योगी 2.0: अब अखिलेश और मायावती को शपथ लेनी चाहिए, विपक्ष की असल भूमिका निभाने की

अखिलेश यादव को मन खट्टा नहीं करना चाहिए

Update: 2022-03-27 06:41 GMT
बिपुल पांडे।
अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav)को मन खट्टा नहीं करना चाहिए. उन्हें और उनके गठबंधन को उत्तर प्रदेश की जनता ने 403 में से 125 सीटें दी हैं. अकेले उनकी पार्टी के माथे पर ट्रिपल वन (111) का टीका लगाया है. अगर वो अपनी और अपनी पार्टी (Samajwadi party) की राजनीति की मार्कशीट निकालें तो पता चलेगा कि उन्हें क्षमता से कहीं ज्यादा ही अंक मिले हैं. ऐसा कहने के पीछे वजह क्या है, ये बताने से पहले योगी 2.0 के शपथ ग्रहण समारोह की बात कर लेते हैं. जिस समारोह से पूरे विपक्ष ने दूरी बनाई. और जिसे पूरे देश ने नोट किया है. कहा जा रहा है कि प्रभु श्रीराम के आसन, योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath ) के शासन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण. इन तीन तत्वों, यानी आसन, शासन और भाषण ने मिलकर उत्तर प्रदेश में कमाल कर दिया. यूपी की जनता ने बीजेपी को स्पष्ट जनादेश दिया और सरकार बना दी.
योगी 2.0 के शपथ ग्रहण समारोह को विपक्ष को क्यों देखना चाहिए था?
37 साल की सरकार बदलने की परंपरा टूटी. योगी आदित्यनाथ ने लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यानी देश के सबसे बड़े प्रदेश में 1985 के बाद पहली बार सरकार रिपीट हुई है. यानी जनता के मन में उम्मीद की किरण जगाई है. यही वजह है कि हिंदी पट्टी के इस सबसे बड़े प्रदेश के तीन क्षत्रपों, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और मायावती को गवर्नमेंट रिपीट होने के रिकॉर्ड का गवाह होना चाहिए था. और खुद से विमर्श करना चाहिए था कि बीजेपी ने जिस पार्टी का 37 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ा है. वो उनमें से किसी की पार्टी क्यों नहीं हो सकी?
दरअसल सरकार रिपीट करने का ये रिकॉर्ड इन तीनों महान नेताओं की दो पार्टियों में से किसी के नाम नहीं था. बीजेपी ने यूपी में जिस पार्टी का रिकॉर्ड तोड़ा है, वो कांग्रेस पार्टी है. कांग्रेस ने 1980 में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी. तब यूपी में 425 विधानसभा सीटें हुआ करती थीं, जिसमें से कांग्रेस ने 309 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई थी. इसके बाद 1985 में भी कांग्रेस ने विजयगाथा आगे बढ़ाई. 269 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. इसके बाद से कोई भी सरकार रिपीट नहीं हुई. मौजूदा दौर में कांग्रेस को भी पूछने वाला कोई नहीं है. 2017 में पार्टी 7 सीटों पर सिमटी, 2022 में सिर्फ 2 पर. अब आगे जाने क्या हो. लेकिन योगी सरकार ने उसी कांग्रेस पार्टी का रिकॉर्ड तोड़ा है. और इस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह देखना समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के लिए आत्ममंथन का अच्छा अवसर था, जिसे अखिलेश यादव तक ने गंवा दिया.
