Bihar Political Drama : काश चिराग पासवान से कोई सीख ले पाते वीआईपी सुप्रीमो मुकेश सहनी

ओपिनियन

Update: 2022-03-24 15:43 GMT
पंकज कुमार
चौबे जी गए थे छब्बे बनने, दूबे बनकर आए. ये कहावत इन दिनों वीआईपी पार्टी (VIP) नेता मुकेश सहनी (Mukesh Sahani) पर बिल्कुल सटीक बैठती है. मुकेश सहनी यूपी में बीजेपी के खिलाफ वीआईपी पार्टी का जनाधार बढ़ाने चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन यूपी में एक सीट मिलना तो दूर उनके गृह प्रदेश बिहार (Bihar) में ही मुकेश सहनी की ज़मीन खिसक गई. मुकेश सहनी के तीनों विधायक पाला बदल कर बीजेपी के खेमे में चले गए और सहनी के लिए मंत्री पद पर बने रहना महज कुछ दिनों की बात है. ज़ाहिर है मुकेश सहनी की हालत बीजेपी के साथ बगावत के बाद वही हुई है जो चिराग पासवान की हालत जेडीयू से बगावत के बाद हुई थी.
बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने जेडीयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारकर जेडीयू को 43 के आंकड़ों तक सिमटाने में बड़ी भूमिका निभाई थी. चिराग पासवान को लग रहा था कि उनके पिता रामविलास पासवान की मौत के बाद जनता का अपार समर्थन उन्हें मिलेगा और बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद वो किंगमेकर की भूमिका में होंगे. लेकिन उनके सपने-सपने बनकर ही रह गए और महज एक सीट पर सिमटकर चिराग पासवान एनडीए में बने रहने के लिए हाथ पैर मारते नजर आने लगे. इतना ही नहीं एलजेपी के इकलौते विधायक राजकुमार सिंह को जेडीयू ने अपने पाले में कर विधानसभा में एलजेपी की सीटें शून्य कर दीं.
मुकेश सहनी ने चिराग से कुछ क्यों नहीं सीखा?
जेडीयू ने एलजेपी पार्टी को भी दो धड़ों में बांटकर चिराग पासवान की राजनीतिक हैसियत को तार तार कर दिया और 6 सांसदों वाली चिराग की पार्टी अपने पांच सांसदों को गंवा कर राजनीतिक वजूद तलाशती नजर आई. ज़ाहिर है जेडीयू ने चिराग को बिहार विधानसभा चुनाव में नुकसान पहुंचाने के एवज में बड़ी सजा दी और इससे उबरने के लिए चिराग लगातार हाथ पैर मारते बिहार की सड़कों पर देखे जा सकते हैं. चिराग के ऐसे हश्र के बाद वीआईपी पार्टी सुप्रीमो मुकेश सहनी को कुछ सबक जरूर लेना चाहिए था, जो बीजेपी कोटे से एमएलसी बने थे और सिमरी बख्तियारपुर सीट गंवाने के बाद भी उन्हें मंत्री पद देकर बीजेपी ने पुरस्कृत किया था. वीआईपी पार्टी सुप्रीमो एनडीए में नाटकीय ढ़ंग से शामिल हुए थे, जब महागठबंधन चुनाव से ऐन वक्त पहले अपने प्रेस वार्ता में मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री तो दूर उनके मनमाफिक सीट देने से भी परहेज करता नजर आ रहा था.
'सन ऑफ मल्लाह' के नाम से मशहूर मुकेश सहनी मल्लाह और उसके उपजाति का मत प्रतिशत 22 फीसदी बताते हैं. ज़ाहिर है मुकेश सहनी अपने आपको उनका नेता समझते हैं, जबकि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद मुकेश सहनी एनडीए में शामिल हुए लेकिन सिमरी बख्तियारपुर सीट से उन्हें फिर हार मिली. मुकेश सहनी बिहार ही नहीं यूपी जैसे सूबों में भी मल्लाह और उसके उपजातियों में पैर पसार कर राजनीतिक हैसियत बड़ी करने की फिराक में थे इसलिए बीजेपी से यूपी में भी सीटों की डिमांड करने लगे जबकि यूपी में बीजेपी निषाद पार्टी से गठबंधन पहले ही कर चुकी थी.
वीआईपी को बीजेपी सीटें देने को कतई तैयार नहीं थी और बीजेपी के रवैये से खफा मुकेश सहनी बीजेपी ही नहीं बल्कि बीजेपी के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता और पीएम नरेन्द्र मोदी पर यूपी विधानसभा प्रचार के दरमियान लगातार हमले करते रहे. इतना ही नहीं बिहार में एनडीए सरकार में मत्री मुकेश सहनी पंजाब में बीजेपी की हार के बाद प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगने की हिमाकत कर दी जो बिहार प्रदेश के बीजेपी नेताओं को बिल्कुल नागवार गुजरी. ज़ाहिर है मुकेश सहनी ऐसा किस राजनीतिक रसूख के आधार पर कर रहे थे ये समझ से परे है… लेकिन बीजेपी ने उनके विरोध की सजा वीआईपी पार्टी के तीनों एमएलए को तोड़कर दी जिसके सहारे बिहार की राजनीति में वो राजनीतिक रसूख रखते थे. बीजेपी बोचहां विधानसभा क्षेत्र से अपने पूर्व विधायक बेवी कुमारी को उतारने का मन बना चुकी थी जबकि मुकेश सहनी हर हाल में अपना उम्मीदवार उतारना चाहते थे, क्योंकि उनकी पार्टी के विधायक मुसाफिर पासवान की मौत के बाद बोचहां में उपचुनाव संपन्न कराया जाना था.
