टोक्यो ओलंपिक और महिला हॉकी टीम: कामयाबी के पीछे एक वेदना सिसकती है, क्या आप उसे महसूस करते हैं?
टोक्यो ओलंपिक और महिला हॉकी टीम
अमिताभ श्रीवास्तव।
संगीत के स्वर का विस्तार होता है तान। और ये तब ही लगता है जब उस स्वर का ज्ञान हो, उसका कड़ा अभ्यास हो। जिन्हें तान का कोई अभ्यास नहीं वे ताने मारने लगते हैं।
किसी को चिढ़ाना, दुःखी करना या नीचे गिराना। कितनी अफसोसजनक बात है कि भारतीय परिवेश में लड़कियों को यदि घर से बाहर निकलना होता है तो उसे ताने सुनने को मिलते हैं। छेड़खानी, छींटाकशी तो जैसे सामान्य सी बात हो। ये लड़कियां खेल में जब कोई तमगा जीतती हैं तो उन छिछोरों के गाल पर करारा तमाचा होता है जो उन्हें छेड़ते रहते थे।
महिला हॉकी, सविता को सलाम है
दरअसल, ये बात उस वक्त से जेहन में कौंध रही थी जब महिला हॉकी टीम की गोलकीपर सविता पुनिया के पिता ने कहा कि उन्हें फख्र है अपनी बेटी पर। आज ये उन लड़कों के गाल पर तमाचा है जो उसे प्रैक्टिस के लिए जाते समय बस में छेड़ते थे। ये केवल सविता की ही बात नहीं है बल्कि हमारे देश की लगभग हर लड़की के साथ ये होता है।
लड़कियां यदि कोई कामयाबी हासिल करती है तो उसके पीछे केवल उनका हुनर ही नहीं बल्कि ढेर सारी मानसिक वेदना भी होती है जिनसे पार होकर वे देश के लिए कोई सम्मान अर्जित करती हैं। क्या कोई उनकी इस वेदना को जरा भी समझता है? क्या कोई लड़की के माता-पिता की स्थिति को जरा भी समझ सकता है कि वे किन परिस्थितियों में अपनी बेटी को इन बदमाशो के मध्य उसके लक्ष्य के लिए रास्ता बनाते हैं?
टोक्यो ओलम्पिक खत्म हुआ। भारत वहां से 7 मैडल लेकर लौटा। यही नहीं बल्कि कई स्पर्धाओं में उसके खिलाड़ी पदक से बस थोड़ी सी दूर रह गए। यदि हम अपने खिलाड़ियों के लिए गम्भीरता से सोच कर देखें तो कुश्ती, तीरंदाजी, शूटिंग में तो पदक डिजर्व करते ही थे, साथ ही महिला हॉकी, गोल्फ जैसी स्पर्धाओं में भी हम चौथे नम्बर पर रह गए।
यदि सबकुछ बेहतर होता तो कम से कम हमारी झोली में 20 पदकों से अधिक होते और गोल्ड की संख्या तीरंदाजी, शूटिंग में लगभग तय थी। खैर तमगे न मिले हों किन्तु जो प्रदर्शन इस बार हुआ है वो आने वाले कल के लिए सुनहरा भविष्य दिखाते हैं।
अब सोचिए ये भविष्य तो हम देख रहे हैं किंतु उस वर्तमान से कैसे निजात पाएं जो भारत की हुनरमंद लड़कियों को घर से बाहर झेलना पड़ता है। पुरुष प्रधानता एक बात है किंतु लड़कियों के साथ रोज होने वाली ऐसी घटनाएं जो उन्हें हतोत्साहित कर देती हैं, उनके मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, उनके आत्मविश्वास को डिगा देती हैं ऐसी करतूतों में लिप्त पुरुष कितना नपुंसक होता है, ये समझा जा सकता है। ये पुरुष प्रधानता का सबसे घिनौना रूप है।
लड़कियों की उस वेदना को कितना जानते हैंं आप?
कितनी प्रतिभावान लड़कियां होंगी जो ऐसे माहौल में दबकर घर ठहर गई होंगी? कितनी लड़कियां इस देश के लिए कुछ कर दिखा सकती हैं जो इन आवारा लड़कों के कारण अपने कदम समेटने पर मजबूर हो जाती हैं।
आज यदि कोई मैरीकॉम या लवलीना या महिला हॉकी टीम की लड़कियां ओलम्पिक में करिश्मा कर लौटी हैं तो क्या उनके अतीत में वे ऐसी घटनाओं से बच पाई होंगी? सविता जो दुनिया की सबसे शानदार गोलकीपर के रूप में उभर कर सामने आई हैं उनके पिता ने तो स्पष्ट कह दिया किन्तु कितने ही पिता कुछ कह ही नहीं पाते, कितनी लड़कियां कुछ कह ही नहीं पाती।
ये गंभीर समस्या है इस देश की। ताने सुन कर भी तमगे लाकर जो देश का मान सम्मान बढ़ाती हैं सोचिए यदि खुला स्वच्छ और उन्मुक्त आसमान उन्हें मिले तो उनकी उड़ान तिरंगे से पूरे विश्व को ढंक देने की क्षमता रखती है।
स्मरण रखिए संगीत हो या खेल हो उसकी तान साधने के लिए कड़ी मेहनत होती है। ताने मारना तो आसान है। पर ये नया भारत है और ऐसे लोग तमगों से तमाचे खाने के लिए भी तैयार रहें।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।