खादी और खाकी का घालमेल

खादी और खाकी के अपवित्र गठबंधन को लेकर भारत के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना की हालिया टिप्पणी से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए

Update: 2021-10-05 07:38 GMT

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी।

खादी और खाकी के अपवित्र गठबंधन को लेकर भारत के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना की हालिया टिप्पणी से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आश्चर्य तब होगा, जब इस पर सरकार की तरफ से कोई सकारात्मक कार्यवाही होती दिखेगी या पुलिस के आचरण में कोई बड़ा परिवर्तन नजर आने लगेगा। प्रधान न्यायाधीश ने इस सिलसिले में एक आयोग भी नियुक्त करने की बात की है। उन्हें किसी ने तो याद दिलाया होता कि आजादी के बाद कई आयोग पुलिस सुधारों के लिए नियुक्त किए गए थे। कई बार खुद अदालतों ने ऐसे निर्णय दिए हैं कि अगर पुलिस सुधार की सिफारिशों का अनुपालन किया जाए, तो पुलिस के चाल और चरित्र में व्यापक परिवर्तन हो सकता है। आपातकाल की समाप्ति के बाद तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने धर्मवीर आयोग नियुक्त किया था, जिसने बड़ी मेहनत के बाद संभवत: 1860 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी सुझाव दिए थे, पर दुर्भाग्य से कई जिल्दों में फैली उसकी अनुशंसाओं पर चार से अधिक दशकों से धूल ही जमी है।


