केजरीवाल की 'आप' भी अकेले ही चुनावी संघर्ष कर रही है। उधर मणिपुर में एनपीपी विपक्ष की भूमिका में है। ये तमाम दल भाजपा के वर्चस्व और कांग्रेस की अप्रासंगिक राजनीति के विरोध में हैं, जबकि चंद्रशेखर राव का मानना है कि कांग्रेस जैसी पार्टी के बिना विपक्ष का राष्ट्रीय मोर्चा नहीं बनाया जा सकता। उद्धव ठाकरे की सहमति भी इस मान्यता के साथ है। यहां तक कि तृणमूल कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति को भी आंका जा रहा है कि विपक्षी मोर्चे में उसकी मौजूदगी अहं है। उसके बिना भी 2024 का सपना वाकई दिवास्वप्न होगा। अभी जो कवायद शुरू की गई है, उसका बुनियादी फोकस है, राष्ट्रपति चुनाव। इसी साल जून-जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव होना है। चंद्रशेखर राव की सियासत है कि अपना राष्ट्रपति चुनने के लिए भाजपा को अपेक्षित क्षेत्रीय और छोटे दलों का समर्थन हासिल न हो अथवा भाजपा को उसके लिए मोल-भाव के हालात झेलने पड़ें। उसके मद्देनजर मौजूदा राज्य चुनाव बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। बेशक सपा-रालोद, आप, एनपीपी चुनावी जनादेश हासिल न कर पाएं, लेकिन विपक्ष के तौर पर उनकी ताकत बढ़नी चाहिए। विधायकों की संख्या सत्तारूढ़ दल के अनुपात में बेहद कम न हो।
यदि राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी दल एक ही मोर्चे के तले लामबंद होते हैं, तो भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी का वर्चस्व तोड़ा जा सकता है। फिलहाल विपक्षी मोर्चे का नया आकार सामने नहीं आया है। चंद्रशेखर राव ने महाराष्ट्र से शुरुआत की है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.स्टालिन के साथ विमर्श बेहद जरूरी है, क्योंकि वे अपने-अपने राज्य में बेशुमार ताकत संजोए हुए हैं। तेलंगाना के सहोदर राज्य आंध्रप्रदेश में भी भाजपा-कांग्रेस से अलग विचारधारा की सरकार है, लेकिन वह विभिन्न मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी को समर्थन भी देती रही है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की राजनीति समझ नहीं आती। जो अभी तक स्पष्ट है, उसके मद्देनजर विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस ही करना चाहती है, लिहाजा परोक्ष रूप से उसका कहना है कि विपक्ष का सर्वसहमत नेता भी कांग्रेस का ही होना चाहिए। तेलंगाना में 2023 में ही विधानसभा चुनाव हैं। वहां बड़े आक्रामक तौर पर भाजपा अपना जनाधार व्यापक बना रही है। उसका अंदाज पश्चिम बंगाल सरीखा है, जहां नाममात्र विधायकों से आज पार्टी सदन में प्रमुख प्रतिपक्षी दल है। चंद्रशेखर राव की सियासत अपने दल के अस्तित्व पर केंद्रित है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय चुनावों को नए ढंग से परिभाषित किया है। आम धारणा बन गई है कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की भाजपा और राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दल या फिर भाजपा को ही जनादेश दिया जाना चाहिए। बहरहाल विपक्षी मोर्चे की कवायद फिलहाल निर्णायक नहीं है और 2024 की कौड़ी भी बहुत दूर है।