डर, गुस्सा व चिल्लाने से तनाव ग्रस्त व मानसिक बीमारी का शिकार हो जाता है बच्चा
आज की व्यस्त दिनचर्या में माता-पिता अपने बच्चों को उतना समय नहीं दे पाते हैं जितना उन्हें देना चाहिए। भौतिक सुख सुविधाओं के पीछे भागते हुए उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं होता कि उनका बच्चा उनके साथ होते हुए भी स्वयं को अकेला महसूस कर रहा है। इस अकेलेपन में बच्चा अपनी समझ से अपने रिश्तों को बनाने में लग जाता है। सुबह स्कूल से लौटने के बाद जब वो घर में स्वयं को अकेला पाता है तब वह अपने आस-पड़ोस के बच्चों के साथ अपना समय व्यतीत करता है। इस दौरान उसे अच्छी और बुरी दोनों परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जिसका असर उसके माता-पिता को कुछ समय बाद महसूस होने लगता है। नतीजा यह होता है कि वे यह कहने लग जाते हैं कि हमारा बच्चा बिगड़ गया, उसे मोबाइल की लत लग गई है, बच्चा डरने लगा है।
इस मामले में स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि, बच्चों के स्वभाव में हो रहे बदलाव का बहुत बड़ा जुड़ाव हमारे समाज के साथ है, जिस तरह से माता-पिता अपने बच्चे का पालन-पोषण करते हैं वह भी कई हद तक इन चीजों के लिए जिम्मेदार हो सकता है। हमें इस पर निगरानी रखनी है कि बच्चा किस तरह के समाज में रह रहा है, उसे उसके रोल मॉडल किस तरह के मिल रहे हैं? अगर बच्चा कोई गलती कर रहा है तो उसे कैसे समझाया जा रहा है? उसे गाली देकर या कुछ भद्दा देकर तो नहीं समझाया जा रहा है। बच्चे को जहां भी हिंसा का माहौल मिलता है वहां बच्चा यह सीखता है कि यह चीज तो बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। घर पर पति आकर अपनी पत्नी से बुरा व्यवहार कर रहा है या अपने माँ-बाप पर चिल्ला रहा है और सब उससे डर रहे हैं। इससे बच्चा यही सीखता है कि यह तो बहुत जरूरी है। आप जब अपने बच्चे को प्यार से समझा रहे हैं या गुस्सा भी प्यार से कर रहे हैं तो बच्चा यह सीखता है कि उसे कहां गुस्सा होना है और चुपचाप रहने का बर्ताव करना है।"
आज कल सोशल मीडिया का दौर चल रहा है कई तरह के ऐसे गेम आते हैं जो आपके बच्चे को हिंसा सिखाते हैं। गेम में बच्चे को मारने के पॉइंट मिलते हैं, जिससे वह सीखते है कि मारना सही है। यह भी समाज का एक हिस्सा है।
अक्सर यह देखा जाता है या यूं कहें कि हम स्वयं गाहे-बगाहे अपने बच्चे पर गुस्सा हो जाते हैं या फिर उस पर चिल्लाने लगते हैं। हमारे इस व्यवहार का हमारे बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह स्थिति उस समय और खतरनाक हो जाती है जब हम अपने बच्चों को अपने घर पर आए मेहमानों या रिश्तेदारों के सामने डांटते हैं या उन क्रोध में आकर हाथ उठाते हैं। दिन भर अपने माता-पिता के अभाव में रह रहे बच्चे का मस्तिष्क इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता है और वह विरोध पर उतरने लगता है। अभिभावकों को लगता है कि चिल्लाने या डांटने से बच्चा समझ जाएगा और गलतियां करना बंद कर देगा, जबकि ऐसा करने से बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
देखकर सीखने की आदत
मनुष्य का दिमाग देख कर सीखने का आदी होता है। इसलिए जो वह देखता है जल्दी सीख जाता है। जैसे दूसरे के कपड़े देखे हमें अच्छे लगे हमने मंगवा लिए। अब यही चीज आप हिंसा में या अपने बच्चे के पालन-पोषण में देखें तो बच्चा वही कर रहा है जो वह घर में सीख रहा है। आप अगर घर में शराब पी रहे हैं, आप यह दिखा रहे हैं कि मां की परिवार में जरूरत नहीं है तो बच्चा यह सब सीख जाता है। उस मां के साथ बच्चे को सबसे ज्यादा जिंदगी बितानी है। आप उसका अधिकार, उसकी विश्वसनीयता, उसकी अहमियत को खत्म कर रहे हैं। आप वहां पर माँ को नहीं बल्कि अपने बच्चे को ख़त्म कर रहे हैं। कई बार माता-पिता अपने बच्चे को खुद से बेहतर बनाने के लिए ऐसे कदम उठा लेते हैं जो कि बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं है। कई बार मैंने देखा है कि बच्चे को माँ-बाप बहुत बुरी-बुरी गाली देते हैं (मैं स्वयं भी कई ऐसा कर देता हूँ), इसे वो बच्चे को प्रोत्साहित करने का तरीका समझते हैं। यह तरीका गलत है। इसके साथ ही हमें कभी भी अपने बच्चे की तुलना किसी दूसरे बच्चे के साथ नहीं करनी चाहिए। अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा आगे बढ़कर कुछ करे तो आपको उसका साथ देना चाहिए। आप चाहते हैं कि अगर आपका बच्चा साइकिल चलाना सीखे तो आपको पहले साइकिल पर बैठना होगा भले आप गिर पड़ें।"