'सोमरस के बहाने वोट'
विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा के चुनाव, हजारों प्रत्याशी नामांकन से वोटिंग तक ऐड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं. मतदाताओं को अपनी मीठी बातों से ट्रैप करने की कोशिश में लग जाते हैं. जीत के बाद आपकी तकलीफें दूर करने का झूठा वादा करते हैं और चुनाव बाद ज्यादातर नेता इसे भूल जाते हैं. अपनी जीत के लिए पैसे तो पानी की तरह बहाए जाते हैं, हाल के चुनावों की बात करें तो नेताओं ने लोगों के लिए लंगर लगा रखा है, दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद शाम को शराब को सोमरस के रूप में परोसा जा रहा है. खाने के लिए कई प्रकार के व्यंजन परोसे जा रहे हैं. जो किसी भी मायने में एक स्वस्थ विकास के मॉडल को तैयार करने में अवरोधक का काम करेंगे.
दावत दो वोट लो से कैसे आएगी खुशहाली?
हमारे देश में चुनाव तो वैसे भी खर्चीले होते हैं.
इस लोकतंत्र का दुर्भाग्य देखिए चुनाव भी ज्यादातर वही लोग जीतते हैं जो बाहुबली हैं, धनवान हैं, या माफिया वाला बैकग्राउंड है. हो भी क्यों न जब एक धनवान उम्मीदवार के खिलाफ कोई दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत करने वाला योग्य प्रत्याशी भला कैसे चुनाव लड़ पाएगा. इसका दुष्परिणाम ये होता है कि ईमानदार सत्ता पर नहीं बैठ पाता और बेईमानों के राज्याभिषेक का खामियाजा देश की भोली भाली जनता को उठाना पड़ता है. यूपी के कई जिलों के अलग-अलग गांवों के लोगों से मैंने सम्पर्क किया. सबने चुनाव-फिजूलखर्ची और जीत पर अपनी-अपनी राय रखी, लेकिन उनमें से एक ने भी ये नहीं कहा कि उनके प्रत्याशी सामान्य खर्चे पर चुनाव लड़ रहे हों.
हर किसी के बात से तो यही लगा कि चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशियों ने अपना खजाना खोल दिया है, और वोट का प्रलोभन देकर लोग उन प्रत्याशियों के पैसों से जमकर दावत उड़ा रहे हैं.
राजनीति एक कारोबार
एक कहानी के जरिए समझिए "एक बार एक लाला ने अपने मैनेजर से पूछा कि अब हमारे पास कितना धन है…मैनेजर ने हिसाब-किताब देख पढ़कर बोला कि सेठ जी इतना धन तो हो ही गया है कि आपकी अगली 7 पीढ़ियां बिना काम किए भी खाएंगी तो भी खत्म नहीं होने वाला खजाना है आपके पास' लेकिन सेठ तो सेठ है उसे 8वीं और आगे की पीढ़ियों की चिंता जो थी. ठीक यही हाल हमारे देश के राजनेताओं का हो गया है. एक बार विधायक, सांसद या मंत्री बन जाओ तो हमारी आगे की दर्जनों पीढ़ियां आराम से खा सकेंगी. इससे यहां पर ये समझने की जरूरत है कि राजनीति हिन्दुस्तान में एक व्यापार बन गई है. जो जीता उसकी लॉटरी और जो हारा उसका व्यापार रसातल में.
फिजूलखर्ची वालों से सावधान
देश के दिवंगत प्रधानमंत्री का एक कथन "सरकारें आएंगी.. जाएंगी.. पार्टियां बनेंगी…बिगड़ेंगी…मगर ये देश रहना चाहिए" को हर किसी को गांठ बांधकर इसके समानांतर सोचना चाहिए कि 'प्रत्याशी तो आते-जाते और जीतते-हारते रहेंगे मगर फिजूलखर्ची करने वालों से सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि फिजूलखर्ची करने वाला आपके द्वारा दी गई कुर्सी के बलपर ही सरकारी खजाने में सेंध लगाएगा और जब आप सवाल उठाएंगे तो चुनावों में करोड़ों खर्च का तर्क देकर निकल जाएगा, फिर क्या होगा कभी आपने सोचा है? उन सपनों का क्या होगा जो किसी पिता ने अपने बच्चे के भविष्य के लिए देखा होगा? उन बहनों का क्या होगा जिसका भाई उसकी सुरक्षा से विवाह तक के खर्च को अपनी जेब से संभालेगा? उस मां और पत्नी का क्या होगा जिसने ये सपना देखा होगा कि बेटा या पति अच्छी नौकरी अच्छे व्यापार से उनके सपनों को संवारेगा आने वाले भविष्य में तरक्की की इबारत लिखेगा? ये सारे सपने वहीं धाराशाई हो जाते हैं जब फिजूलखर्ची के दमपर जीतने वाला विकास की रेल को पटरी से नीचे उतार देता है.
प्रतिशोध से बदलाव असंभव
अब जरा ये सोचिए कि जीतने-हारने वाले का घाटा या फायदा तो है, लेकिन आपको क्या मिल रहा है? क्या फिर अगले चुनाव के इंतजार की आस, जिसमें आप सोचते हैं नेता की भ्रष्टाचारी से बदला लेकर उसे हरा देंगे और किसी दूसरे को जिताएंगे…लेकिन होगा क्या? होगा वही नया प्रत्याशी भी मैदान में उतरते ही पानी की तरह पैसे बहाएगा और चुनाव जीतकर आपके प्रतिशोध पर पानी फेर देगा. लेकिन क्या इतने से एक विधानसभा चुनाव जीता जा सकता है. आपके दिमागे में आने वाला जवाब सही है "नहीं इतने में चुनाव लड़ना संभव ही नहीं". जाहिर है प्रत्याशी उससे ज्यादा ही खर्च करेगा. अब जब प्रत्याशी बंपर पैसे खर्च करेगा तो सबसे पहले अपने खर्चे की भरपाई और तब आने वाली अपनी पीढ़ी के लिए धन जमा करेगा उसके बाद कहीं बचेगा तो वो विकास में खर्च करेगा.