धरती बचाने की चुनौती
भारत उन एक सौ पचहत्तर देशों में से है जिन्होंने प्लास्टिक प्रदूषण कम करने का प्रस्ताव पारित किया था। संयुक्त राष्ट्र में लाया गया यह प्रस्ताव कमजोर इसलिए था कि इसमें हर देश को अपनी इच्छा से लक्ष्य निर्धारित करने की छूट थी।
ईशान चौहान: भारत उन एक सौ पचहत्तर देशों में से है जिन्होंने प्लास्टिक प्रदूषण कम करने का प्रस्ताव पारित किया था। संयुक्त राष्ट्र में लाया गया यह प्रस्ताव कमजोर इसलिए था कि इसमें हर देश को अपनी इच्छा से लक्ष्य निर्धारित करने की छूट थी। साथ ही कहा गया था कि विकास संबंधी नीतियों के आलोक में और कोई भी कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि लागू नहीं की जाएगी।
जलवायु संकट पर कुछ समय पहले आई अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) की रिपोर्ट यह साफ तौर पर दर्शाती है कि धरती को और गर्म होने से बचाने से लिए जो उपाय किए जाने थे, उनमें हम नाकाम रहे हैं। पेरिस समझौते के अनुसार धरती का तापमान डेढ़-दो डिग्री तक और न बढ़ जाए, इसके लिए कदम उठाए जाने थे। इसके लिए कई देशों को ऐसे उपाय करने थे जो तापमान बढ़ने को रोक सकें।
लेकिन अब तक इस दिशा में कोई खास प्रगति दिखी नहीं है। पेरिस समझौते के अनुसार 2025 तक इस लक्ष्य की ओर तेजी बढ़ना था और ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन में तियालीस फीसद की कटौती करनी थी। इस ओर सार्थक कदम उठाने में गुजरे कल की देरी ने आज हमें कठिन चुनौतियों से घेर दिया है। जैसे उद्योग के क्षेत्र में 'नेट-जीरो' उत्सर्जन को शीघ्र ही हकीकत में तब्दील करना। इस लक्ष्य की ओर एक अहम कदम निर्माण कार्य में ऐसे सामान अथवा पदार्थों का प्रयोग करना जो प्रदूषण को न्यून करने में सहायक हों।
हाल में विश्व के अधिकतर मुल्कों ने प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने का संकल्प लेते हुए संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित किया था। जलवायु संकट और प्लास्टिक के बीच एक गहरा रिश्ता है। वैश्विक उत्सर्जन का 3.8 फीसद हिस्सा सिर्फ प्लास्टिक की बदौलत होता है, जो आज गंभीर समस्या बन चुका है। 1907 से लेकर आज तक के इस छोटे से सफर में प्लास्टिक की यात्रा एक चमत्कारी खोज से जहरीले सच की हो चुकी है। इस तथ्य के जो अगिनत प्रमाण हैं, उन पर केवल एक झलक एक बात और साफ कर देती है।
वह यह कि इस जहर से धरती का दम घुट रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण इस हद तक फैल चुका है कि आने वाले तीन दशकों में (सन 2050 तक) समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक का कचरा होगा। एक भयानक सत्य यह है कि दुनिया में पैदा किए जाने वाले प्लास्टिक का उनयासी फीसद कचरा दुनिया में मौजूद रह जाता है, और केवल इक्कीस फीसद प्लास्टिक कचरे का ही पुनर्चक्रण किया जाता है।
इस मामले में भारत भी बेदाग नहीं है। महामारी से पहले की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि ये समस्या नई नहीं है। अंदाज लगाया जा सकता है कि महामारी के बाद तो समस्या और भी गंभीर हो गई होगी। 2020 की एक रिपोर्ट साफ बताती है कि समुद्रों में प्लास्टिक फेंकने के मामले में भारत भी एक प्रमुख देश है। संसद में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री का दिया बयान कहता है कि पिछले पांच साल में प्लास्टिक का कचरा दुगना हो चुका है और उत्पादित कचरे के केवल एक चौथाई का ही पुनर्चक्रण किया जाता है। क्या इन तथ्यों के साथ भारत का विकासशील देशों की आवाज होना, जैसा कि सदन में दावा किया गया, मुनासिब है?
