वन्यजीव सप्ताह 2021 : प्राकृतिक संतुलन के लिए जरूरी है वन्य जीवों का संरक्षण

वन्यजीव सप्ताह 2021

Update: 2021-10-08 14:52 GMT

अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे इंसान को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वह अपने साथ-साथ लाखों अन्य जीवों के लिए इस धरती पर रहना कितना दूभर बनाता जा रहा है. हमने अपनी सुख-सुविधाओं और तथाकथित विकास के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त हो गए हैं. विकास का सबसे बुरा शिकार वन हुए हैं. कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी विलुप्ति कगार पर हैं.

सिर्फ गाल बजाने से नहीं होगा वन्य जीवों का संरक्षण
वन्यजीव सप्ताह भारत में हर साल अक्टूबर महीने के पहले हफ्ते में मनाया जाता है. इस साल भी वन्यजीव सप्ताह 2 अक्टूबर से 8 अक्टूबर तक मनाया जा रहा है. लोगों को वन्यजीव संरक्षण के महत्व को समझाने के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जा रही हैं और वन्यजीवों के बारे में आम जागरूकता पैदा करने के लिए विभिन्न स्तरों पर कई जागरूकता-निर्माण गतिविधियों का आयोजन किया जा रहा है.
वन्य जीवों के संरक्षण के लिए एक लंबे अर्से से हजारों कार्यशालाएं, सेमिनार और सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं, लेकिन इससे वन्य जीवों की विलुप्ति दर में कोई भी कमी नहीं आई है. वन्य जीव सप्ताह सिर्फ गाल बजाने से नहीं सफल होगा, बल्कि हमें वन्य जीवों को स्वयं के अस्तित्व से जोड़कर देखना होगा. ऐसे में अब समय आ गया है कि हम सभी इंसान अपनी जिम्मेदारियां समझें. सिर्फ विचार-विमर्श या सम्मेलन ही नहीं धरती और वन्य जीवों को बचाने के संकल्प के साथ इस दिशा में कुछ ठोस कदम भी उठाने होंगे.
जानवर को महज जानवर न समझें, बल्कि अपना अस्तित्व बनाए रखने का जरिया समझें
पृथ्वी पर जीवन का विकास पर्यावरण के अनुकूल ऐसे माहौल में हुआ है, जिसमें जल, जंगल, जमीन और जीव-जंतु सभी आपस में एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं. प्रकृति ने धरती से लेकर वायुमंडल तक विस्तृत जैवविविधता को इतनी खूबसूरती से विकसित एवं संचालित किया है कि अगर उसमें से एक भी प्रजाति का वजूद खतरे में पड़ जाए तो सम्पूर्ण जीव-जगत का संतुलन बिगड़ जाता है.

