सम्पादकीय

उपन्यास: Part 20- दुनिया रंग-बिरंगी

Gulabi Jagat
28 Sep 2024 1:21 PM GMT
उपन्यास: Part 20- दुनिया रंग-बिरंगी
x
Novel: दुनिया भी बड़ी रंग -बिरंगी है। यहाँ कब क्या हो जाए किसी को पता नही होता। यही तो जीवन की विशेषता है कि ये हर पल हर क्षण नए - नए रंग बदलती है । माँ को बिस्तर पर रहते एक वर्ष 5 महीने बीत चुके थे। सब कुछ सही चल रहा था । पैर भी धीरे-धीरे सीधे हो रहे थे। हालांकि सब कुछ बहुत ही धीमी गति से हो रहा था। अचानक एक दिन भैया का फोन आया। माँ को ले कर आने के बाद भैया से दूसरी बार बात हो रही थी। इससे पहले वे कभी नही पूछे कि मां कैसी है। उन्होंने मिनी से कहा- "मिनी! हमारे घर में बेटी हुई है, माँ को बता देना।" मिनी ने बधाई दी और फोन माँ को दे दी ये कहकर कि मां को आप बताइये, मां को बहुत खुशी होगी।
जैसे ही माँ की आवाज़ उन्होंने सुनी, बड़े ही अनमने ढंग से पूछे - "तबियत कैसी है?" माँ के मुँह से निकल गया- "अब तक मेरे ऊपर लाखो रुपये लग गए।" सुनते ही बड़े जोर से चिल्लाकर बोले- "दो मिनी को फोन।" और मिनी से भी बात नही किये । फोन काट दिए। वास्तव में बुढापा बचपन का पुनरागमन होता है। इस अवस्था को समझना उतना ही कठिन है जितना कि बचपन को समझना। जैसे ही माँ ने सुनी कि उनकी पोती हुई है, माँ की खुशी का ठिकाना नही रहा। सब कुछ भूलकर माँ को बेटे के पास जाने की इच्छा सताने लगी।
उनको लगता था कि वो बहुत जल्दी अच्छी हो जाएंगी। चलने लगेंगी। सब काम अपने हाथो से कर लेंगी। उनको अब बिस्तर बिल्कुल काटने लगा था। वो दिन रात उठने की कोशिश करती। मिनी को ये भय सताने लगा कि अगर मैं घर में नही रही और माँ कहीं उठने की कोशिश में बिस्तर से गिर पड़ी, तब क्या होगा ? मिनी ने बिटिया की पलंग मां को दे दी क्योकि उसकी ऊंचाई सबसे कम थी जिससे अगर कभी माँ सभी के अनुपस्थिति में धोखे से गिरे भी तो माँ को चोट न लगे । जब स्कूल जाती तो मां को समझा के जाती कि उठने का प्रयास बिल्कुल न करे। बिस्तर को लकड़ी के स्टूल से लकड़ी की कुर्सी से घेर के जाती जिससे माँ करवट बदलते समय न गिरे।
मन को समझाना सबसे कठिन काम होता है। मन न जाने कब ताकतवर हो जाता है और कब दुर्बल हो जाता है पता ही नही चलता। शायद मन हमारे विचारों का अनुसरण करते हैं और विचार न जाने कहाँ से घर बना लेते हैं। मनुष्य के मन को समझना भी उतना ही कठिन कार्य है जितना कि मन को समझाना। जैसे-जैसे जड़ी-बूटी असर दिखा रही थी। माँ के शरीर में स्फूर्ति तो आ रही थी परंतु पैर सीधे होने का नाम नही ले रहे थे। मिनी को बार-बार डॉ की बाते याद आती- "चाहे आप कुछ भी कर लो इनके पैरो को ठीक नही कर पाओगी।" फिर भी मिनी को लगता था कि जब इतना सही हो गया है तो आगे भी सही होना चाहिए न।...... क्रमशः
Next Story