आजादी के 75 साल और धौलावीरा की कहानी-4: मुअनजोदड़ो से हड़प्पा की ओर

हड़प्पा में नगर नियोजन और रहन-सहन कमोबेश मुअनजोदड़ो जैसा ही था

Update: 2021-08-16 06:47 GMT

राजेश बादल।

15 अगस्त 2021 को हिंदुस्तान अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ में प्रवेश कर गया। आजादी के इन 75 सालों में जहां भारत ने ज्ञान-विज्ञान, समाज, तकनीक, राजनीति, रक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, तो वहीं 75 सालों की इस विकास यात्रा में भारत ने अपनी सभ्यता, संस्कृति, विरासत और धरोहर को पहचानने और अपनी स्मृतियों को सहेजने का गौरवशाली कार्य भी किया है।

हाल ही में यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने गुजरात स्थित धौलावीरा को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। यह भारत का 40वां ऐसा स्थल है जो यूनेस्को की इस सूची में शामिल है।
धौलावीरा ना केवल भारतीय उपमहाद्वीप का गौरव है बल्कि यह मनुष्य सभ्यता की प्राचीन, वैज्ञानिक और सभ्य संस्कृति का वह अध्याय है जो भारत भूमि पर लिखा गया।
आजादी की 75वीं वर्षगांठ के साल में वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, अमर उजाला के पाठकों से श्रृंखलाबद्ध रूप में धौलावीरा की कहानी साझा कर रहे हैं।
राजेश बादल, पुरातत्व विषयों पर गहन रुचि और दक्षता के साथ लिखते रहे हैं। यह विषय लंबे समय से ना केवल उनके पठन-पाठन में शामिल होता रहा है अपितु उनकी शैक्षेेेणिक यात्रा की विषय विशेषज्ञता का हिस्सा भी रहा है।

हड़प्पा में नगर नियोजन और रहन-सहन कमोबेश मुअनजोदड़ो जैसा ही था। लेकिन हड़प्पा को आप अपेक्षाकृत उन्नत श्रेणी में रख सकते हैं। - फोटो : सोशल मीडिया
विस्तार
वैसे तो मुअनजोदड़ो पर जानने के लिए एक उमर काफी नहीं है। फिर भी अभी तक की जानकारी के बाद हम हड़प्पा की ओर बढ़ते हैं। सिंधु नदी के साथ-साथ ऊपर उत्तर दिशा में लाहौर की ओर मुअनजोदड़ो से करीब 700 किलोमीटर दूर हड़प्पा है। सिंधु के बाएं किनारे मुअनजोदड़ो बसा था, तो हड़प्पा दाएं।

हड़प्पा में नगर नियोजन और रहन-सहन कमोबेश मुअनजोदड़ो जैसा ही था। लेकिन हड़प्पा को आप अपेक्षाकृत उन्नत श्रेणी में रख सकते हैं, अलबत्ता पुरातत्ववेत्ता इसे सिंधु घाटी की सभ्यता का ही विस्तार मानते रहे हैं। वैसे तो आज भी भारतीय समाज के बारे में कहा जाता है कि चार कोस पर पानी बदले, और आठ कोस पर बानी।
अनाज भरने के सामूहिक गोदाम
आज भारत में हम भारतीय खाद्य निगम के बड़े-बड़े भण्डार गृह या गोदाम देखते हैं। हड़प्पा में भी ऐसा ही एक विशाल अन्न भंडारगृह मिला था। यह भंडार गृह 169 फिट लम्बा और 135 फिट चौड़ा था। दो हिस्सों में बंटा हुआ था। बीच में 23 फिट का रास्ता या गलियारा भी मिला था। प्रत्येक भाग में छह बड़े हाल पाए गए थे। इनके बीच पांच गलियारे पाए गए थे।
ऐसा लगता है कि ये बड़े भंडार गृह आसपास के छोटे शहरों या गांवों के किसान सामूहिक रूप से फसल सुरक्षित रखने के लिए किराए पर लेते रहे होंगे, क्योंकि किसी एक बड़े और संपन्न किसान के लिए भी इतने बड़े भंडार गृह बनवाना संभव नहीं था। यह भी हो सकता है कि उस समय की नियंत्रक सरकार की ओर से यह सुविधा किसानों को दी गई हो। बदले में कोई कर लिया जाता रहा हो।
अनाज या अन्य सामग्री तौलने के लिए नियमित वजन के बांट और तराजू भी हड़प्पा में मिलते हैं। आवागमन के साधनों में हमें मुअनजोदड़ो में बैलगाड़ी के अस्तित्व का पता चला था। उसके खिलौने भी मिले थे। लेकिन हड़प्पा से तांबे का एक नमूना मिला है, जो छतरीदार इक्के जैसा है। इस तरह के इक्के भारत के अनेक शहरों में स्वतंत्रता के बाद भी चलते थे। मैंने स्वयं इन्हें देखा है। इसके अलावा हड़प्पा में मूर्तिकला विकसित और सुंदरता से होती थी। मानव आकृतियों में नक्काशी इतनी बारीक है कि आप दंग रह जाएं।
किला, परकोटा और पक्की ईंटें
हड़प्पा में घर निर्माण में एक उल्लेखनीय परिवर्तन मिला था। मुअनजोदड़ो में कच्ची ईंटों का उपयोग किया गया था,पर हड़प्पा में पकाई गई ईंटों से घर बनाने का कौशल पाया गया था। ठीक वैसा ही जैसे आज के भारत में ईंटों को पकाया जाता है। इन ईंटों को चूने से जोड़ा गया था। इस जुड़ाई के बाद दो ईंटों के बीच चारकोल भरा गया था। इसका उद्देश्य संभवतया पानी के रिसाव को रोकना रहा होगा। इसके अलावा हड़प्पा में नगर किनारे करीब पचास से सत्तर फिट की ऊंचाई पर दुर्ग याने किले का भी अवशेष मिला था।
किले से शहर के चारों ओर परकोटा बनाया गया। किले के निर्माण और सड़कों पर पक्की ईंटें बिछाई गई थीं। परकोटे के भग्नावशेष वैसे ही हैं, जैसे हम आज के हिन्दुस्तान में ऐतिहासिक नगरों में देखते हैं। दिल्ली ,चंदेरी,आगरा,मांडू तथा अनेक नगरों में ये परकोटे टूटे -फूटे रूप में अपने अतीत की कहानी कहते हैं।
परकोटे की ऊंचाई लगभग 35 फिट ऊंची और 40 फिट चौड़ी थी। शायद यह किला उस समय के शासक या राजा का रहा होगा। ध्यान देने की बात है कि घर निर्माण में पत्थरों का इस्तेमाल नहीं मिला है। यहां तक कि घर से निकलने वाले पानी की नाली पर भी मिटटी की पकाई गई बड़े आकार की फर्शी या चीप जैसी ईंट होती थी।
सुहागन महिलाओं को दफनाने की परंपरा
हड़प्पा काल में शव जलाने की नहीं, बल्कि दफनाने की परंपरा थी। मृतक का सिर उत्तर की ओर और पांव दक्षिण की ओर रखे जाते थे। मृतक के साथ तरह-तरह के पात्रों में खाने-पीने वाली सामग्री रखी जाती थी। इन पात्रों की संख्या चालीस तक पाई गई थी।

