वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने 10 वर्ष पहले अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के लिए कार्यकाल पोस्टिंग का निर्णय पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम द्वारा दायर एक मामले में किया है, लेकिन ज्यादातर राज्य किसी न किसी बहाने से इसके पालन में हीलाहवाली करते हैं। हालांकि, दक्षिण के कुछ राज्यों ने बेहतर व्यवस्थाएं की हैं और उसके परिणाम भी उन राज्यों को बेहतर मिले हैं। भाषा के मसले पर बात करें तो न्याय को जनता की भाषा में करने के लिए इससे बेहतर कदम नहीं हो सकता। आजादी के बाद से ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा प्रश्न यही उठता रहा है कि ज्यादातर मुवक्किलों को पता ही नहीं होता कि कोर्ट में उनके वकील क्या कहते हैं और क्या निर्णय होता है?
कई मंचों से यह बात उठाई जाती रही है, लेकिन आजादी के बाद जो सरकारें रहीं, वे सब अंग्रेजी के प्रति आसक्त रहीं। मोदी सरकार में जरूर भारतीय भाषाओं के पक्ष में कुछ अच्छे कदम उठाए गए हैं। यहां तक कि न्यायपालिका में भी हलचल हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय और कल्याणकारी योजनाओं पर केंद्रित कई निर्णय देश की मुख्य भाषाओं में अनूदित कराकर दिए हैं। दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही गवाहों को उनकी अपनी भाषा में गवाही दर्ज करने की हिदायत दी गई, जिनका अनुवाद न्यायाधीशों के सामने उपलब्ध कराया जाएगा। यदि सिविल सेवा परीक्षा की तरह न्यायिक सेवा में भी भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की छूट दी जाए तब तो सोने पर सुहागा होगा। देश के अधिकांश युवा अपनी मातृभाषा में कानून की पढ़ाई करने के लिए भी प्रेरित होंगे। न्याय सेवा और अपनी भाषाओं में न्याय देने की शुरुआत से प्रवेश परीक्षा भी अपनी भाषाओं में वैसे ही दी जा सकेगी, जैसी शुरुआत इस सरकार ने मेडिकल प्रवेश की नीट और इंजीनियरिंग सेवा में की है।
अब आते हैं न्यायपालिका की स्वतंत्रता के प्रश्न पर। पिछले कई दशकों का अनुभव तो यही बताता है कि न्यायपालिका और केंद्रीय विश्वविद्यालय, दोनों जगह भर्ती में राजनीतिक हस्तक्षेप, वंशवाद और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। हमारे समय में कानून पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र चुनावी राजनीति के लिए विश्वविद्यालय और उसके बाहर सक्रिय रहते थे। इन्हीं में से ज्यादातर फर्जी डिग्रियों और राजनीतिक दबाव आदि के आधार पर वकालत करते-करते अचानक माननीय जज हो जाते हैं। ऐसे हाथों से किसका न्याय होगा और क्या लोकतंत्र का भला होगा? दोनों में ही राजनीतिक कैडर को धड़ल्ले से लोकतंत्र के नाम पर खपाया जाता रहा है। वह तो भला हो विश्वविद्यालय की चुनाव प्रक्रिया को कुछ सही रास्ते पर लाने के लिए लिंगदोह कमेटी का। हालांकि, पूरा सुधार आना अभी शेष है।
विपक्षी नेता लगातार इस आधार पर विरोध करते रहे हैं, क्योंकि जिस 'प्रतिबद्ध न्यायपालिका' के दर्शन की बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी करती थीं, न्यायिक सेवा के गठन के बाद उसके रास्ते बंद हो जाएंगे। न्यायाधीशों की नियुक्ति में गड़बड़झाले को विस्तार से जानने के लिए आप अभिनव चंद्रचूड़ की किताब 'व्हिस्पर्स इन सुप्रीम कोर्ट' को पढ़ सकते हैं। आंकड़े बताते हैं कि वंशवाद और राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर जितनी नियुक्तियां न्यायपालिका और भारतीय विश्वविद्यालयों में होती हैं, उतनी राजनीति में भी नहीं। इसलिए भारतीय शिक्षा सेवा के गठन की भी जरूरत है। 2016 में सुब्रमण्यम समिति ने भी विश्वविद्यालयों में संघ लोक सेवा आयोग की तर्ज पर भर्ती बोर्ड बनाने की सिफारिश की। जिस देश की शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था इतने कमजोर खंभों पर खड़ी हो उसे लोकतंत्र का अपमान ही कहा जाएगा।
देश में करोड़ों मामले दशकों से निर्णय का इंतजार कर रहे हैं। पिछले वर्षों में तो न्यायाधीशों की कमी की बात भी राष्ट्रीय स्तर पर उठी है। वर्ष 2017 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने हताशा में यह तक कह दिया था कि यदि सरकार भर्ती नहीं कर सकती तो जिला न्यायाधीशों के पद पर हम खुद नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार हैं। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने भी जजों की कमी को न्यायपालिका की एक बड़ी समकालीन चुनौती बताया है। उन्होंने भी एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जैसे संगठन का सुझाव दिया है। मौजूदा न्यायाधीश और देश के कई प्रख्यात न्यायविद भी संघ लोक सेवा आयोग के अधीन न्यायिक सेवा के गठन की वकालत कर रहे हैं। उम्म्मीद है कि इस सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति के मद्देनजर शीघ्र ही न्याय व्यवस्था में एक बड़ा परिवर्तन होगा।
( लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)