सम्पादकीय

बाहर बारिश, भीतर बारिश

Subhi
15 Jun 2022 4:41 AM GMT
बाहर बारिश, भीतर बारिश
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सावन भादों बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी, अमीर खुसरो यूं कहें तू बूझ पहेली मोरी’ और उत्तर दे देते थे ‘मोरी’ । ‘सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखता है’

स्वरांगी साने; सावन भादों बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी, अमीर खुसरो यूं कहें तू बूझ पहेली मोरी' और उत्तर दे देते थे 'मोरी' (नाली)। 'सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखता है', यह कहावत ऐसे ही नहीं बनी होगी। सावन की जब झड़ी लगती है तो रुकने का नाम नहीं लेती। वह आंखों से बरसात कराती है तो कभी मन का मोर उसके साथ नाच उठता है। कभी कागज की नावों के साथ मन भी बहता चला जाता है, कभी सावन के झूलों के साथ यादें ऊंची पेंग भरने लगती हैं।

कई बार समझ ही नहीं आता कि बारिश बाहर हो रही है या भीतर। अहमद फराज कहते हैं 'शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है, मेरे अंदर बारिश होती रहती है।' कालिदास ने 'मेघदूत' लिखा, मोहन राकेश ने 'आषाढ़ का एक दिन'। बारिश ने, बादलों ने हमेशा लुभाया है, केवल कवि-मन को नहीं, केवल प्रेमी-प्रेमिकाओं को नहीं, हर उसको, जो मन से कलाकार है। किसी ने इंद्रधनुषी तूलिका से आकाश रंग देने का मन बना लिया, किसी ने सितार की झंकार से बरसात से होड़ लगा ली, कहीं तबला-पखावज बादलों की गड़गड़ाहट से जुगलबंदी करने लगा, तो कहीं किसी गायक ने मियां मल्हार छेड़ दिया। बादलों के छा जाने से केवल मन नास्टेलजिक नहीं हुआ, वाद्य भी उतर गए, जिन्हें छोटी हथौड़ी से चढ़ाना पड़ा। पूछ लीजिए किसी गायक-वादक से, बादल भरे दिनों में सितार-तानपूरे-तबले को कैसे कसना पड़ जाता है।

बारिश का कोलाज कई रंगों को समेटे होता है। स्कूल के पहले ही दिन बारिश होती ही है जैसे। नया बस्ता, नई कापी-किताबें, नई पोशाक, नए जूते और नई कक्षा में साथ हो लेती नई-नई बारिश। कालेज के दिनों में बारिश और कैंटीन का अलग नाता बन जाता था। प्यार की पहली बारिश और साथ भीगने की कसक जिन्होंने अनुभव नहीं किया जैसे उन्होंने प्यार ही नहीं किया। शादी के बाद मायके जाने को हुलसाती पहली बारिश। नौकरी पर देर से पहुंचने का एक बहाना-सी बनती बारिश। कभी बारिश ने अटकने का मौका दिया, सच में कहीं फंसा दिया, तो कभी बारिश ने घंटों ट्रैफिक जाम भी लगवा दिया। बारिश जो न करे, कम है।

घनघोर बरसात में न रेनकोट काम आता है, न छाता और तेज हवा के साथ छाते के उल्टा हो जाने के किस्से हर किसी के पास होते हैं। तब किसी पेड़ के नीचे खड़े होने पर भीगने से बच नहीं पाते, केवल मन को समझाते हैं कि इस तरह नहीं भीगेंगे, लेकिन भीगते तब भी हैं। तब कोई 'साइंसदां' दिमाग वाला कहता है, पेड़ के नीचे मत खड़े रहो, बिजली पेड़ों पर ही गिरती है और सिर को गीला होने से बचाने की नाकाम कोशिश में कभी सिर पर हथेली रख, कभी किताब रख, कभी दुपट्टे या आंचल का छोर रख दूसरे किसी ओट में जाने की जद्दोजहद भी बारिश के साथ याद आती है।

बारिश जिस घर में आती है, वहां अलग कहानी दे जाती है। कहीं प्रेयसी की याद जलाती है, कहीं अकाल के बाद की राहत लाती है, कहीं बाढ़ का मातम छोड़ जाती है। वैसे तो मेघों को किसी दूत की जरूरत नहीं होती, नौतपा तपता है तो हर कोई उसे सहन कर जाता है कि अबके बारिश अच्छी होगी। मेढक टर्राने लगते हैं तो धारणा बनती है- बारिश होने को है। कुछ काली चींटियां जमीन पर आ जाती हैं, तब भी कहते हैं कि बारिश होने के आसार हैं। बारिश जनवासे को सूना करती है, लेकिन बारिश ही रक्षाबंधन, हरियाली तीज जैसे त्योहार लाकर हाथों पर मेहंदी रच देती है।

बारिश तो उस अबोध बच्चे की तरह होती है, जो आपकी ओर देख हंस पड़ता है, आप हंसना चाहें, न चाहें। बादल उन दादाजी की तरह है, जो रौबदार आवाज में दहाड़ते से हैं 'चार दीवारी में दुबक रहे हो कि मैं आ रहा हूं'। वर्षा तो उस दादी की तरह है, जो धूप से राहत दिलाती है और दादाजी की बात पर चिकुटी भर कहती है, 'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'। बारिश कभी उस मां की तरह होती है, जिसे धरती की फटन, टूटन, दरार देखी नहीं जाती और स्नेह की नमी से उसे भर देती है। वह उस बहन की तरह है, जो वृक्षों को छोटा भाई मान अपना सारा दुलार लुटाने आ जाती है। यह उस भाई की तरह भी होती है, जो किसान को उसके श्रम का प्रतिदान खुले हाथ से दे देता है और फसलें लहलहा उठती हैं।

भीगी आंखों की कोर से बारिश कहती है आंसुओं में मत भीगो, भीगो आनंद की जलधार में… रसधार में और बुढ़ापे की ओर बढ़ते थके कदमों को भी कह जाती है, 'कभी तो फिसले थे बारिश में, तुम भी' और बूढ़ा मन भी बारिश की यादों में कुलांचे भरने लगता है, है न!


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