एक कब्र में मृतक महिला शीशम की लकड़ी के ताबूत में दफनाई गई थी। इस ताबूत का ढक्कन देवदार का था। अब उस इलाके में देवदार के पेड़ रहे होंगे या मृतक महिला बेहद अमीर खानदान की रही होगी, जिसके घरवालों ने उसे दफनाने के लिए उदारतापूर्वक धन खर्च किया होगा।
जैसे कि आज के हिंदुस्तान में किसी सुहागिन महिला की मृत्यु पर पूर्ण श्रृंगार के साथ उसे विदा करने की परंपरा है, उस समय भी ऐसा ही था। मृतक महिला के शव के साथ अंगूठी, कानों की बाली, गले का हार, चूड़ी और तांबे के फ्रेम में जड़ा हुआ आइना भी रखा गया था। हड़प्पा में मिट्टी के बर्तन भी बनने लगे थे। मुअनजोदड़ो में इस तरह के अवशेषों के मिलने की जानकारी नहीं है।
तमिल भाषा के करीब है वह लिपि
हड़प्पा काल में जो लिपि प्राप्त हुई है, उसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। इसमें पहली पंक्ति दाहिनी तरफ से बाएं तरफ लिखी जाती थी। पर जैसे ही वाक्य पूरा होता था तो, दूसरी पंक्ति बाएं से दाएं लिखी जाती थी। आज हम हिंदी बाएं से दाएं लिखते हैं और उर्दू दाहिने से बाएं। हालांकि, इस लिपि के बारे में पुरातत्वविद एच.हेरास ने बड़े भरोसे से लिखा था कि यह लिपि तमिल भाषा का आदम संस्करण है।
इतिहासकार ए.एल. बाशम का दावा है कि संसार में सबसे पहले कपास का प्रयोग हड़प्पा के नागरिकों ने किया था। यहां लोगों ने लकड़ी काटने की दांतेदार लोहे की आरी का आविष्कार कर लिया था। यानी लोहा और तांबा उनकी जिंदगी में दाखिल हो गया था। लिंग पूजा के भी प्रमाण यहां मिले हैं।
हड़प्पा की धार्मिक संस्कृति अनेक परिष्कृत रूपों में आज भी हिंदू धर्म की परंपराओं में पाई जाती है। दक्षिण भारत में भी यह मजबूत हाजिरी लगाती है। हड़प्पा की व्यवस्थित,विकसित और अनुशासित सभ्यता का समापन बाहरी आक्रमणकारियों से हुआ माना जाता है। उन हमलावरों ने इस सभ्यता के अंतिम चरण में घोड़ों का अस्तित्व भी शामिल कर दिया।
अफसोस है कि हिंदुस्तान के बंटवारे ने मुअनजोदड़ो और हड़प्पा काल के दरवाजे शोध करने वालों और इतिहासकारों के लिए बंद कर दिए। पाकिस्तान की हुकूमतों ने अतीत की साझा विरासतों की गहराई में जाने का प्रयास नहीं किया। आने वाली नस्लों को पुरखों से परिचित कराने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
जाहिर है संसार के किसी भी देश में अपने पुरातात्विक वैभव के साथ षड्यंत्र का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। उनके लिए मुअनजोदड़ो आज भी पुराने मुर्दों का एक टीला ही है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है। 
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