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By: divyahimachal
सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश कई संदर्भों में यह टिप्पणी करते रहे हैं कि न्यायिक सिद्धांत में जेल ‘अपवाद’ है और जमानत ‘नियम’ है। धनशोधन निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में भी यह सिद्धांत लागू होता है। निचली अदालतों को भी यह ध्यान में रखना चाहिए और जमानत देने में संकोच नहीं करना चाहिए। सर्वोच्च अदालत की न्यायिक पीठ ने ‘प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय’ के मामले में आरोपित को जमानत दी है। मामला धनशोधन का ही था। गौरतलब है कि दिल्ली शराब नीति घोटाले में पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और ‘भारत राष्ट्र समिति’ की नेता के. कविता को भी सर्वोच्च अदालत ने जमानत पर रिहा किया है। हालांकि सिसोदिया को करीब डेढ़ साल और कविता को पांच महीने जेल में काटने पड़े हैं, जबकि दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसी केस में जेल में अब भी बंद हैं। मामले का औपचारिक ट्रायल अभी शुरू नहीं हो पाया है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अपनी जांच पूरी कर आरोप-पत्र अदालत में दाखिल कर दिए हैं, जबकि सीबीआई जांच अभी जारी है। ‘जेल-जमानत’ वाले न्यायिक सिद्धांत के पीछे सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश औसतन व्यक्ति की मुक्ति के मौलिक और संवैधानिक अधिकार की दलील देते रहे हैं कि महज जांच और पूछताछ के लिए व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में बंद रखना गैर-न्यायिक है।
जमानत का प्रावधान भी संवैधानिक नियम है। ‘जेल बनाम जमानत’ वाले सिद्धांत पर उन दो न्यायाधीशों ने फैसला सुनाया है, जो भारत के प्रधान न्यायाधीश बनने की कतार में हैं। बीते कुछ समय से ‘जमानत’ को लेकर सर्वोच्च अदालत की मानसिकता और सोच में बदलाव आया है। यकीनन यह स्वागत-योग्य निर्णय है, क्योंकि मानवीय है। यह बदलाव अपेक्षित और कालातीत भी था और कई मंचों पर विमर्श के जरिए मांग की जा रही थी कि जमानत की प्राथमिकता होनी चाहिए। एक अहम कारण यह भी रहा है कि देश में जितनी जेलें हैं और उनमें कैदियों की क्षमता है, उनसे अधिक कैदियों को जेल में बंद किया जा रहा है।
हिरासत वाले आरोपितों को भी जेल में कैद किया जा रहा है, लिहाजा लगातार अनियमितताएं और विसंगतियां उभर कर सामने आ रही हैं। करीब दो साल पहले ‘विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत सरकार’ के केस में सर्वोच्च अदालत ने धनशोधन निवारण कानून के अत्यंत कड़े प्रावधानों को ‘सही’ करार दिया था। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सरकार ने ईडी के अतिरिक्त दुरुपयोग को बढ़ा दिया है, ऐसी शिकायतों और दलीलों के मद्देनजर अदालत ने वह फैसला सुनाया था। दुरुपयोग के डर और शिकायतों को खारिज कर दिया गया था, लिहाजा वह न्यायिक फैसला आज भी ‘देश का कानून’ है। जिस सिद्धांत की आज चर्चा की जा रही है, उसके बिल्कुल विरोधाभास में यह कानूनी फैसला है। फिर भी शीर्ष अदालत के स्तर पर ही व्याख्याएं और कोशिशें की जा रही हैं कि जेल पर जमानत को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। जुलाई में शराब घोटाले के संदर्भ में ही केजरीवाल को जमानत देते हुए सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों ने ईडी की व्यापक शक्तियों पर सवाल उठाए थे, जिनके तहत एजेंसी गिरफ्तारियां करती रही है। जमानत के बावजूद केजरीवाल सीबीआई केस में जेल में बंद हैं। हालांकि वह केस भी बड़ी न्यायिक पीठ को सौंप दिया गया है, लेकिन अदालत की पीठ ने टिप्पणियां की थी कि ईडी अपने आप में ही विश्वास कर लेती है और उसी आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर लेती है।
व्यक्ति को आरोपी मान लेती है। किसी को भी गिरफ्तार करने से पूर्व लिखित में देना चाहिए कि एजेंसी फलां आधार पर आपको गिरफ्तार करना चाहती है। उस लिखित रिकॉर्ड के आधार पर आरोपित अदालत में उस कथित अवैध गिरफ्तारी को चुनौती दे सकता है। कानून में ये बचाव जरूरी हैं, क्योंकि धनशोधन मामले में जमानत लेना लगभग असंभव बना दिया गया है। जमानत के हालिया मामलों में न्यायाधीशों ने कानून की संकीर्णता से उठकर फैसले सुनाए हैं। ये भी बहुत चुनौतीपूर्ण काम हैं। कुछ संदर्भों में सर्वोच्च अदालत ने यह नियम स्थापित कर दिया है कि यदि आरोपित ने अपराध की अधिकतम अवधि का आधा समय भी जेल में काट लिया है, तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाए। बहरहाल जेल बनाम जमानत की यह प्रक्रिया शुरू हुई है, तो उस पर संसद में विचार होना चाहिए, ताकि अंतिम कानून बनाया जा सके। कानून बनाते समय सभी संबद्ध पक्षों के साथ विचार-विनिमय होना चाहिए, ताकि कानून बनने के बाद किसी को कोई आपत्ति न रहे।
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Gulabi Jagat
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