अफगानिस्तान में अराजकता
अफगानिस्तान में फिलहाल जो हालात हैं उनसे इस देश के भविष्य के बारे में कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता क्योंकि हकीकत यह है
आदित्य चोपड़ा: अफगानिस्तान में फिलहाल जो हालात हैं उनसे इस देश के भविष्य के बारे में कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता क्योंकि हकीकत यह है कि पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी के काबुल छोड़ने के बाद वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं है और तालिबान हुकूमत के संस्थानों पर अपना कब्जा बता रहे हैं। सबसे ज्यादा दुखद यह है कि लगभग 20 साल तक अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपनी फौजों के सहारे जिस तरह अफगानिस्तान में वैधानिक व्यवस्था कायम करने का सब्जबाग दिखाया उसने उसे अचानक ही चकनाचूर करके अफगानी लोगों को उन्ही तालिबान के भरोसे छोड़ दिया जिन्होंने 1996 से 2001 तक इस मुल्क को 'जंगल' में तब्दील करने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी। अमेरिका व नाटो देशों की फौजें अफगानिस्तान में किसी वैधानिक सत्ता के हवाले इस मुल्क को करने के बजाय अपना पीछा छुड़ा कर जिस तरह भागी हैं उससे यही साबित होता है कि अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों का उद्देश्य अफगानिस्तान का समुचित विकास करना नहीं था और वे केवल तालिबानी इस्लामी आतंकवादियों से बदला लेने आयी थीं। यह बदला पूरा होते ही उन्होंने इस मुल्क को उसके हाल पर छोड़ दिया। बेशक आज के तालिबानी बदले हुए दिखना चाहते हैं और वे अपनी बहशी-दरिन्दों की छवि में सुधार लाने का प्रयास भी कर रहे हैं। मगर उन पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि वे अपनी कट्टरपंथी इस्लामी सोच को तिलांजिली देकर कानून के शासन की स्थापना के प्रति अपनी वफादारी साबित न कर दें। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भारत अफगानिस्तान में घट रही घटनाओं का गंभीरतापूर्वक संज्ञान न ले क्योंकि अफगानिस्तान से हमारे सिर्फ सांस्कृतिक रिश्ते ही नहीं है बल्कि 1879 तक यह ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा भी रहा है। 1846 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराजा दिलीप सिंह के साथ सन्धि की मार्फत उनके काबुल से लेकर आगरा तक फैले साम्राज्य को खरीदने वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जब 1860 में समूचे हिन्द की सल्तनत को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को बेचा तो अफगानिस्तान इसी सल्तनत का हिस्सा था। अतः यहां के लोगों में हिन्दोस्तान के प्रति जो प्रेम व आदर का भाव है उसे आजादी के बाद से भारत की किसी भी सरकार ने नजर अन्दाज नहीं किया और इसके विकास में शुरू से ही अपना योगदान करना कर्त्तव्य समझा। अफगानिस्तान ने भी शहंशाह जहीर शाह (सत्तर के दशक तक) के शासनकाल तक पाकिस्तान के विरुद्ध हर मौके पर भारत का साथ दिया। अतः आज जिस तरह अफगानिस्तान को अमेरिका ने भारी मुसीबत में धकेल दिया है उससे पैदा होने वाले परिणामों की तरफ हमें सचेत रहते हुए भारतीय उपमहाद्वीप की शान्ति व स्थिरता के लिए काम करना होगा। मगर बीस साल तक अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों ने इस मुल्क को अखाड़ा बनाये रखा है। वस्तुतः अफगनिस्तान में अराजक तख्ता पलट हुआ है। इस माहौल में तालिबान अपनी वैधता की कोशिशें कर रहे हैं और विश्व की विभिन्न महत्वपूर्ण शक्तियों को रिझाने की कोशिशें भी कर रहे हैं जिनमे रूस व चीन प्रमुख हैं। मगर ऐसा लगता है कि पिछले बीस वर्षों से अमेरिकी फौजों का मुकाबला करते-करते तालिबान ने सुदूर अफगानिस्तान के नागरिकों की सीमित हमदर्दी इस वजह से हासिल की क्योंकि विदेशी फौजों की बमबारियों से आम अफगानी नागरिक भी बड़ी संख्या में हलाक हुए। यही वजह रही कि अफगान सरकार की साढ़े तीन लाख की फौज केवल 70 हजार तालिबानों के समक्ष कुछ नहीं कर पाई। सवाल अब यह पैदा हो रहा है कि जिन तालिबानों को शासन करने का न कोई अनुभव है और न सलीका है, उन पर पूरी दुनिया कैसे विश्वास कर सकती है? जाहिर है कि दुनिया के सभी शक्तिशाली देश सबसे पहले अपने हितों को देखेंगे मगर उन सबकी स्थिति भारत की भौगोलिक स्थिति जैसी नहीं है। दोनों देशों के बीच में पाकिस्तान आता है जिसका समर्थन तालिबानों को मिलता रहा है। तहरीके तालिबान पाकिस्तान संगठन इस्लामाबाद में बैठे पाक हुक्मरानों और इसकी फौज व आईएसआई से इमदाद भी पाता रहा है। यही वजह थी कि तालिबानों का सरगना ओसामा बिन लादेन अमेरिका को पाकिस्तान में ही मिला था। इसके बाद से पाकिस्तान ने खुल कर चीन की गोदी में बैठना शुरू किया। अतः अगर आज के तालिबान अफगानिस्तान के नामचीन सियासतदानों के साथ पटरी बैठा कर हुकूमत चलाने की ख्वाइश इस शर्त के साथ करते हैं कि वे अपने मुल्क में कानून को स्थापित करते हुए इंसानियत की पैरवी में हर धर्म के अफगानी को उसके शहरी हकूकों से मालामाल करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के मामले में वैश्विक नियमों का पालन करेंगे तो भारत की सरकार को उनसे बातचीत करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।