9/11 के दो दशक

अमेरिका में 11 सितंबर 2001 को हुआ भीषण आतंकवादी हमला जिसे 9/11 के नाम से याद किया जाता है, न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के लिहाज से आतंकवाद के खिलाफ एक व्यापक अभियान का प्रस्थान बिंदु बना

Update: 2021-09-11 03:06 GMT

अमेरिका में 11 सितंबर 2001 को हुआ भीषण आतंकवादी हमला जिसे 9/11 के नाम से याद किया जाता है, न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के लिहाज से आतंकवाद के खिलाफ एक व्यापक अभियान का प्रस्थान बिंदु बना। इसी वजह से अमेरिकी फौज अफगानिस्तान में आई, जिससे वहां 2001 में तालिबानी सत्ता खत्म हुई। अब बीस साल के बाद जब अमेरिकी सेना वापस लौटी तो भारत के इस पड़ोसी देश में एक बार फिर सत्ता पर तालिबान काबिज हो गए हैं।

क्या इसका यह मतलब माना जाए कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हम एक बार फिर उसी बिंदु पर पर पहुंच गए हैं, जहां से हमने चलना शुरू किया था? क्या इन दो दशकों के दौरान आतंकवाद के खिलाफ चलाई गई वैश्विक मुहिम निरर्थक साबित हो चुकी है? कतई नहीं। तब से अब के हालात पर एक नजर डालने से भी यह साफ हो जाता है कि मामला वैसा बिल्कुल नहीं है जैसा पहली नजर में लगता है। सबसे पहले तो यह बात समझने की है कि 9/11 अमेरिका के लिए भले ही पहली बड़ी आतंकी वारदात हो, भारत उससे काफी पहले से आतंकवाद का शिकार रहा है, उससे जूझता रहा है।
अगर साल 2001 की ही बात की जाए तो भी उस पूरे साल के दौरान भारत में आतंकी घटनाओं के चलते 5504 लोग मारे गए थे, जिनमें से 4,011 जानें तो सिर्फ जम्मू कश्मीर में गईं। इस पूरी अवधि में आतंकवाद को काबू करने के लिए उठाए गए तमाम कदमों का ही नतीजा कहिए कि 2020 आते-आते तक पूरे देश में आतंकी घटनाओं में मरने वालों की संख्या 591 तक रह गई। 2021 में 5 सितंबर तक यह संख्या 366 दर्ज की गई है। दुनिया में आतंकवाद का प्रमुख चेहरा रहे ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका ही नहीं, भारत में भी जिहाद छेड़ने का ऐलान किया था। यह ऐलान उसने 9/11 से काफी पहले 1996 में ही कर दिया था। आतंकी संगठन अल-कायदा की ओर से भारतीय उपमहाद्वीप और खासकर भारत में कुछ बड़ा करने की कोशिशें ओसामा बिन लादेन के 2011 में मारे जाने के बाद भी जारी रहीं।
मगर तथ्य यही है कि भारत में आतंकवाद का मुख्य खतरा पाकिस्तान में जन्मे और पाले-पोसे गए संगठनों से ही रहा है, उन्हीं से है। इस दौरान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए प्रयासों की बदौलत इन संगठनों की शक्ति और प्रभाव में भी काफी कमी आई है। हालांकि इन सबका मतलब यह नहीं है कि आतंकवाद अब कोई बड़ी चुनौती नहीं रहा या अब देश में किसी बड़ी आतंकी वारदात का खतरा नहीं है। मतलब सिर्फ यह है कि तालिबान के दोबारा काबिज होने के खतरों को कम करके आंकना अगर गलत है तो उन खतरों का हौआ बनाने की भी कोई जरूरत नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सभ्य समाज का हाथ आज भी काफी ऊपर है।

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