बोचहां में अपने उम्मीदवार को उतारने पर क्यों अड़े थे मुकेश सहनी
यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ मुकेश सहनी के रवैये से नाराज बीजेपी बोचहां सीट से अपने पार्टी की उम्मीदवार बेबी कुमारी को लड़ाने पर आमदा थी जो पहले भी विधायक रह चुकी हैं. बीजेपी ने बिहार विधानसभा चुनाव में अपने कोटे से 11 सीटें वीआईपी पार्टी को दी थीं और वीआईपी पार्टी से जीतने वाले चारो विधायक बीजेपी से ताल्लुक रखते थे, लेकिन वीआईपी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर साल 2020 में विधानसभा पहुंचे थे.
बीजेपी ने वीआईपी पार्टी को सबक सिखाने के लिए अपनी पार्टी से ताल्लुक रखने वाली सवर्णा सिंह, मिश्री लाल यादव और राजू सिंह को फौरन अपने पाले में कर लिया. मतलब साफ था कि बोचहां में बीजेपी अपने उम्मीदवार उतारेगी और मुकेश सहनी विरोध करने मैदान में उतरते हैं तो उनके विधायकों को पार्टी में शामिल कर राजनीतिक हैसियत बताना निहायत ही जरूरी है. मुकेश सहनी यूपी की तर्ज पर बिहार में भी बीजेपी से बगावत कर बोचहां पर उम्मीदवार खड़ा कर दिए और सार्वजनिक तौर पर लालू प्रसाद की तारीफ कर आरजेडी से अलग होने को लेकर पश्चाताप करते सुनाई पड़े. ज़ाहिर है सिमरी बख्तियारपुर विधानसभा से हार का स्वाद चख चुके मुकेश सहनी को उनके राजनीतिक वजूद का अहसास कराने के लिए बीजेपी ने उनके तीनो विधायक को अपने पाले में कर मुकेश सहनी को पूरी तरह से डिफेंसिव कर दिया.
बीजेपी के प्रवक्ता डॉ. रामसागर सिंह ने मुकेश सहनी को चेतावनी भरे लहजे में पहले ही कह दिया था कि लालू प्रसाद कहां हैं ये मुकेश सहनी को भूलना नहीं चाहिए. मतलब साफ था कि मुकेश सहनी अपनी हरकतों से बाज आएं वरना बीजेपी के खिलाफ उनके बगावती सुर उन्हें जेल की हवा भी खिला सकती है. फिलहाल मुकेश सहनी जुलाई तक एमएलसी पद पर बने रहेंगे लेकिन मंत्री पद पर ज्यादा दिनों तक बने रहना संभव नहीं होगा.
वीआईपी तोड़कर बीजेपी बनी बिहार में नंबर वन पार्टी
आए दिन एनडीए सरकार को गिराने की अफवाहों के बीच बीजेपी ने वीआईपी पार्टी तोड़कर तमाम कयासों पर विराम लगा दिया है. बीजेपी पिछले विधानसभा चुनाव में 110 सीटों पर लड़ी थी, जबकि 11 सीट बीजेपी ने अपने कोटे से वीआईपी पार्टी को निर्गत किया था. बीजेपी 110 सीटों में 74 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, जबकि आरजेडी 140 सीटों पर चुनाव लड़कर 75 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. बीजेपी अपने बेहतर स्ट्राइक रेट का हवाला देकर नंबर वन पार्टी खुदको करार पहले भी देती रही है. वीआईपी पार्टी को तोड़ने के बाद औपचारिक तौर पर 77 का आंकड़ा छूकर बीजेपी अब नंबर वन बन गई है.
ज़ाहिर है बीजेपी नंबर वन पार्टी का दावा कर अब विरोधी ही नहीं बल्कि जेडीयू पर भी साइकोलॉजिकल दबाव बनाने की कोशिश करेगी कि सूबे में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है. इतना ही नहीं बीजेपी ने वीआईपी के तीनों एमएलए को अपने पाले में लाकर आरजेडी के सपने को चकनाचूर कर दिया जो गाहे बगाहे वीआईपी के चार और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के चार एमएलए के दम पर सरकार बनाने का दावा करते सुनाई पड़ते थे. फिलहाल मुकेश सहनी मंत्री हैं, लेकिन उनके गिने चुने दिन शेष हैं. ऐसे में जुलाई में विधान परिषद की सदस्यता समाप्त होने के बाद आरजेडी का दामन थामना ही मुकेश सहनी के लिए एकमात्र विकल्प बचेगा. ज़ाहिर है मुकेश सहनी भले ही आरजेडी के साथ चले जाएं, लेकिन आरजेडी में शामिल होने के लिए उन्हें आरजेडी की शर्तें मानने को बाध्य होना पड़ेगा और सत्ता की मलाई से कोसों दूर 2025 का इंतजार करना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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