डिजिटली ज्यादा जुड़े रहना और व्यक्तिगत रूप से लोगों से कटे रहना हमें नुकसान की स्थिति में डाल सकता है
ओपिनियन
एन. रघुरामन का कॉलम:
हाल ही में एक युवा लड़के (मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता) ने आत्महत्या की कोशिश की, क्योंकि पानी में गिरकर उसका फोन खराब हो गया था और पिता ने इसे गैरजिम्मेदारी बताते हुए नया फोन दिलानेे से मना कर दिया था। इसके बजाय उन्होंने उससे ढेर सारे दोस्त बनाने और उनके साथ खेलने के लिए कहा।
उन्होंने कहा, 'बिना विचारे एप्स स्क्रॉल करने के बजाय खुद के लिए कुछ करने का समय क्यों नहीं निकालते? किताब पढ़ो, दौड़ने जाओ, जिम जाओ, तस्वीर बनाओ। वो सब करो जिनके बारे में शायद समय की कमी का हवाला दिया था। ये चीजें तुम्हारी आत्मा को तृप्त करेंगी। पत्र लिखो, रिश्तेदारों के यहां जाओ।
ये न सिर्फ तरोताजगी से भर देगा बल्कि डिजिटल संचार से एक कदम दूर रखेगा।' उस लड़के ने कहा कि उसके 'सच्चे' संबंध फोन पर हैं और हाथ में बिना फोन के उसे घुटन महसूस होती है। ऐसे दृश्य अधिकांश शहरों में और कई बार ज्यादातर घरों में कॉमन हैं।
अगर विज्ञान की मानें तो हम किसी एक समय पर सिर्फ 150 निजी संबंधों संभाल सकते हैं। तो फिर सोशल मीडिया कहां फिट होता है? इन नेटवर्क में हमारे हजारों कनेक्शन होते हैं। माना जाता है कि दिमाग परिचितों के साथ ऑनलाइन चैट व आमने-सामने की बातचीत में फर्क कर सकता है, पर फिर भी इसके लिए कुछ संज्ञानात्मक शक्ति की जरूरत है।
इसका मतलब है कि हम आमने-सामने की मित्रता को प्रगाढ़ करने के बजाय हमारी कुछ 'मित्रता की ऊर्जा' इन ऑनलाइन संबंधों पर खर्च कर देतेे हैं। इसमें समय भी जाता है और असल जिंदगी के संबंधों में निवेश के चंद मौके रह जाते हैं। जबकि सोशल मीडिया निश्चित तौर पर हमें जुड़ा हुआ महसूस कराता है, पर कोई अनुमान है कितना?
वहीं दूसरी ओर असल दुनिया के रिश्ते में इस जुड़ाव का हमारी वैलबीइंग पर सबसे अच्छा असर होता है। पर सोशल मीिडया के तमाम फायदों का मेंटल हेल्थ पर असर होता है-यही सोशल मीडिया का स्याह पहलू है। ये कारण हो सकता है कि वह लड़का सोशल मीडिया से अलगाव के लिए तैयार नहीं था।
हालांकि पूरी तरह अलगाव का उससे कहा भी नहीं गया था। उसके पिता ने सिर्फ दायरा कम करते हुए इसकी सही संख्या का कहा था। पर उसने डिजिटली जुड़े रहने के साथ उससे दूर होने से इंकार कर दिया था। हो सकता है कि लड़के को यह समझ में न आए कि कोई अपने सोशल मीडिया को कंट्रोल कैसे कर सकता है।
हम ऐसा दुनिया में रहते थे जो उन दिनों हमारे लिए 'अंगूठा छाप' थी, जो आज की दुनिया में 'लाइक्स' बन गई है। क्या वाकई हमें हर समय अपनी अंगुलियों पर इतनी सारी जानकारी की जरूरत है? विभिन्न विकल्पों के नाम पर इतनी बमबारी को पचा पाना क्या मानसिक रूप से थकाने वाला नहीं है?
ताज्जुब नहीं कि बच्चे ज्यादातर समय थके दिखतेे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे सोशल मीडिया पर ज्यादातर समय दूसरों की जिंदगी के बारे में सोचते बितातेे हैं, भले वे उन्हें जानते हों या नहीं। अमेरिका में 2018 के एक सर्वे में पाया कि 42% फेसबुक यूजर्स ने अपने पेज चैक करने में कम से कम कुछ हफ्तों का ब्रेक लिया और एक तिहाई लोगों ने एप डिलीट भी किया।
बेशक, कुछ सच्चे कारण हो सकते हैं कि आप सोशल मीडिया को पूरी तरह क्यों नहीं छोड़ सकते या छोड़ना नहीं चाहते। पर अभी भी एक कदम पीछे हट सकते हैं और इसका समय कम करने के लिए एक व्यक्तिगत लक्ष्य तय कर सकते हैं।
फंडा यह है कि डिजिटली ज्यादा जुड़े रहना और व्यक्तिगत रूप से लोगों से कटे रहना हमें नुकसान की स्थिति में डाल सकता है। इसलिए एक तय समयांतराल के बाद सोशल मीडिया से ब्रेक-अप करते रहें ताकि जीवन के दोनों पक्ष- असल और आभासी का आनंद लेते रहें।