मथुरा से वृंदावन तक : राजा महेंद्रप्रताप का 'प्रेम केंद्र' बहुत खामोश है

मथुरा से वृंदावन तक

Update: 2021-11-12 13:37 GMT

मथुरा से वृंदावन तक का सफर हमने तांगे से पूरा किया, जिसे हांकने वाला मुसलमान किशोर बहुत दिलचस्प था। रास्ते भर वह अपनी बातों से हमें हंसाता-गुदगुदाता रहा। वृंदावन हमारे लिए क्रांतिकारी राजा महेंद्रप्रताप से जुड़ा सबसे बड़ा तीर्थस्थल है। उनके जन्म स्थान मुरसान से भी ज्यादा यादगार। यहां उनका बनाया प्रेम महाविद्यालय है, जो इस क्रांतिकारी के सपने सरीखा है, जिसे वह जमीन पर उतारना चाहते थे।


यह परिसर इन दिनों जर्जर होने की मुखबिरी कर रहा है। इसके अतीत का गौरव अब ध्वस्त होने के कगार पर है। इस संस्था के प्रधानाचार्य डॉ. देवप्रकाश शर्मा इसे संरक्षित करने के लिए बेहद चिंतित हैं। वह चाहते हैं कि इसके पुनरुद्धार और संरक्षण का जरूरी दायित्व सरकारें शीघ्र संपन्न करें। एक समय यह दुनिया का दूसरा तकनीकी संस्थान था, जिनकी नींव पं. मदनमोहन मालवीय ने रखी थी। यहां बने 'प्रेम केंद्र' में महेंद्रप्रताप की प्रतिमा और निकट ही उनकी समाधि के सब तरफ अब उदासी का घेरा है। गोया बियावान में कुछ गुमनाम-सा पड़ा हो। इस अधूरे बने समाधि-स्थल पर छत नहीं है।

विगत कुछ वर्षों से राजा महेंद्रप्रताप के नाम का हर तरफ इस्तेमाल हो रहा है। ऐसा करने वाले इस महाविद्यालय की नष्ट होती इमारत और उनके उपेक्षित समाधि-स्थल की ओर नहीं देखते, जिसके साज-संवार की जरूरत है। अलीगढ़ में राजा महेंद्रप्रताप के नाम पर विश्वविद्यालय के शिलान्यास से पूर्व यह जरूरी कार्य करने की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वर्ष 1992 में जब हमने तिरुवनंतपुरम में क्रांतिकारी चेम्पकरामन पिल्लै के जन्म स्थान पर पहुंचकर उनकी जन्मशती मनाई थी, तब राजा महेंद्रप्रताप के नेतृत्व में विदेश में बनी क्रांतिकारियों की अंतरिम सरकार का पूरा खाका हमारे सामने था, जिसमें पिल्लै विदेश मंत्री थे।

उस सरकार में मौलाना बरकतउल्ला को प्रधानमंत्री का ओहदा दिया जाना हमारे विप्लवी इतिहास का अनोखा अध्याय है। क्रांतिकारियों की जिस अंतरिम सरकार के राष्ट्रपति राजा महेंद्रप्रताप थे, उसके प्रधानमंत्री रहे बरकतउल्ला उन दिनों ब्रुसेल्स में आयोजित साम्राज्यवाद-विरोधी सम्मेलन में एक स्वतंत्र देश के प्रतिनिधि की हैसियत से सम्मिलित हुए थे और लेनिन ने उन्हें उसी के अनुरूप सम्मान दिया था। जनता के प्यार ने राजा महेंद्रप्रताप को संसद में पहुंचाया, जहां उनका स्वागत करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि आज हमारे एक बुजुर्ग हमारे बीच आए हैं और उनके अनुभवों से हमें फायदा पहुंचेगा।

अपनी सक्रियता के दौर में राजा ने लेनिन से भी भेंट की थी और वह मिलन-कथा अत्यंत रोमांचक है। आजादी के बाद दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी सम्मेलन की अध्यक्षता उन्होंने की, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। उन्होंने अपना नाम 'पीटर पीर प्रताप' रखा, जो उनकी अडिग प्रतिबद्धताओं को जाहिर करता है। बाद में उनकी स्मृति और सम्मान में डाक टिकट भी जारी हुआ। राजा महेंद्रप्रताप को याद करने का अर्थ उस पूरे क्रांतिकारी अभियान को उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ देखना-जानना है, जिसमें बरकतउल्ला और पिल्लै ही नहीं, ओबैदुल्ला सिंधी, मौलवी बशीर तथा उनके सभी साथी एकजुट थे।

राजा जी पर रूसी क्रांति का बहुत प्रभाव था। उन्होंने कहा भी था, 'उस समय प्रत्येक जिह्वा पर बोल्शेविकों और लेनिन की ही बात थी। मुझे आंदोलन के नारों ने द्रवीभूत कर दिया और मैंने तुरंत अफगानिस्तान नरेश को एक पत्र लिखा, जिसमें मैंने रूस यात्रा की इच्छा प्रकट की थी। फिर जल्दी ही वह दिन भी आ गया, जब मुझे आंदोलन के उद्गम-स्थल पैट्रोग्राड जाने का निमंत्रण प्राप्त हो गया। तिरमिच के एक युवा सोवियत कमीसार ने मेरा स्वागत किया, फिर मैं ताशकंद पहुंचा। कुछ दिनों के बाद मार्च, 1918 में मैंने एक विशेष रेलगाड़ी से पैट्रोग्राड की यात्रा की।'

उन्हीं दिनों रूसी क्रांतिकारी सेना के कमीसार की ओर से पैट्रोग्राड के कम्यून को राजा के संबंध में एक आदेश मिला, जो प्रमाणपत्र जैसा था और जिसमें लिखा था, 'इस पत्र के धारक राजा महेंद्रप्रताप आजकल रूस में हैं और स्विट्जरलैंड जा रहे हैं। वह जर्मनी के रास्ते से जाएंगे। उनके साथ निजी सचिव श्री ग्रिगोरी खाजानोविच और निजी परिचारक श्री मुजीब अली हैं। सोवियत गणराज्य के रूसी संघ के समस्त समुदायों के समस्त अंगों को यह आदेश दिया जाता है कि वे राजा महेंद्रप्रताप और उनके साथियों की पूरी सहायता करें।'

राजा महेंद्रप्रताप की इस वैश्विक चेतना और विचार भूमि को नकार कर इन दिनों उन्हें 'जाट राजा' कहने की कोशिशें उनके क्रांतिकारित्व को कमतर करती हैं। हम फिर प्रेम महाविद्यालय की ओर लौटते हैं, जिसे जमींदोज होते देखना बेहद तकलीफदेह है। पुराना मेहराबदार दरवाजा और काले फाटक के भीतर पहुंचकर इसकी गिरती छतों को देख हम सिर्फ खामोश हो सकते हैं। उनकी यह ऐतिहासिक शिक्षा संस्था और उनकी अंतिम शरण स्थली आस्था के एक दीये-भर से रोशन हो सकती है, जिसकी हमें प्रतीक्षा है।

अमर उजाला 
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