आखिर योगी सरकार के शपथग्रहण के वक्त अखिलेश यादव कहां थे?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अखिलेश यादव का मन इतना खट्टा हो चुका है कि उन्होंने योगी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में बुलावे का इंतजार भी नहीं किया. वो कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही इटावा निकल गए. 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया था. उस समारोह में समाजवादी पिता-पुत्र दोनों ही पहुंचे थे. मुख्यमंत्री और नए मंत्रियों को बधाई दी थी. लेकिन इसी दौरान पीएम मोदी से कानाफुसी करते मुलायम सिंह की तस्वीर जोरदार ढंग से वायरल हो गई थी. खुद अखिलेश यादव का केशव प्रसाद मौर्य, दिनेश शर्मा समेत कई मंत्रियों के साथ बात करने का वीडियो वायरल हुआ था. माना जा रहा है कि ऐसी ही चर्चाओं पर विराम देने के लिए अखिलेश यादव पहले से ऐलान करके शपथग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए. या फिर खुद की हार का टीस भी एक वजह होगी. क्योंकि उन्होंने अपने राजनैतिक करियर में सरकार बनाने का पारी-पारी का खेल देखा है. मुलायम से मायावती, मायावती से मुलायम या फिर मायावती से अखिलेश. पारी के हिसाब से योगी के बाद एक बार फिर अखिलेश को आना चाहिए था. जिसे अखिलेश अकाट्य सत्य मानकर बैठे थे, लेकिन वैसा नहीं हुआ और क्यों नहीं हुआ, इस पर वो विचार करने को तैयार नहीं हैं.
आगरा एक्सप्रेस वे पर फर्राटा भरते वक्त सपा मुखिया ने क्या सोचा होगा?
कई बार जवाब आपके सामने होता है, लेकिन वो नजर नहीं आता या आप देखना नहीं चाहते. अखिलेश यादव ने चाहा होता तो उन्होंने समारोह से ठीक पहले लखनऊ से इटावा वापसी का जो सफर किया था. उसी में उन्हें जवाब मिल जाता कि जिस जगह योगी हैं, वहां अखिलेश क्यों नहीं? इसे समझते हैं-
वैसे तो एक लेख में कपोल कल्पना की जगह नहीं होती, लेकिन बहुत माफी के साथ एक बार कल्पना करके देखते हैं. बहुत संभव है कि योगी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में जाने से बचने के लिए अखिलेश यादव ने सड़क मार्ग ही पकड़ा होगा. अगर उन्होंने सड़क मार्ग पकड़ा होगा तो वो लखनऊ से निकलकर इटावा के लिए उसी एक्सप्रेस वे को पकड़ा होगा, जो उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है. जिसे उन्होंने विधानसभा चुनाव में बढ़ चढ़कर प्रमोट किया था. सभी जानते हैं कि एक्सप्रेस वे पर चढ़ते ही गाड़ी फर्राटा भरने लगती है. रफ्तार इतनी कि 223 किलोमीटर का सफर करीब ढाई घंटे में ही पूरा हो गया होगा. अब कल्पना यहीं से शुरू होती है. कल्पना कीजिए कि क्या अखिलेश यादव ने ढाई घंटे बाद इटावा पहुंचकर अपना अवध का अतीत देखा होगा. क्या ये सोचा भी होगा कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते जो उपलब्धि प्राप्त की है, वो ढाई घंटे के सफर से रत्ती भर भी ज्यादा नहीं है. माना कि यूपी के विकास में सैफई और इटावा से गुजरने वाले आगरा एक्सप्रेसवे का योगदान बहुत बड़ा है, लेकिन क्या कभी अखिलेश यादव ने ये सोचा होगा कि ये बड़ा अवश्य है, परंतु पर्याप्त नहीं है? और क्या ये सोचा होगा कि उत्तर प्रदेश को इससे ज्यादा की जरूरत थी? दरअसल ये कल्पना भले ही हो, लेकिन अखिलेश यादव के रणनीतिकारों को बताना चाहिए कि उन्हें इसी विषय पर फोकस करना चाहिए. घनघोर मंथन करना चाहिए. पूरे चुनाव के दौरान वो अपनी सरकार की पांच उपलब्धियां तो नहीं गिना सके, लेकिन पांच बड़ी गलतियां जरूर निकालनी चाहिए. जो उन्हें सत्ता में होने का सुख तो नहीं दे सकता, लेकिन विपक्ष की असल भूमिका में आने का साहस जरूर दे सकता है.
