क्या अखिलेश यादव की साइकिल पूरी तरह पंचर करके ही मानेंगे चाचा शिवपाल?
चाचा को विधायक दल की बैठक में नहीं बुलाया
यूसुफ़ अंसारी।
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में प्रचंड बहुमत से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद बीजेपी की लगातार दूसरी बार सरकार बन चुकी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बुलडोजर फुल स्पीड पर चल रहा है. नहीं चल रही है तो वो है अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की साइकिल. एक तरफ जहां वह खुद को बाहरी चुनौतियों से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं, वहीं भीतरी चुनौतियां उन्हें अंदर से कमज़ोर करने पर तुली हुई हैं. अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) के बीजेपी में जाने की चर्चा जोरों पर है. ख़ुद शिपवाल इसके ठोस संकेत दे रहे हैं.
दरअसल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने '22 में बाइसिकल' का नारा दिया था. लेकिन वो अपना यह सपना साकार नहीं कर सके. इसके जवाब में बीजेपी की तरफ से कहा गया 'साइकिल नहीं चली 22 में, अब प्रयास करना 27 में.' बीजेपी की तरफ से पेश की गई इसी चुनौती का सामना करने के लिए अखिलेश यादव ने लोकसभा की सीट छोड़कर पूरे पांच साल विधानसभा में रहकर योगी सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का रास्ता अपनाया. लेकिन लगता है कि उनके चाचा शिवपाल यादव उनकी राह में रोड़ा अटकाने की ठाने बैठे हैं. इसीलिए बीजेपी के साथ सांठगांठ करके वो 2024 और 2027 में भी अखिलेश की राह मुश्किल बनाने की क़वायद में जुट गए हैं. फिलहाल उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबकी निगाहें शिवपाल यादव के अगले क़दम पर टिकी हुई हैं.
चाचा को विधायक दल की बैठक में नहीं बुलाया
दरअसल चाचा भतीजे के बीच नए सिरे से खटास सपा विधायक दल की बैठक से शुरू हुई. इसी बैठक में अखिलेश यादव को विधायक दल का नेता चुना गया था. लेकिन उसमें शिवपाल यादव को नहीं बुलाया गया था. यहां तक कि उन्हें इस बैठक की सूचना तक नहीं दी गई थी. इस पर शिवपाल ने नाराज़गी जताई तो अखिलेश यादव ने जवाब दिया कि शिवपाल यादव को सहयोगी दलों की विधायक दल की बैठक में बुलाया जाएगा. मंगलवार को हुई सपा और उसके सहयोगी दलों के विधायकों की इस बैठक में शिवपाल यादव नहीं पहुंचे. इसके बजाय वह इटावा चले गए और वहां जाकर सपा छोड़कर बीजेपी में गए हरिओम यादव और अपनी पार्टी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी से जुड़े लोगों से मिले. ऐसा करके शिवपाल ने साफ संकेत दे दिया कि अगर अखिलेश उन्हें समाजवादी पार्टी का विधायक नहीं मानते तो वह भी खुद को समाजवादी पार्टी का सहयोगी दल नहीं मानते.
योगी से मुलाकात, क्या हुई बात?
इटावा से लौटकर शिवपाल यादव ने बुधवार को विधानसभा में विधायक के तौर पर शपथ ली और शाम को मुख्यमंत्री निवास पहुंचकर योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की. क़रीब आधे घंटे चली इस मुलाकात में क्या बात हुई, राजनीतिक गलियारों में इसे लेकर अलग-अलग क़यास लगाए जा रहे हैं. इसी मुलाकात से शिवपाल के बीजेपी में शामिल होने की चर्चा उठी है क्योंकि इस मुलाकात के फौरन बाद योगी आदित्यनाथ से मिलने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह गए थे. माना जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ ने शिवपाल यादव को बीजेपी में शामिल होने का न्योता दिया है और बदले में उन्हें और उनके बेटे का राजनीतिक करियर सेट करने का भरोसा दिया है. बीजेपी में शामिल होने की बाबत पूछे जाने पर शिवपाल यादव मीडिया से कहते रहे हैं कि समय आने पर सब कुछ बताऊंगा इसका मतलब साफ है कि बीजेपी के साथ उनकी खिचड़ी पक रही है.
दिल्ली में बीजेपी नेताओं से मुलाकात
राजनीतिक गलियारों में इस बात को लेकर भी चर्चा है कि शिवपाल यादव इटावा से सीधे दिल्ली आए थे. दिल्ली में उन्होंने पहले मुलायम सिंह यादव से मुलाकात की और उसके बाद वो बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं से मिल चुके हैं. ये भी कहा जा रहा रहा कि नई दिल्ली में हुई इन मुलाक़ातों के बाद ही शिवपाल लखनऊ में योगी से मिले हैं. लेकिन इन मुलाकातों की पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है. चर्चा यह भी है कि योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद वह दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिल सकते हैं. लेकिन इसकी पुष्टि न बीजेपी की तरफ से हो रही है और न शिवपाल यादव की तरफ से. राजनीतिक गलियारों में इस पर जमकर चर्चा हो रही है कि बीजेपी के साथ आने पर शिवपाल को क्या हासिल होगा? ये इस बात पर निर्भर करेगा कि वो बीजेपी के साथ कैसा रिश्ता रखना चाहते हैं.
