बिहार के मुज़फ़्फ़पुर में चमकी बुख़ार यानी एक्यूट एन्सेफ़लाइटिस सिंड्रोम की वजह से अब तक 175 बच्चों की जानें गई हैं. मौत का यह सिलसिला पिछले क़रीब एक महीने से बदस्तूर जारी है. जानकारों की मानें तो यह कोई नई बीमारी नहीं है, बल्कि वर्ष 1995 से ही भारत के भविष्य यानी बच्चे इसकी वजह से मौत की गर्त में जा रहे हैं. सबसे बुरी बात यह है कि पिछले 15 सालों में भारत सरकार और इनकी स्वास्थ्य व्यवस्था इस बीमारी के होने की वजह का पता नहीं लगा पाई है. जेकब जॉन और अरुण शाह के रिसर्च पेपर से पता चलता है कि मुज़फ़्फ़पुर में होने वाली मौत का संबंध लीची, ग़रीबी और कुपोषण से है.
ख़ाली पेट लीची हो सकती है वजह
रिसर्च के दौरान जेकब जॉन और अरुण शाह ने 2012 में रिकॉर्ड खंगाले तो पता चला कि ज़्यादातर चमकी बुख़ार से पीड़ित बच्चों को सुबह के 6 से 7 बजे के बीच मिर्गी जैसे दौरे पड़ते हैं और वो इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. बाज़ार तक लीची पहुंचाने के लिए तोड़ने का काम सुबह लगभग 4 से 5 बजे के बीच शुरू हो जाता है और इसे तोड़ने वाले ग़रीब मज़दूर और उनके बच्चे होते हैं, जिन्हें रात को भरपेट खाना नहीं मिला होता है. मज़दूर मां-बाप के साथ जब बच्चे लीची के खेत में पहुंचते हैं तो पेट भरने के लिए लीची तोड़ते वक़्त उसे खा लेते हैं. जब कुपोषित और ख़ाली पेट बच्चे लीची खाते हैं, तो वह एक्यूट एन्सेफ़लाइटिस सिंड्रोम की चपेट में आ जाते हैं.
चमकी बुख़ार के लक्षण
चमकी बुख़ार की चपेट में आते ही मिर्गी जैसे झटके आते हैं और इसलिए इस बीमारी का नाम चमकी रखा गया है. इसके अलावा बेहोशी, सिरदर्द, तेज़ बुख़ार, शरीर में दर्द होना, जी मिचलाना और उल्टी होना, बहुत ज़्यादा थकान, पीठ में तेज़ दर्द, बहुत कमज़ोरी महसूस होना, चलने में परेशानी होना और लकवा की परेशानी होना चमकी बुख़ार के लक्षण हैं.
चमकी बुख़ार की वजह
बच्चों को ख़ाली पेट लीची ना खाने दें, ख़ासतौर से कुपोषित बच्चों को तो बिल्कुल भी नहीं. लीची में हाइपोग्लाइसिन ए और मिथिलीनसाइक्लोप्रोपाइलग्लाइसिन होते हैं, जो कुपोषित बच्चों के ख़ून में ग्लूकोज़ के स्तर को बहुत घटा देते हैं. लीची के ये तत्व शरीर में बीटा ऑक्सिडेशन को रोक देते हैं, जिससे हाइपोग्लाइसीमिया (रक्त में ग्लूकोज़ का कम हो जाना) हो जाता है और रक्त में फ़ैटी एसिड्स की मात्रा भी बढ़ जाती है. चूंकि बच्चों के लिवर में ग्लूकोज़ स्टोरेज कम होता है, जिसकी वजह से ग्लूकोज़ की पर्याप्त मात्रा मस्तिष्क तक नहीं पहुंच पाती और मस्तिष्क गंभीर रूप से प्रभावित हो जाता है. इसका असर बच्चे के दिमाग़ पर होने लगता है और बच्चे मस्तिष्क बुख़ार के शिकार हो जाते हैं जो उनकी मौत का कारण बनता है.
कई विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि बच्चे लीचियों को बिना धोए दांतों से ही छीलकर खाते हैं जिसकी वजह से उनके शरीर में घातक इंसेक्टिसाइड (एंडोसल्फ़ॉन आदि) रसायन प्रवेश कर जाते हैं और यह उनके कुपोषित शरीर के लिए बहुत घातक बन जाते हैं. इसलिए लीची को धोकर और उसका छिलका हाथों से हटाकर खाना चाहिए. इस तरह की बीमारी का पता सबसे पहले वेस्टइंडीज़ में लीची की तरह ही 'एकी' फल के सेवन करने से पता चली थी.
उपचार
* प्राथमिक उपचार में अगर बच्चे को तुरंत ही ग्लूकोज़ दे दिया जाए तो उसे बचाया जा सकता है. ग्लूकोज़ उपलब्ध ना होने पर कोई मीठी चीज़ भी दी जा सकती है.
* नाक और कान में नारियल के तेल में थोड़ा-सा कपूर मिलाकर दो-दो बूंदें डालें.
* ब्रह्मी वटी, अग्नितुण्डि वटी और अमरसुन्दरी वटी की 1-1 गोली सुबह, दोपहर और शाम लें.
* सारस्वतारिष्ट और सुदर्शनारिष्ट 2-2 चम्मच सुबह शाम भोजन के बाद पानी में मिलाकर लें.
* सिर पर चंदनबाला लाक्षादि तेल की मालिश करें.