वो कमियां, जिन्होंने यूपी की उम्मीदों की हवा निकाल दी थी.
सरकारें जब पारी-पारी से चलने लगें तो समझ लेना चाहिए कि जनता परेशान हो रही है. हर पांच साल पर पिछली पार्टी को सरकार में लाने का मतलब है कि वोटर एक बार फिर उम्मीदें पाल रहा है, वो सोच रहा है कि शायद सरकार से हटकर पार्टी सुधर गई होगी, उसे सत्ता में लाओ. और दूसरा विकल्प की कमी. लेकिन 2012 के यूपी चुनाव में जब अखिलेश यादव ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था, मुलायम सिंह को किनारे करके आगे आने लगे थे, तो यूपी में एक बार फिर वही उम्मीद की वही किरण जगी थी. लेकिन इस बार भी अखिलेश यादव की सरकार बनते ही यूपी की उम्मीदों पर पानी फिर गया. मायावती ने यूपी में जिस क्राइम को कंट्रोल किया था, वो फिर जनता को डराने लगी. सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं भी हुईं. तब अखिलेश यादव को समझना चाहिए था कि जब किसी का बेटा-बेटी, मां-बाप मरता है, सरकारी उदासीनता से बिजली नहीं आती है, रोजी-रोटी नहीं मिलती, पेट नहीं भरता, तो उसे फ्री का समाजवादी लैपटॉप, फ्री की समाजवादी साइकिल या फ्री का 1000 रुपये का बेरोजगारी भत्ता अच्छा नहीं लगता. यूपी को ये अच्छा नहीं लगा, इसलिए अखिलेश 2017 में भी गए और 2022 में भी 111 पर सिमट गए.
मुलायम-मायावती की राजनीति गजब की रही है.
हिंदुस्तान की एक अजीब मानसिकता है. यहां पर लोग अपना कर्तव्य पूरा करने, अपना टारगेट बीट करने के लिए भी इन्सेंटिव मांगने लगते हैं. कभी एयर इंडिया के पतन की केस स्टडी पढ़िएगा. इसी मानसिकता ने एयर इंडिया को डुबो दिया और इसी मानसिकता की राजनीति ने यूपी को. 2007 में जब मुलायम सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे, तब सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज में एक नारा गूंजा था. "यूपी में बहुत दम है, क्योंकि जुर्म यहां कम है." मुलायम सिंह ही बताएं, क्या ये किसी सरकार की उपलब्धि हो सकती है? क्या ये उनका कर्तव्य नहीं था? क्या जुर्म का कम होना, किसी भी सरकार को दोबारा सरकार में बैठाने के लिए वोट मांगने का अधिकार दे सकता है?
ये टैगलाइन बताती है कि जब जुर्म खत्म करना सरकारी टारगेट होना चाहिए, तब मुलायम सरकार ने अपने लिए जुर्म कम करने का टारगेट रखा था और इसी आधार पर वोट मांगने निकले थे. दरअसल निठारी हत्याकांड और इलाहाबाद मदरसा कांड के बाद मुलायम सिंह यादव अंदर से हिले हुए थे. जबकि रुटीन क्राइम से जनता हिली हुई थी. मुलायम सिंह राजनीतिक अपराधियों के एक ऐसे गैंग में फंसे हुए थे कि वो सौ साल तक सीएम रहते भी जुर्म कम नहीं कर सकते थे. वोटरों के सामने अगली सरकार का सवाल था, मायावती हाजिर थीं.
