चिंता और चेतावनी

शंघाई सहयोग संगठन की सालाना बैठक में भारत ने आतंकवाद और अफगानिस्तान को मान्यता के मुद्दे पर अपना रुख साफ कर दिया।

Update: 2021-09-20 01:32 GMT

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की सालाना बैठक में भारत ने आतंकवाद और अफगानिस्तान को मान्यता के मुद्दे पर अपना रुख साफ कर दिया। भारत ने कहा कि तालिबान सरकार को मान्यता देना आतंकवाद को बढ़ावा देना होगा। और अगर दुनिया में ऐसी कट्टरपंथी सरकारें बनने का खतरा खड़ा हो गया तो आतंकवाद को बढ़ने से रोक पाना कहीं ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। इसलिए अभी वक्त है कि हम आतंकवाद से निपटने के लिए एकजुट होकर काम करें। बैठक में आतंकवाद का मुद्दा इसलिए भी छाया रहा क्योंकि रूस, चीन और पाकिस्तान जैसे देश भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। और अफगानिस्तान में फिर से तालिबान का राज कायम हो जाने के बाद यह संकट गहराने का खतरा बढ़ गया है। भारत पहले ही आशंका जता चुका है कि पाकिस्तान तालिबान लड़ाकों को कश्मीर में भेज कर अशांति पैदा कर सकता है। हालांकि दूसरे देश भी कट्टरपंथी विचारधारा वाली सरकार के खतरे से अनजान नहीं हैं। लेकिन आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरे मानदंडों की वजह से यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर होती जा रही है। बैठक में हालांकि भारत ने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, पर आतंकवाद के मुद्दे पर जिस तरह का कड़ा रुख दिखाया, पाकिस्तान को उसका मतलब समझना चाहिए।

एससीओ की बैठक ऐसे वक्त में हुई है जब अफगानिस्तान में तालिबान की अंतरिम सरकार ने सत्ता संभाली है। वहां के हालात लगातार तनाव पैदा कर रहे हैं। इसलिए बैठक में इन मुद्दों का छाया रहना सदस्य देशों की चिंताओं को रेखांकित करता है। एससीओ केज्यादातर सदस्य देशों की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती हैं। इसलिए वे इससे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं, चाहे तालिबान की अंतरिम सरकार को मान्यता देने का मामला हो या फिर आतंकवाद का मुद्दा। एससीओ के तीन देश रूस, चीन और पाकिस्तान तो तालिबान सरकार को घोषित तौर पर न सिर्फ मान्यता दे चुके हैं बल्कि हर तरह से उसके साथ भी खड़े हैं। लेकिन भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है, बल्कि एससीओ के माध्यम से दुनिया को चेताया है कि तालिबान को मान्यता देने से पहले अच्छी तरह से सोच लिया जाए। भारत का रुख एकदम स्पष्ट है कि अफगानिस्तान में जिस तरह से सत्ता बदलाव हुआ है, वह लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के विरुद्ध है। दो दशक पहले भी जब अफगानिस्तान में तलिबान की सत्ता थी तब भी भारत ने उसे मान्यता नहीं देकर अपना रुख साफ कर दिया था।
एससीओ या ऐसे क्षेत्रीय संगठनों के गठन का मकसद एक दूसरे के हितों का खयाल रखना, एक दूसरे की संप्रभुता की रक्षा करना, आतंकवाद जैसे मुद्दे पर एकजुटता दिखाना आदि ही प्रमुख होता है और यही होना भी चाहिए। लेकिन जमीनी हकीकत निराश करने वाली है। चीन और पाकिस्तान तो भारत को चैन से बैठने तक नहीं दे रहे। बैठक की समाप्ति पर जारी साझा घोषणापत्र में सदस्य देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ने पर सहमति जताते दिखे। पर यह कौन नहीं जानता कि इस समूह का ही सदस्य पाकिस्तान दशकों से भारत के खिलाफ सीमापार आतंकवाद की जंग छेड़े हुए है और चीन सीमा विवाद के नाम पर भारत को दबाने में लगा है। घोषणापत्र में अफगानिस्तान में समावेशी सरकार के गठन पर जोर दिया गया है। लेकिन इस सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है कि तालिबान को काबुल तक पहुंचाने में पाकिस्तान, चीन और रूस की बड़ी भूमिका रही। ऐसे में आतंकवाद पर कुछ देशों का दोहरा और घातक रुख क्या एससीओ जैसे संगठन की भूमिका को अप्रासंगिक नहीं बनाता है!

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