विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस: मानसिक स्वास्थ्य का मतलब मनोचिकित्सा ही नहीं, अब इससे ऊपर उठकर देखने की जरूरत

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक बयान में कहा-

Update: 2022-10-10 01:50 GMT

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को इस दशक के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। विशेषकर कोरोना महामारी के बाद यह और व्यापक होती नजर आ रही है। आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर साल 2020 के बाद से मनोरोगियों का आंकड़ा काफी तेजी से बढ़ा है। कुछ अध्ययन बताते हैं, कई विकसित और विकासशील देशों में हर चार में से एक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के मनोरोग का शिकार है। चिंता-तनाव और अवसाद के केस तेजी से बढ़ रहे हैं, इस खतरे को देखते हुए विशेषज्ञों को चिंता है कि आने वाले 5-8 वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा क्षेत्र पर बड़ा दबाव आ सकता है।

वैश्विक स्तर पर बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में लोगों को जागरूक करने और इस खतरे को कम करने के लिए हर साल 10 अक्तूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। हालांकि मानसिक स्वास्थ्य के बढ़ते जोखिमों को देखते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि इसे सिर्फ मनोचिकित्सा या इसके आसपास तक ही सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए, इस दिशा में अब जरूरत है कि जन-जन का प्रयास शामिल हो, जिससे हम स्वस्थ भारत की कल्पना को चरितार्थ कर सकें।
सबसे बड़ी बात, मन को स्वस्थ रखे बिना स्वस्थ भारत की कल्पना करना बेमानी होगी, और इससे बड़ी बेमानी होगी मानसिक स्वास्थ्य को एक दायरे में बांध कर रखना। अब समय आ गया है कि हम सभी इस विषय की गंभीरता को समझें, न सिर्फ समझें बल्कि इसके लिए प्रयास करें। देश के हर बच्चे से लेकर माता-पिता, शिक्षक, प्रशासन, नीति निर्माताओं और कानून व्यवस्था को मानसिक स्वास्थ्य की अहमियत के बारे में सोचने और इस दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता है।
मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर रखने के लिए सामाजिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों की भी विशेष भूमिका है। लंबे समय से चले आ रहे स्टिग्मा को तोड़कर लोग इलाज के लिए आगे आ रहे हैं, मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकताओं पर चर्चा हो रही है, सरकार की तरफ से भी प्रयास किए जा रहे हैं, यह निश्चित ही शुभ संकेत हैं पर यह तो पहला कदम है, इसे व्यापक बनाने की आवश्यकता है। यह तभी संभव हो पाएगा जब मनोचिकित्सा के साथ इसमें जन-जन का प्रयास शामिल होगा।
किसी भी देश के समग्र विकास के लिए लोगों के क्वालिटी ऑफ लाइफ यानी कि गुणवत्ता पूर्ण जीवन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसका सीधा संबंध उत्पादकता से है जो आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण आयाम है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि स्कूली स्तर से ही बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। इसे पाठ्यक्रम का विषय बनाया जाना चाहिए जिससे बच्चों में इसकी समझ को विकसित किया जा सके। स्कूली पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करके अगली पीढ़ी को इसके वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में जागरूक करने में मदद मिल सकती है, जिससे इस दिशा में चले आ रहे कलंक के भाव को कम किया जा सके। इससे लोगों के लिए इस बारे में बात करना, इलाज प्राप्त करना सहज हो सकेगा, जिससे उत्पादकता को बढ़ाने में भी मदद मिल सकेगी।
पर क्या वास्तव में मौजूदा समय में इस दिशा में हम अपेक्षित कार्य कर रहे हैं? शायद नहीं, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर फिलहाल भारत में किए जा रहे प्रयासों के स्तर में विशेष सुधार की आवश्यकता नजर आ रही है।
आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य के कुल मामलों में भारत से 15 फीसदी केस हैं। हालांकि देश में इस स्तर पर खर्च और प्रयास अभी प्रारंभिक स्तर के ही दिख रहे हैं। भारत सरकार ने साल 2022 के लिए 39.45 लाख करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया था, इसमें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को 83,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। साल 2021-22 में 71,269 करोड़ रुपये के बजट की तुलना में इस साल लगभग 16.5 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी।
मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में प्रयास करते हुए सरकार की तरफ से गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग और देखभाल सेवाओं तक बेहतर पहुंच प्रदान करने के लिए 'राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम' की घोषणा की गई। इसमें 23 टेली-मानसिक स्वास्थ्य उत्कृष्टता केन्द्रों का एक नेटवर्क शामिल होने की बात कही गई थी।
दुर्भाग्य से भारत अन्य देशों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में अभी पीछे है। दुनिया के ज्यादातर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5-18% मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं, जबकि भारत का इस दिशा में खर्च 0.05 फीसदी ही है। इसके अलावा भारत में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी भी बड़ी चुनौती है। 1.3 बिलियन (130 करोड़) की आबादी के लिए मात्र 10,000 ही मान्यताप्राप्त मनोचिकित्सक हैं, इनमें भी ज्यादातर लोग शहरी क्षेत्रों में हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में उचित मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का भारी अभाव है। जिला स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम तो तैयार किए गए हैं लेकिन वहां की स्थिति 'राम भरोसे' ही है। आलम यह है कि तमाम राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों को मनोचिकित्सा के लिए राज्य की राजधानी या दिल्ली का रुख करना पड़ रहा है।
मनोचिकित्सकों का कहना है, कोरोना महामारी के बाद से देश में मानसिक स्वास्थ्य विकारों के केस में 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी आई है, हालांकि सुविधाओं में इस स्तर पर कोई खास सुधार नहीं हुआ है। टेलीकंसल्टेंसी जैसे तकनीक ने लोगों के लिए दूर बैठकर भी परामर्श लेना आसान जरूर बनाया है पर अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते, ये सेवाएं शहरी आबादी के इर्द-गिर्द ही घूमती ही नजर आ रही हैं।
कोविड-19 ने हर एक व्यक्ति को मानसिक तौर पर प्रभावित किया है, चाहे वे संक्रमित हुए हों या नहीं। मानसिक स्वास्थ्य की बढ़ती इस तरह की चुनौतियों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक बयान में कहा-

सोर्स: अमर उजाला

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