पुस्तक समीक्षा : कविता के माध्यम से 'दो टूक' बात

प्रसिद्ध साहित्यकार शंकर लाल वासिष्ठ का काव्य संग्रह ‘दो टूक’ सामाजिक विसंगतियों पर बिना लाग-लपेट के सीधी-सीधी बात करता है

Update: 2021-10-30 19:02 GMT

प्रसिद्ध साहित्यकार शंकर लाल वासिष्ठ का काव्य संग्रह 'दो टूक' सामाजिक विसंगतियों पर बिना लाग-लपेट के सीधी-सीधी बात करता है। 34 कविताओं का यह संग्रह 58 पृष्ठों का है। अधिकतर कविताएं आकार में छोटी हैं, जिन्हें पढ़ने में कोई दुविधा नहीं होती। कमला प्रकाशन सोलन से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कीमत मात्र 62 रुपए है। डा. ओम प्रकाश सारस्वत का इस कविता संग्रह के बारे में कहना है कि वासिष्ठ के कवि का मानना है आज मानवता का ह्रास हो रहा है और इसके पीछे मनुष्य की अपनी कमजोरी ही कारण है। कहीं समाज को आतंकवाद विचलित कर रहा है तो कहीं स्वार्थ तो कहीं लोलुपता मार रही है तो कहीं चापलूसी। ऐसा नहीं है कि मनुष्य जो आज कर रहा है, उसे वह जानता नहीं या एक-दूसरे के किए को दूसरा देख नहीं रहा, किंतु कमी नैतिक साहस की है जिसके कारण वह एक-दूसरे पर अंगुली उठाने में कतरा रहा है।

कवि अनेक सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों का कड़ा नोटिस लेता है। आत्म निवेदन में शंकर लाल वासिष्ठ कहते हैं कि मेरी इस अनाड़ी कल्पना में न तो शब्द हैं, न शैली और न सौंदर्य बोध, केवल समाज में घटित संक्रियाओं के खट्टे-मीठे अनुभव हैं जिन्हें मैंने यथावत आपके समक्ष रख दिया है। परिवेश में घटित सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक घटनाओं से अनुभूत हर्ष या खिन्नता दोनों ने ही मेरे अंतर्मन को आह्लादित या झकझोरा है, परिणामतः आंतरिक उद्वेलन से उद्वेलित वैचारिक मंथन के पश्चात जो भाव उमड़े हैं, उन्हें अल्हड़पने में मैंने आपके समक्ष रखा है। कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए जिस सकारात्मक पैनी सोच व दृष्टि की आवश्यकता है, उससे मैं कोसों दूर हूं। 'मटकों की ठिकरियां' नामक कविता में कवि कहता है: 'अब टूटे मटकों के ठिकरे कहां/बोतलंे ही बोतलें हैं खनकती/दूध की नदियां सभी सूख गई/चर्बी का बनता घी बनावटी।' इसी तरह 'भीष्म पीड़ा' में कवि कहता है: 'धृतराष्ट्र सा अविवेकी पुत्र-मोह/पुत्र दुर्योधन सा बनता जा रहा/शरों पर तड़पते पितामह की भांति/भारत गौरव नित आहत हो रहा।' संग्रह की अन्य कविताएं भी विविध भाव व्यक्त करती हैं। आशा है कि यह कविता संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।
-फीचर डेस्क


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