मायावती को उत्तर प्रदेश की जनता ने एक कठोर शासक के तौर पर देखा है तो उनको भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान गढ़ते भी देखा है. जिनकी सरकार में क्राइम पर सख्ती तो दिखी, लेकिन उनके एजेंडे से विकास एक सिरे से गायब था. दलितों शोषितों की मसीहा के तौर पर उन्होंने यूपी की शीर्ष कुर्सी पर बैठकर दलितों शोषितों में अपनी छत्रछाया का एहसास तो कराया, लेकिन मुख्यमंत्री आवास को महल बनाकर बैठे रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकीं. यूपी में विपक्ष में बैठे नेताओं को इन कटु प्रश्नों से एक बार फिर दो-चार होना चाहिए और कुर्सी मिलने का इंतजार करने की जगह विपक्ष की धारदार राजनीति करनी चाहिए.
विपक्ष को योगी 2.0 का खुले दिल से स्वागत क्यों करना चाहिए?
चूकि ये गौर करने वाली बात है कि इस नई सरकार का विपक्ष, खुले दिल से स्वागत नहीं कर पाई. यूपी को MY का चतुर फॉर्मूला देने वाले मुलायम सिंह यादव शपथ ग्रहण समारोह में कहीं नजर नहीं आए (स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा), लेकिन चुनाव में लाल टोपी पहनकर ताल ठोकने वाले उनके लाल, अखिलेश यादव भी नजर नहीं आए. ना ही सोशल इंजीनियरिंग की मास्टर कही जाने वाली मायावती नजर आईं. कहने वाले कह सकते हैं कि योगी 2.0 का शपथ ग्रहण समारोह देखने के लिए ये तीनों क्यों आते? ना ताली बजा पाते, ना टीस छिपा पाते, ना तो नई सरकार के मंत्रियों से हाथ मिला पाते, ना बनावटी सौहार्द्र दिखा पाते. अगर ऐसा करते तो एक-एक फ्रेम फ्रीज करके मीम्स बनते, चुटकुले गढ़े जाते, जो हर इंसान के लिए तकलीफदेह होता है. लेकिन राजनीति में ये कोई नई बात नहीं है.
विपक्ष को बीजेपी से सीखना चाहिए कि उसने विकास को एजेंडा बनाया और अन्याय पर बुलडोजर चलाया. पहला प्वाइंट ये कि योगी ने पूरे प्रदेश को ये अहसास नहीं होने दिया कि इस बार मुख्यमंत्री पूर्वी उत्तर प्रदेश का बना है या पश्चिमी उत्तर प्रदेश का. उनके विकास का एजेंडा सैफई तक भी पहुंचा और बुलंदशहर तक भी पहुंचा. ये जानते हुए भी कि इससे पहले दशकों से विकास का एजेंडा गोरखपुर तक नहीं पहुंचा. दूसरा प्वाइंट ये कि 2017 में चुनाव जीतने के बाद हिंदू-मुसलमान का मुद्दा उनकी जुबान पर एक बार भी नहीं आया. 2022 में आचार संहिता लागू होने के साथ ही उन्होंने 80-20 का बम जरूर फोड़ा लेकिन 10 मार्च को नतीजे आने के बाद एक बार फिर हिंदू-मुसलमान उनकी जुबान से हट चुका है. यानी बीजेपी ने राजनीति और शासन को अलग रखा है. यूपी में हर पार्टी को इस टोपी-टीके की राजनीति से अलग हटने की जरूरत है. जो विपक्ष के बिना संभव नहीं है. विपक्षी पार्टियों को हार की कड़वाहट भूलनी चाहिए. मन खट्टा करने की जगह अपने अंदर के "राजा भाव" को ताक पर रखकर नई ऊर्जा से नई राजनीति शुरू करनी चाहिए. मा गंगा की उपजाऊ धरती को एक बार फिर उसका गौरव दिलाने के लिए एकजुट होना चाहिए. अखिलेश और मायावती यूपी के दो बड़े क्षत्रप हैं. इन्हें घर बैठने की जगह विपक्ष की असल भूमिका निभाने की शपथ लेनी चाहिए. शायद योगी 2.0 का शपथ ग्रहण समारोह देखने के बाद उन्हें इसकी प्रेरणा मिलती. इसलिए उन्हें इस लोकतांत्रिक उत्सव में उपस्थित रहना चाहिए था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
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