प्रधान न्यायाधीश की ताजा टिप्पणी छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जी पी सिंह के संदर्भ में आई है, जो पिछली रमन सिंह सरकार के दौरान महत्वपूर्ण ओहदों पर तैनात थे और सरकार बदलते ही गर्दिश में आ गए। जिस समय उनकी गिरफ्तारी रोकने की याचिका पर प्रधान न्यायाधीश उपरोक्त टिप्पणी कर रहे थे, लगभग उसी समय मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह के फरार होने की खबरें मीडिया में गश्त कर रही थीं। इन दोनों की एक जैसी कहानियां हैं, किसी प्रभावशाली राजनेता की सहायता से मलाईदार तैनातियां हासिल करना और फिर एवज में उस राजनेता की हर गलत अपेक्षा को पूरा करने के लिए गैर-पेशेवराना आचरण करना। देखना होगा कि प्रधान न्यायाधीश की इस टिप्पणी के बाद कितना कुछ बदलाव आता है।
अभी लखीमपुर खीरी में प्रदर्शनकारी किसानों के साथ जो घटना घटी, वह खादी और खाकी के इसी गठजोड़ का नमूना है। एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक आमसभा में स्थानीय सांसद और केंद्रीय मंत्री खुलेआम किसानों को धमकी दे रहे हैं। यदि कानून सम्मत कार्रवाई करने वाली पुलिस होती, तो उनके इस वीडियो की जांच होती और सच पाए जाने पर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाती। इजरायल या फ्रांस में पुलिस अपने प्रधानमंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की स्वतंत्र जांच कर सकती है, तो भारत में एक मंत्री के विरुद्ध धमकी देने पर मुकदमा क्यों नहीं कायम हो सकता? बाद में किसानों पर गाड़ियां चढ़ाई गईं और हिंसा में दोनों पक्षों के कई लोग मरे। इस दौरान पुलिस की किंकर्तव्यविमूढ़ता साफ-साफ दिखी।
उधर, गोरखपुर में करीब एक सप्ताह पहले घटी हृदयविदारक घटना इसी बेशर्म गठजोड़ का एक और उदाहरण है। जिस इंस्पेक्टर के नेतृत्व में पुलिस बल ने यह हत्या की थी, उसके बारे में यह आम शोहरत है कि पिछले कुछ दिनों में ही वह मुठभेड़ और पुलिस कस्टडी में यातना देकर एक दर्जन से अधिक लोगों को मार चुका है। कथित मुठभेड़ों के चलते वह दूसरे इनाम इकराम के अलावा समय पूर्व तरक्की हासिल करते हुए थोडे़ ही वक्त में सिपाही से इंस्पेक्टर बन गया था।
गोरखपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता मनोज कुमार सिंह के अनुसार, यह इंस्पेक्टर कई 'मुठभेड़ों' में गोली मार दल का सदस्य रहा है और उनमें बजाय सजा के इनाम पाते-पाते उसके मुंह में इस कदर खून लग चुका था कि पिछले एक वर्ष में ही कई लोगों ने उसकी यातना के चलते दम तोड़ा है। जान गंवाने वाले गरीब-गुरबा लोग आम तौर पर दलित परिवारों से आते हैं। लेकिन किसी मामले में उसे दंड नहीं दिया जा सका, परिणामस्वरूप उसका हौसला बढ़ता गया। मगर इस बार उसका मुकाबला एक बहादुर औरत से पड़ा और वह घिर गया। कुछ अधिकारी मृतक मनीष गुप्ता की पत्नी को कोई कानूनी कार्रवाई न करने की 'दोस्ताना' सलाह दे रहे थे। इस सलाह का वीडियो सार्वजनिक हो जाने के बाद अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि जिन उच्चाधिकारियों पर अपने मातहतों को अनुशासित कर जनता को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी है, वे कैसे देर रात तक हत्यारे पुलिसकर्मियों के खिलाफ खुद कोई कार्यवाही करने से बचते रहे।
किसी भी सभ्य समाज के लिए गोरखपुर की घटना एक 'वेक अप कॉल' की तरह हो सकती है, लेकिन हमारा अनुभव बताता है कि हमने पुलिस क्रूरता को सामाजिक स्वीकृति दे रखी है। मानवाधिकार कार्यकर्ता मनोज कुमार सिंह गोरखपुर के करीबी जिलों के ऐसे पांच मामलों का जिक्र करते हैं, जिनमें हाल में पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या के मुकदमे दर्ज हुए हैं। यदि इनमें से एक में भी सख्त सजा मिली होती, तो गोरखपुर के इस मनबढ़ू इंस्पेक्टर का इतना हौसला नहीं होता कि वह शहर के केंद्र में स्थित एक होटल में जाकर किसी व्यापारी को लूटने की प्रक्रिया में उसे मार ही डालता।
प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी को यदि गोरखपुर और लखीमपुर खीरी की घटनाओं से जोड़कर देखा जाए, तो किसी के मन में संदेह नहीं रह जाएगा कि पुलिस में व्यापक और बुनियादी सुधारों की जरूरत है। केवल ऊपरी लीपापोती से काम नहीं चलेगा। दुर्भाग्य से आजादी के बाद हम अपनी पुलिस को नहीं समझा पाए कि एक लोकतंत्र में वह जनता की सेवक है और उसे संविधान तथा देश के कानूनों का सम्मान करना ही पड़ेगा। दिक्कत यह है कि जब हमारी सरकारें पुलिस सुधारों या पुलिस आधुनिकीकरण की बातें करती हैं, तब उनकी चिंता के केंद्र में मुख्य रूप से वाहन, शस्त्र या संचार जैसे उपकरणों के स्तरों में बेहतरी ही होती है। सबसे कम ध्यान उस मानसिकता को बदलने पर दिया जाता है, जो पुलिस को सभ्य और लोकतंत्र के लायक बनने से रोकती है। बजाय पुलिस को कानून सम्मत आचरण के लिए प्रोत्साहित करने के सरकारें उन्हें स्वयं विवेचक, जज व जल्लाद, तीनों भूमिकाएं निभाने को मजबूर करती हैं। वे चाहती हैं कि पुलिस खुद ही अपराधियों को मार दे या कम से कम पैर में गोली मारकर अपंग तो कर ही दे। इसी प्रोत्साहन से गोरखपुर जैसे हत्यारे पुलिसकर्मी पैदा होते हैं।
यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि इस बार की न्यायिक सक्रियता कितनी सकारात्मक सिद्ध होगी। कहीं ऐसा न हो कि प्रस्तावित आयोग की सिफारिशें भी पुराने आयोगों की सिफारिशों की तरह सचिवालयों की फाइलों में धूल फांकती रहें।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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