वार्षिक माघ मेले का आकर्षण कल्पवासी होते हैं,जानें कल्पवास के बारें में विस्तार से
कल्पवास की शुरूआत पौष पूर्णिमा के स्नान से आरंभ हो जाती है.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती पर हर साल लगने वाला सबसे बड़ा धार्मिक माघ मेला चल रहा है. संगम की रेती पर लगने वाले कुम्भ की पहचान अखाड़े होते हैं, जबकि वार्षिक माघ मेले का आकर्षण कल्पवासी होते हैं. श्रद्धालु नियम और संयम के साथ कठोर तप कर एक महीने यहां ठहरकर अपना कल्पवास सम्पन्न करते हैं. इस कल्पवास की शुरूआत पौष पूर्णिमा के स्नान से आरंभ हो जाती है.
हालांकि कोरोना संक्रमण के चलते इस साल आयोजित माघ मेले में आने वाले कल्पवासियों को मेला प्रशासन ने 72 घंटे की RTPCR रिपोर्ट लेकर आने के निर्देश दिए हैं. इस रिपोर्ट को साथ लेकर आने वाले श्रद्धालुओं को ही मेले में कल्पवास की अनुमति मिलेगी.
कितना कठिन होता है कल्पवास?
कल्पवास करने आए श्रद्धालु पौष पूर्णिमा के दिन तुलसी-शालिग्राम की स्थापना करते हैं और दिन में तीन बार स्नान और एक बार भोजन करते हैं. श्रद्धालु भजन-कीर्तन कर अपना समय व्यतीत करते हैं. दान पुण्य करते हैं और जमीन पर सोते हैं. ऐसा बारह वर्षों तक किया जाता है. कुछ श्रद्धालु इससे ज्यादा भी कल्पवास करते हैं और ईश्वर का आशीर्वाद लेकर अपना परिवारिक जीवन सार्थक करते हैं.
कौन करता है कल्पवास?
वैसे तो एक माह तक संगम की रेती पर कल्पवास करने वाले साधक अपने जीवन के सभी कार्यों से विरत होते हैं. इसके बाद श्रद्धालु यहां आकर कल्पवास करते हैं. यानी बच्चों की शादी और तमाम कार्य जब व्यक्ति पूरे कर लेता है और जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है तो 12 वर्षों तक लगातार कल्पवास करता है और एक माह कल्पवास करने वाले साधक को ब्रम्हा के एक दिन का पुण्य मिलता है. कल्पवासी को इस साधना के बाद मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है. उसे जन्म-जन्मांतर के बंधनों से भी मुक्ति मिल जाती है.
कल्पवास करने से क्या मिलता है फल?
ऐसी मान्यताएं हैं कि 100 साल तक बिना अन्न के तपस्या करने वाले को जो फल मिलता है वो एक माह संगम की रेती पर कल्पवास करने से मिल जाता है. इससे कल्पवासी की हर मनोकामना पूरी होती है. अपने घर के बाहर कल्पवास करने वाले तुलसी का पौधा लगाते हैं भोर में जागकर साधक स्नान कर पूजा पाठ में लग जाते हैं.
सिर्फ प्रयाग में ही होता है कल्पवास
ऐसा बताया जाता है कि प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम रहा करता था और ब्रम्हा जी ने यहां यज्ञ और पूजन किया था. तभी से ऋषियों और मुनियों की इस तपोभूमि पर साधू-संत और गृहस्त जीवन बिताने वाले श्रद्धालु कल्पवास करते हैं और ये सिर्फ प्रयाग में ही होता है. साधू-संत और कल्पवास करने वाले श्रद्धालु अपने हांथो से कुटिया बनाकर यहां रहते हैं. हालांकि आज के दौर में कुटिया का रूप आधुनिक टेंटों ने ले लिया है.Live TV