गुजरात के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के बाद नरेंद्र मोदी ने सात साल पहले प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला. सार्वजनिक पद पर 20 वर्षों के निर्बाध कार्यकाल ने उन्हें विकास पुरुष के रूप में स्थापित किया है. भारतीय मतदाताओं ने मोदी को एक जन-नेता के रूप में तो देखा, लेकिन आर्थिक सुधारों के संदर्भ में उनकी सरकार से शायद अधिक की उम्मीद नहीं की. मोदी ने न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन के अपने दर्शन के तहत प्रशासन को सुव्यवस्थित किया. उन्होंने भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाया और एक स्वच्छ शासन प्रदान किया.
यूपीए के 10 साल के शासन में भ्रष्टाचार, घोटालों और वित्तीय धोखाधड़ियों को देखते हुए यह आसान काम नहीं था. डॉ मनमोहन सिंह की सरकार निष्क्रिय भूमिका में थी. उनकी गठबंधन की राजनीति ने प्रशासन को अलग-अलग दिशाओं में खींचा. निश्चित रूप से एक व्यापक प्रशासनिक बदलाव की जरूरत थी.
इस संदर्भ में मोदी की सफलताएं सराहनीय हैं. मोदी ने लोगों को निराश नहीं किया. उन्होंने चुपचाप ऐसे आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिसकी कल्पना महान पुरानी पार्टी और उसके हार्वर्ड-प्रशिक्षित तथाकथित 'सुधार ब्रिगेड' द्वारा अब तक भी नहीं की गयी थी.
मोदी सरकार द्वारा आर्थिक, प्रशासनिक और शासन संबंधी सुधारों को पुनर्निर्देशित किया गया है. यह सरकार अंत्योदय की भारतीय अवधारणा में दृढ़ता से विश्वास करती है. सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं कि कैसे शासन को जमीनी स्तर पर ले जाया गया और उन सबसे गरीबों को लाभ प्रदान किये गये.
कांग्रेस सरकारें लाखों कमजोर लोगों को राहत पहुंचाने के लिए आर्थिक सुधारों को सही दिशा देने में असमर्थ रहीं, लेकिन मोदी युग के आर्थिक सुधार असर दिखा रहे हैं. जन-धन योजना के माध्यम से बैंकिंग सुविधा से वंचित रहे क्षेत्रों में चौबीसों घंटे काम में जुटे 1.26 लाख से अधिक बैंक मित्रों की सहायता से 43.29 करोड़ खाते खोले गये.
जब प्रधानमंत्री मोदी ने उज्ज्वला योजना के तहत सभी के लिए 'स्वच्छ' रसोई गैस कनेक्शन की घोषणा की, तो बहुत लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. इसके तहत महिलाओं को 81.665 मिलियन से अधिक रसोई गैस कनेक्शन प्रदान दिये गये. 7 सितंबर, 2021 तक और 16.69 लाख रसोई गैस कनेक्शन प्रदान किये जाने के साथ उज्ज्वला योजना 2.0 भी शुरू की गयी. मनमोहन सिंह ने जहां वृहद-आर्थिक पुनर्गठन से जुड़े मुद्दों को हल करने पर जोर दिया,
वहीं मोदी सरकार ने लोगों के सामने आर्थिक सुधारों और भारत की विकास गाथा का फल परोसा. पिछले छह वर्षों में जमीनी स्तर पर उद्यमिता को मजबूत करने के लिए 28.68 करोड़ लाभार्थियों पर 15 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च किये गये, जो कि दुनियाभर के बैंकिंग इतिहास में अद्वितीय है. यह मोदी युग का एक स्थापित तथ्य है.
आजादी के बाद 75 वर्षों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने को कभी प्राथमिकता नहीं दी गयी, जिससे हर साल लाखों लोग जलजनित बीमारियों के शिकार होते हैं. हो सकता है कि एक सम्मेलन कक्ष से दूसरे सम्मेलन कक्ष की ओर भागते रहनेवाले लैपटॉप-छाप अर्थशास्त्रियों द्वारा इसे बड़े सुधार के रूप में नहीं गिना जाए,
लेकिन जल जीवन मिशन सबसे बड़ा सुधार है, जिसे किसी देश ने शुरू करने की हिम्मत की है. इसकी वजह से आज 8.18 करोड़ घरों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है. इसमें 4.94 करोड़ से अधिक घरों को पानी के कनेक्शन तो 15 अगस्त, 2019 के बाद ही मिले, जब जल मिशन चालू हुआ.
क्या नेहरूवादी नव-उदारवादी कल्पना कर सकते थे कि हर परिवार के सिर पर छत हो? उन्होंने 'कल्याणकारी राज्य' की अवधारणा को पूरा करने में नाकाम रहने के लिए धन की कमी से लेकर सीमित आर्थिक अवशोषण क्षमता जैसे कई बहाने गिनाये होंगे. इस सरकार में शहरों में बसे लोगों के लिए 54 लाख और गांवों में गरीबों के लिए एक करोड़ और घरों के निर्माण की घोषणा करने का साहस था.
अगर सभी के लिए आवास एक जनोन्मुखी सुधारात्मक उपाय नहीं है, तो और क्या है? जब 28 अप्रैल, 2018 को मणिपुर के आखिरी गांव लीसांग को बिजली प्रदान की गयी, तो यह बहुत बड़ी बात थी. मोदी सरकार को आजादी के बाद सभी 5.97 लाख गांवों में बिजली पहुंचाने वाली सरकार के रूप में दर्ज किया जायेगा.
ये कदम ऐसी सरकार द्वारा उठाये गये हैं, जिसे गलत तरीके से व्यापारियों की पार्टी के रूप में चिह्नित किया जाता है. मोदी-पूर्व युग में आर्थिक सुधारों को भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोलने, बड़े उद्योगों के लिए करों में कमी आदि के जरिये परिभाषित किया गया था.
आज शासन को सरल और सेवाओं के वितरण की ओर उन्मुख बना कर आर्थिक सुधारों को नये सिरे से परिभाषित किया गया है, जिसमें उच्च माने जाने वाला कोई हॉर्वर्ड-जनित आर्थिक सिद्धांत नहीं है. आर्थिक सुधारों को सरल बनाने और विकास के मानकों को फिर से गढ़ने का मतलब यह नहीं है कि यह बाजार विरोधी या उद्योग विरोधी है.
वस्तुओं और सेवाओं के अंतिम उपभोक्ता को सशक्त किये बिना कोई भी सुधार टिक नहीं सकता. अगर आर्थिक सुधारों को संकीर्ण रूप से परिभाषित किया जाता, तो उद्योग टिक नहीं सकते थे, बाजार का विस्तार नहीं होता, निर्यात नहीं बढ़ता या किसान समृद्ध नहीं होते और भारत की विकास गाथा कायम नहीं रहती.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)