शिवपाल के पास क्या हैं विकल्प?
मोटे तौर पर शिवपाल यादव के पास बीजेपी के साथ जाने के तीन विकल्प हैं. पहला विकल्प वो सीधे बीजेपी में शामिल होकर पार्टी में यादव चेहरे के रूप में खुद को स्थापित कर सकते हैं. बीजेपी अखिलेश के खिलाफ उनका उसी तरह इस्तेमाल कर सकती है जैसे सोनिया और राहुल के खिलाफ वह मेनका गांधी और वरुण गांधी का करती रही है. दूसरा विकल्प शिवपाल अपनी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी का बीजेपी में विलय कर लें. लेकिन इसके लिए उन्हें अपने नाराज़ साथियों को मनाने में काफी मशक्कत करनी होगी. क्योंकि उन्हें मझधार में छोड़कर सपा के टिकट पर अकेले चुनाव लड़ने से उनके वफादार साथी उनसे बेहद नाराज़ हैं. वो फिलहाल उनके साथ जाने को तैयार नहीं हैं. शिवपाल के पास तीसरा विकल्प अपनी पार्टी को पुनर्जीवित करके बीजेपी के सहयोगी दल के रूप में भविष्य की राजनीति करने का है. तीनों में से वह कौन सा विकल्प चुनेंगे यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बीजेपी किस विकल्प में उन्हें क्या ऑफर करती है.
बीजेपी क्या दे सकती है शिवपाल को?
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि बीजेपी ने शिवपाल यादव को राज्यसभा और उनके बेटे आदित्य यादव को जसवंत नगर से विधानसभा के उपचुनाव में टिकट का प्रस्ताव दिया है. लगता है शिवपाल इसे खुशी से कुबूल कर लेंगे. यह भी कहा जा रहा है कि बीजेपी शिवपाल यादव को आज़मगढ़ से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा सकती है. ऐसा करके वह सीधे अखिलेश यादव को उन्हीं के परिवार से चुनौती दिला कर उनका मनोबल गिराने की कोशिश कर सकती है.
लेकिन लोकसभा उपचुनाव में शिवपाल की जीत पक्की नहीं मानी जा सकती. अगर अखिलेश ने शिवपाल के मुकाबले रामगोपाल यादव को उतार दिया तो उनका जीतना मुश्किल होगा. वैसे भी बीजेपी आज़मगढ़ में सिर्फ एक बार 2009 में जीती है. वह भी सपा और बसपा के टिकट पर पहले चुनाव जीत चुके रमाकांत यादव के सहारे. हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी आज़मगढ़ की एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत पाई.
बीजेपी में भी आसान नहीं शिवपाल की राह
शिवपाल के लिए बीजेपी में जगह बनाना आसान नहीं है. बल्कि ये एक बड़ी चुनौती है. इस चुनौती को पार करके ही शिवपाल बीजेपी में बड़े यादव चेहरे के रूप में उभर सकते हैं. इसी से उनका डूबता राजनीतिक करियर बचेगा. 2014 के बाद बदली हुई बीजेपी में बाहर से आए उन सभी नेताओं को मान सम्मान के साथ ऊंचा ओहदा भी मिला है जिन्होंने अपने आप को साबित किया है. चाहे वो असम के मुख्यमंत्री रहे सर्वानंद सोनेवाल हों या मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा.
इसी तरह मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उत्तर प्रदेश में बृजेश पाठक जैसे नेताओं ने खुद को साबित करके ही बीजेपी में अपनी जगह बनाई है. शिवपाल यादव अगर आज़मगढ़ से बीजेपी के टिकट पर लोकसभा का उपचुनाव जीतकर ये सीट बीजेपी की झोली में डाल देतें हैं तो उन्हें बीजेपी में सबसे ज्यादा मान सम्मान मिल सकता है. अगर वो राज्यसभा का ऑफ़र कबूल करते हैं तो ये बस अपनी डूबती नैया का बचाने भर की कोशिश होगी.
यह भी माना जा रहा है कि चाचा को नाराज करके अखिलेश यादव ने ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है. जब शिवपाल अपनी पार्टी का सपा में विलय करने के लिए तैयार थे तो अखिलेश यादव को बड़ा दिल दिखाना चाहिए था. शिवपाल ने अपने तमाम साथियों को नाराज़ करके सिर्फ़ एक सीट पर ही संतोष किया था. सपा से समझौते के बाद शिवपाल ने कहा था कि अब वो समाजवादी पार्टी के लिए अपनी जान भी न्योछावर कर देंगे. लेकिन चुनाव के बाद अखिलेश ने विधायक दल की बैठक में उन्हें नहीं बुलाकर पुराने ज़ख़्मों को हरा कर दिया. फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि शिवपाल यादव ने भी अब ठान लिया है कि वह अपने भतीजे अखिलेश यादव की साइकिल को पूरी तरह पंचर करके ही मानेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)