सम्पादकीय

आरक्षण नीति का नया दौर

Subhi
8 Nov 2022 3:20 AM GMT
आरक्षण नीति का नया दौर
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सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के 103वें संशोधन को संविधानसम्मत करार देते हुए सोमवार को आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के प्रत्याशियों को शिक्षा संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी। पांच जजों वाली संविधानपीठ द्वारा दो के मुकाबले तीन के बहुमत से सुनाए गए इस फैसले के निहितार्थ बहुत दूर तक जाते हैं।

नवभारतटाइम्स; सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के 103वें संशोधन को संविधानसम्मत करार देते हुए सोमवार को आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के प्रत्याशियों को शिक्षा संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी। पांच जजों वाली संविधानपीठ द्वारा दो के मुकाबले तीन के बहुमत से सुनाए गए इस फैसले के निहितार्थ बहुत दूर तक जाते हैं। आरक्षण मौजूदा दौर के कुछ सबसे जरूरी, पर उतने ही जटिल और विवादित मसलों में रहा है। ऐसे में जब संसद ने 2019 में संविधान में संशोधन करके देश में गरीबों के लिए अलग से दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की तो स्वाभाविक रूप से उसके विरोध में आवाजें उठने लगीं और सुप्रीम कोर्ट में भी इस संशोधन को चुनौती देती याचिकाएं आने लगीं।

इन याचिकाओं में उठे तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए कोर्ट ने ताजा फैसले में जो कुछ कहा है, उससे कुछ बातें पूरी तरह साफ हो गई हैं। पहली, अब तक कहा जाता था कि देश में आरक्षण सिर्फ सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन के ही आधार पर दिया जा सकता है किसी और आधार पर नहीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने साफ किया कि आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है और यह संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ नहीं है। दूसरी बात यह कि चूंकि नई श्रेणी बनाकर यह आरक्षण दिया जा रहा है और पहले से शामिल समुदायों के कोटा में कोई फेरबदल नहीं किया गया है, इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि नई व्यवस्था उन समुदायों के खिलाफ है या इसके जरिए उनके हितों को प्रभावित करने की कोशिश की गई है। तीसरी बात यह कि कुल आरक्षण पर अधिकतम 50 फीसदी की सीमा भी इस मामले में बाधा नहीं बनती।

माना गया कि आरक्षण अपने आप में साध्य नहीं बल्कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का एक साधन है। चूंकि इतने वर्षों में भी इसका लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है, इसलिए आरक्षण से जुड़े प्रावधानों में जरूरी बदलावों पर विचार-विमर्श होना ही चाहिए। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर समाज और राजनीति के अलग-अलग हिस्सों से शुरुआती प्रतिक्रिया मिली-जुली आई है। यह देखना होगा कि क्या कोई पक्ष इस फैसले पर पुनर्विचार की अपील करता है या नहीं। लेकिन वह बाद की बात है। फिलहाल देश की शीर्ष अदालत का यह फैसला लागू हो चुका है। इसने आरक्षण से जुड़ी अंतहीन सी लगती बहसों के कई पहलुओं पर विराम लगाने का काम किया है। लेकिन ऐसे मामलों में कोई भी एक फैसला सारे सवालों के जवाब नहीं दे सकता। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि आरक्षण का मकसद पूरा नहीं हुआ है, सभी तबकों को समुचित प्रतिनिधित्व मिलना अभी बाकी है। ऐसे में इससे जुड़े नए सवाल उठने भी बंद नहीं हो सकते, किसी लोकतांत्रिक समाज के लिए यह अभीष्ट भी नहीं है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि आगे उठने वाले सवालों को भी खुलेपन के साथ और प्रगतिशील मूल्यों की कसौटी पर ही परखा जाए।



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