीसद की गिरावट आ गई। उन्हें फल, सब्जियां और दूसरे पोषक खाद्य पदार्थ कम मिले। स्कूलों में 'मिड डे मील' जैसी योजनाएं कोरोना के चलते बंद रहने से आयरन फोलिक एसिड जैसे पूरक और पोषक आहार से छात्राएं वंचित रहीं। यह एक उजागर तथ्य है कि अपने देश की महिलाओं में पोषक तत्त्वों में सबसे ज्यादा कमी आयरन की ही पाई जाती है। यह बात चौंकाने वाली है कि आज भी सत्तावन फीसद भारतीय महिलाएं एनीमिया यानी रक्ताल्पता का शिकार हैं।
घरेलू महिलाओं में भी कुपोषण की समस्या एक पहेली बनी हुई है। प्रत्यक्ष अनुभव है कि घरेलू महिलाएं आमतौर पर सबको खाना खिलाने के बाद सबसे बाद में बचा हुआ खाना खाती हैं। भारतीय परिवेश में यह चलन उन्हें कई बार पर्याप्त और संतुलित भोजन से वंचित रखता है। इसी तरह कम उम्र में शादी का चलन भी कम जिम्मेदार नहीं है। कम उम्र में गर्भवती होने से भी शरीर पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हैं।
मसलन, नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक 23.3 फीसद लड़कियों की शादी अठारह साल की उम्र के पहले ही कर दी गई। किशोरावस्था में मां बनने की दर आज भी 6.8 फीसद है। कुपोषण की समस्या तो वयस्क गर्भवती महिलाओं के साथ भी है। यह एक स्थापित तथ्य है कि गर्भावस्था में पर्याप्त पोषक तत्त्व न मिल पाने से महिला और शिशु दोनों ही लंबे समय तक कुपोषण का शिकार रहते हैं।
आजकल स्वास्थ्य विशेषज्ञ भारतीय महिलाओं में एक 'हिडन हंगर' यानी परोक्ष भूख की बात कह रहे हैं। इसका अर्थ है शरीर में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी। कई दशकों तक महिलाओं के पोषण में मुख्य ध्यान आयरन की पूर्ति पर लगाया जाता रहा। लेकिन अब विशेषज्ञ भारतीय महिलाओं में विटामिन डी, विटामिन बी12 और जिंक जैसे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी पर भी ध्यान दिला रहे हैं।
आज के सभ्य समाज में भी भारतीय महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार बन रही हैं। घरेलू हिंसा सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को भी गंभीर चोट पहुंचाती है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में 2019-21 में घरेलू हिंसा की दर 29.3 फीसद थी। इतना ही नहीं, महिला स्वास्थ्य का एक और बड़ा पहलू है कि सामाजिक उपेक्षा के डर से ज्यादातर महिलाएं या उनके परिवार महिलाओं की बीमारियों को छिपाने की कोशिश करते हैं। आज भी पुरुषों और महिलाओं में एक जैसे रोग को समाज में अलग-अलग नजरिए से देखने का चलन है।
महिलाएं खुद भी सामाजिक दबाव और घरेलू कामों में व्यवधान के डर से चिकित्सीय सलाह लेने से बचती हैं। यह बात भी छिपी हुई नहीं है कि चिकित्सा सेवाओं तक महिलाओं की पहुंच भी पुरुषों की तुलना में कम है। इस बारे में विश्व आर्थिक मंच हर साल 'ग्लोबल जेंडर गैप' रिपोर्ट जारी करता है। ताजा रिपोर्ट में भारतीय महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की स्थिति यह है कि 146 देशों में अपना देश आखिरी पायदान पर रहा। खासकर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं महिलाओं के लिए आसानी से पहुंच में नहीं हैं। कई बार अस्पतालों में महिला डाक्टर और नर्स या महिला कर्मचारी न होने से महिलाएं अस्पताल जाने से झिझकती हैं।
जागरूक तबके में अब यह भी सोचा जाने लगा है कि महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता न सिर्फ मानवता के लिहाज से तर्कसंगत है, बल्कि जीवन के हर पहलू को प्रभावित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। देश की आधी आबादी होने के नाते महिलाएं कार्यबल में भी अहम भूमिका निभाती हैं। हालांकि कुछ लोग यह कुतर्क दे सकते हैं कि कार्यबल में उनकी भागीदारी कम है, लिहाजा अर्थव्यवस्था के लिहाज से श्रमबल में महिलाओं की कम भागीदारी ज्यादा असर नहीं डालती।
यह कुतर्क वे ही दे सकते हैं, जो यह नहीं जानते कि देश के अंसगठित क्षेत्र में उत्पादक कार्यों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा दिखाई देती है। आबादी के लिहाज से चाहे देश का सबसे बड़ा कृषि क्षेत्र हो या कुटीर उद्योग हो या फिर भरा-पूरा वस्त्र उद्योग हो, इस असंगठित क्षेत्र का बड़ा हिस्सा आमतौर महिलाएं ही संभाले हैं। अगर इतनी बड़ी महिलाओं की आबादी का स्वास्थ्य सवालों से घिरा हो, तो एक आकलन यह भी होना चाहिए कि महिलाओं का स्वास्थ्य देश के आर्थिक विकास को किस तरह प्रभावित कर रहा है।
विचार इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या बड़ी समस्याओं की तीव्रता के सही आकलन के लिए छोटे-छोटे सर्वेक्षण पर्याप्त हो सकते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य का मामला अगर देश के समग्र जीवन के हर पहलू पर असर डाल रहा हो तो इसका आकलन करने के लिए बड़े पैमाने पर सिर्फ महिला केंद्रित शोध सर्वेक्षणों की दरकार है। मगर अब तक जो अंदाजा लगता है उस हिसाब से महिलाओं को ध्यान में रख कर स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर करने की फौरी जरूरत दिखाई पड़ती है।
बेशक देश में स्वाथ्य सेवाओं का एक भरा-पूरा आधारभूत ढांचा मौजूद है, लेकिन महिलाओं के स्वास्थ्य की जब तक कोई बड़ी योजना बने तब तक इतना तो किया ही जा सकता है कि उपलब्ध सेवाओं तक महिलाओं की पहुंच बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान चलें। नियमित जांच के लिए प्रेरित करने का अभियान चलाना जरा भी मुश्किल नहीं है। भोजन में आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को लेकर महिलाओं में जागरूकता बढ़ाने का काम भी आसान है। सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर उस सामाजिक सोच को बदलने की कोशिश की जा सकती है कि महिलाएं अपनी परेशानियां छुपाएं नहीं, बल्कि खुल कर बताने लगें। कम उम्र में शादी और घरेलू हिंसा संबंधी कानूनों को गंभीरता से लागू किया जा सकता है।