इन सब तथ्यों और हकीकत के प्रकाश में अति विचित्र यह है कि हालांकि भारत उन एक सौ पचहत्तर देशों में से है जिन्होंने प्लास्टिक प्रदूषण कम करने का प्रस्ताव पारित किया था। संयुक्त राष्ट्र में लाया गया यह प्रस्ताव कमजोर इसलिए था क्योंकि इसमें हर देश को अपनी इच्छा से लक्ष्य निर्धारित करने की छूट थी। साथ ही कहा गया था कि विकास संबंधी नीतियों के आलोक में और कोई भी कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि लागू नहीं की जाएगी। यह नजरिया अपनाना अपने स्वयं के पूर्व अधिष्ठान से बिल्कुल खिलाफ है, क्योंकि 2019 में हुए अंतराष्ट्रीय पर्यावरणीय सम्मेलन में इस तथ्य पर प्रकाश भारत ने ही डाला था।
आखिरकार एक कानूनी रूप से बाध्य संधि के लिए भारत का रजामंद होना कोई बड़ी बात नहीं है। पर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हमारी विधायिका और कार्यपालिका दोनों इस ओर कदम उठाने में एक हिचकिचाहट लिए चलते हैं, इस साल का बजट तारतम्यहीन रूप से पर्यावरण के विरोधी दिखता है।
जैसे कि छत्तीसगढ़ के विशाल हसदेव अरण्य में खनन की मंजूरी देना, यह जानते हुए भी कि इससे जंगल का भारी नुकसान होगा; पांच दशकों की रोक के बाद हाथियों की खरीद-फरोख्त के हित में कानून सदन में पेश होना; कोंकण रेलवे के एक हिस्से का जंगल की भारी क्षति की कीमत पर बनवाया जाना; भू-स्खलन के खतरे के बावजूद चार-धाम मार्ग चौड़ा करते जाना आदि लाजिमी तौर पर यह सवाल खड़ा करते हैं कि भारत कहां तक पहुंचेगा, जब इन्हीं सब की तरह इस प्लास्टिक कम करने के दीर्घकालीन हित को विकास या फिर व्यापार करने में आसानी होने के हित के सामने झुकना पड़ेगा?
इस तरह के कई और सवाल जेहन में आते हैं। भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। ऐसे में जब जलवायु संकट के दुष्प्रभाव तेजी से सामने आ रहे हैं तो निश्चित ही हमारे कई शहर ज्यादा खतरे में होंगे। ऐसे में हमारे पास क्या विकल्प बचेगा? जब अर्थव्यवस्था के लिए पांच लाख करोड़ का लक्ष्य है, तो इस वृद्धि में क्या पर्यावरण को उसके महत्त्व के अनुसार तवज्जो दी जाएगी, जहां पर वह मानवी इच्छाओं, आकांक्षाओं के बराबर का हो और उनसे कम नहीं? क्या भारत पर्यावरण बचाने की कोशिशों में पूरी तरह से भागीदार होगा?
आइपीसीसी की रिपोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा कि यह मानवता की पीड़ा का एक विशाल सूचक है और जलवायु संकट संबंधी नाकामी का प्रतीक। इसलिए यह सोचना लाजिमी है कि इन हालात को बदला कैसे जाए। यह बदलाव हमारी सोच से शुरू होगा, जहां यह बात पैठी हुई है कि पर्यावरण दोयम दर्जे पर है और मानव की इच्छाएं पहले हैं। जबकि सच इसके उलट लगता है। धरती पर प्राणियों के जीवित रहने के लिए स्वच्छ पर्यावरण की जरूरत है, इस बात को अब समझना होगा।
अगर समस्या कानून या उसके लागू होने को लेकर है, तो उसका कारण दी जाने वाली सीख और विद्या ही है। एक शोध में यह सामने भी आया कि 1997 के बाद पैदा होने वाली पीढ़ी जलवायु संकट को लेकर बहुत सजग है। इसलिए पर्यावरण को लेकर एक जागरूकता पैदा होना बहुत जरूरी है, खासतौर से सरकारें जो नीतियां बना रही हैं, उनके बारे में भी शिक्षित किए जाने की जरूरत है।
आर्थिक जरूरत और राजनीतिक फायदे एक आयामी विकास का पलड़ा भारी किए रहे हैं। विशेषज्ञ और समीक्षक इस नतीजे पर पहुचे हैं कि जलवायु संकट अब तकरीबन प्राणनाशक हो चुका है। और यह बात साफ है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे द्वारा कमजोर नीतियों को बढ़ावा प्रगतिशील देश होने के बहाने से दिया जा रहा है। प्लास्टिक का प्रयोग कम करने को लेकर ऐसे तथ्य सामने आए हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों को नाकाफी ठहराते हैं।
ऐसे में पूछा जाने वाला सवाल साधारण-सा है कि अगर हमारा ध्यान जलवायु संकट के अनुकूल प्रक्रियाओं पर नहीं होगा तो यह आर्थिक विकास किसके लिए है? जब जीवित रहने की संभावना पर ही प्रश्न चिन्ह है तो फिर यह स्थिति मानवता की प्राथमिकताओं के बारे में क्या बयान करती है? लोगों को जान के खतरे के इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सच से आगाह करना, परम आवश्यक जान पड़ता है, परंतु जब यह बात बार-बार सामने आती है कि हर बात लाभ-हानि के मायनों में तोली जाती है, तो यह सारा कुछ एक हारा हुआ युद्ध-सा लगता है।