प्राकृतिक संतुलन के लिए सभी वन्य प्राणियों का सरंक्षण बेहद जरूरी है, अन्यथा किसी भी एक वन्य प्राणी के विलुप्त होने पर पूरी संरचना धीरे-धीरे बिखरने लगती है. चूंकि पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, इसलिए अन्य प्राणियों की विलुप्ति से हम इंसानों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. नए वैज्ञानिक अध्ययन चेताते हैं कि इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे. दो या तीन दशकों के भीतर इंसान अगर वन्य जीवों की संख्या में हो रहे गिरावट को नहीं रोक पाया, तो मानव अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा.
विकास के लिए प्रकृति के विनाश को रोकना होगा
जब से इंसान ने अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जैव विविधता के साथ छेड़छाड़ और बेलगाम दोहन शुरू किया है, तभी से वन्य प्राणियों के अस्तित्व के लिए संकट पैदा हो गया है. हम अपनी लालची प्रवृत्ति और विकास के नाम पर पृथ्वी को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, फिर बात चाहे पर्यावरण की हो, प्राकृतिक संसाधनों की हो या फिर वन्य जीवों की. हमारी लालच भरी करतूतों का ही यह परिणाम है कि पृथ्वी पर उपस्थित तमाम वन्य प्राणियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. कई प्रजातियों का धरती से नामोनिशान ही मिट चुका है और एक बार विलुप्त हो जाने के बाद किसी प्रजाति को वापस लाने का कोई भी तरीका नहीं है.
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि 'पृथ्वी में देने की इतनी क्षमता है कि वह सबकी जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन पृथ्वी मनुष्य के लालच को नहीं पूरा कर सकती है.' गांधीजी प्राणीमात्र को एकसमान मानते थे. उन्होने यह भी कहा था कि 'मैं केवल मानव जाति के बीच ही भाईचारे अथवा उसके साथ तादात्म्य की स्थापना नहीं करना चाहूंगा, बल्कि पृथ्वी पर रेंगने वाले जीवों सहित समस्त प्राणिजगत के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहता हूं क्योंकि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं. इसलिए जीवन जितने रूपों में है, सब मूलतः एक ही हैं.'
प्रकृति में शाकाहारी, स्वपोषी, सर्वाहारी, मांसभक्षी आदि असंख्य जीवधारियों के मध्य स्थापित खाद्य श्रृंखला प्राकृतिक संतुलन में अहम भूमिका निभाती है. चील, शिकरा, बाज आदि पक्षी तथा धामिन, सैन्ड बोआ (दोमुंहा सांप) आदि सांप चूहों और कीट-पतंगों का भक्षण कर हमारी फसलों की सुरक्षा करते हैं. पैंगोलिन नामक जीव दीमकों एवं चींटियों की आबादी का नियंत्रण कर जैवविविधता के संतुलित संचालन में मददगार होता है. मेंढक जैसा उभयचर प्राणी मच्छरों को खाकर डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया जैसे मच्छर जनित बीमारियों के प्रकोप को कम करता है. धरती पर मानव सहित समस्त जीव-जंतुओं का वजूद परस्पर एक दूसरे के सह-अस्तित्व पर टिका हुआ है.
हमारा पशु-प्रेम सिर्फ दिखावा है
बहुत से पर्यावरणविद मौजूदा महामारी कोविड-19 को प्रकृति के साथ किए अन्याय का दुष्परिणाम मान रहे हैं. कोरोना वायरस कहीं न कहीं यह उम्मीद लेकर आया कि शायद अब इंसान प्रकृति और इसके सभी हिस्सेदारों के प्रति संवेदनशील होगा, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा. आज भी ज्यादातर लोग जानवरों को तवज्जो सिर्फ तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ, सुख या मनोरंजन से संबंध रखते हों. यह आदमी का पाखण्ड नहीं तो और क्या है!

उत्तराखंड हाई कोर्ट के सीनियर जज राजीव शर्मा और जज लोकपाल सिंह की पीठ ने जुलाई 2018 के अपने एक अनूठे फैसले के तहत कहा था कि 'जीव-जंतुओं को भी इंसानों के समान जीने का अधिकार है. वे भी सुरक्षा, स्वास्थ्य और क्रूरता के विरुद्ध इंसान जैसे ही अधिकार रखते हैं.' वैसे तो देश के प्रत्येक राज्य ने अलग-अलग जीव-जंतुओं को अपना राजकीय पशु घोषित किया है लेकिन वास्तविकता में ऐसे प्रतीकात्मक निर्णयों से जानवर बचते नहीं हैं.

ऐसा लगता है कि इंसानी सभ्यता ने प्रकृति के खिलाफ एक अघोषित जंग का ऐलान कर रखा है और स्वयं को प्रकृति से अधिक शक्तिशाली साबित करने में जुटा हुआ है. यह जानते हुए भी कि प्रकृति के खिलाफ युद्ध में वह जीत कर भी अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाएगा. बहरहाल, जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने पृथ्वी पर इंसान, वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का एकसमान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को लोग अपना दायित्व नहीं मानेंगे. और अगर ऐसा होता है तो ही वन्यजीव सप्ताह मनाने का प्रयोजन सफल हो पाएगा. अस्तु!



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए  जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
प्रदीप
प्रदीपतकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.


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