सावरकर पर विवाद क्यों

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बुधवार को एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में यह कहकर सबको चौंका दिया कि स्वतंत्रता सेनानी और हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफी महात्मा गांधी के कहने पर मांगी थी।

Update: 2021-10-15 01:49 GMT

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बुधवार को एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में यह कहकर सबको चौंका दिया कि स्वतंत्रता सेनानी और हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफी महात्मा गांधी के कहने पर मांगी थी। उन्होंने अपने भाषण में इस दावे का कोई आधार नहीं बताया। जैसी कि अपेक्षा थी, उनके बयान पर कांग्रेस और अन्य दलों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। इसे इतिहास को तोड़ने मरोड़ने की एक और कोशिश बताते हुए सवाल उठाया गया कि सावरकर की ओर से माफी की पहली अर्जी 1911 में डाली गई थी, जबकि महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत 1915 में लौटे, ऐसे में यह कैसे संभव हो सकता है कि सावरकर ने माफी गांधी के कहने पर मांगी हो?

बेहतर होता, रक्षा मंत्री अपनी बात ज्यादा स्पष्टता से और तथ्यों व सबूतों का आधार बताते हुए रखते। लेकिन सवाल यह है कि आखिर देश में सावरकर की माफी को लेकर बार-बार विवाद क्यों होते रहते हैं। इसमें दो राय हो ही नहीं सकती कि देश के बीसवीं सदी के इतिहास में सावरकर की अपनी एक खास भूमिका रही है जिसकी वजह से उनका अपना एक अलग स्थान है। अगर यह तथ्य है कि उन्होंने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजी सरकार के पास बार-बार माफीनामा भिजवाया, तो इसे स्वीकार करने में हमें कोई दिक्कत क्यों होनी चाहिए?
इस देश को लेकर, इसकी संस्कृति, इतिहास और भविष्य को लेकर, देश की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई को लेकर उस दौर के हर महापुरुष की अपनी एक समझ, अपना एक नजरिया था जिस पर आधारित उनकी खास रणनीति थी। यह रणनीति अगर भगत सिंह को फांसी के फंदे की ओर ले गई तो उस दौर में भी उनके तमाम साथियों की उस पर सहमति ही नहीं थी। इसी तरह सावरकर की रणनीति ने उन्हें अंग्रेजी सरकार के पास माफीनामा भिजवाने को प्रेरित किया तो हमारा उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है, लेकिन इसे लेकर शर्मिंदा महसूस करने का भी कोई कारण नहीं है। यह शर्मिंदगी ही है जिसकी वजह से हममें से कुछ लोग आज भी कभी सावरकर के माफीनामे को झुठलाने लगते हैं तो कभी इसके लिए महात्मा गांधी या दूसरे राष्ट्रनायकों की आड़ लेने की कोशिश करते हैं।
यहस्थिति तब उत्पन्न होती है जब हम एक खास दौर के इतिहास को उसके मूल रूप में समझने और संबंधित व्यक्तित्वों का सटीक मूल्यांकन करते हुए उनके गुणों-अवगुणों से सही सबक लेने के बजाय उन महापुरुषों को आपस में लड़ाना शुरू करते हैं कि फलां जी ढिकां जी से ज्यादा बड़े या छोटे थे। यह न केवल उन महापुरुषों की स्मृतियों के साथ अन्याय है बल्कि उस दौर की हमारी समझ को भी धुंधला और दूषित करता है। इसलिए इस प्रवृत्ति से जल्द से जल्द मुक्ति पाने की जरूरत है चाहे वह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौर से जुड़ी हो या मध्यकालीन और प्राचीन दौर के इतिहास से।

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