स्कूल खोलने पर इतना असमंजस क्यों
कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी तो स्कूलों को खोल देना चाहिए ताकि छात्रों का थमा विकास आगे बढऩा आरंभ हो सके
जब कहा जा रहा है कि हमें कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी तो स्कूलों को खोल देना चाहिए ताकि छात्रों का थमा विकास आगे बढऩा आरंभ हो सके। इसके लिए पाठशाला प्रबंधन समिति की बैठक बुलाकर अभिभावकों की भी सहमति ली जानी चाहिए, उनसे विचार-विमर्श करना चाहिए ताकि वे भी अपने बच्चों को उचित हिदायतें देकर स्कूल भेजना आरंभ करें। अगर आर्थिक समस्या है तो एसएमसी फंड का प्रयोग सेनेटाइजेशन इत्यादि के लिए किया जा सकता है। आंगनवाड़ी व आशा वर्कर की सेवाएं ली जा सकती हैं जो पाठशालाओं में प्रवेश से पहले स्कूल स्टाफ, छात्रों व अन्य आगंतुकों की कोरोना जांच कर सकंे। मिड डे मील वर्कर सहित सारे स्टाफ का टीकाकरण होना चाहिए…
प्राचीन भारत में ऋषि मुनि वनों में कुटिया में आकर रहते थे जहां वे ध्यान व तपस्या करते थे। इन स्थानों पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्ययन के अतिरिक्त अन्य विद्या सीखने के लिए भेजते थे। सनातन धर्म में आयु के प्रथम 25 वर्ष को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है। पुष्ट शरीर, बलिष्ठ मन, सुसंस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी अपना विकास करता है और फिर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। भारत के शिक्षा के इतिहास में कई परिवर्तनों के पश्चात आधुनिक युग में पाठशाला वह स्थान है जहां शिक्षा ग्रहण की जाती है। यह एक ऐसी संस्था है जहां बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व नैतिक गुणों का विकास होता है। परंतु कोरोना वायरस के प्रकोप को रोकने के लिए मार्च 2020 से पूरे देश में लॉकडाउन के कारण अन्य सभी संस्थानों व उद्योगों के साथ स्कूल भी बंद हो गए। इसके पश्चात लॉकडाउन कई चरणों में आगे बढ़ता गया और कुछ आवश्यक सेवाओं को छोड़कर शेष सभी संस्थान बंद कर दिए गए।
पर धीरे-धीरे कोरोना के घटते आंकड़ों को देखकर तथा आर्थिकी व मजदूरों की बिगड़ती स्थिति को देखकर कुछ संस्थान, बाजार, परिवहन आदि खोल दिए गए। मास्क, सामाजिक दूरी, हाथ धोना, सेनेटाइजर का प्रयोग करना आदि नियमों के साथ शिक्षण संस्थान भी खोल दिए गए। पर जब स्कूल खुले तो कोरोना के केस बढऩे लगे और पाठशालाएं फिर से बंद कर दी गईं। कुछ बच्चे जो गत वर्ष तीन-चार या पांच वर्ष के हुए जिन्हें सरकारी या निजी पाठशाला में प्रवेश लेना था, उन्हें आज तक यह ज्ञान भी नहीं है कि स्कूल क्या होता है, वहां अध्यापक कैसे पढ़ाते हैं। इतने छोटे बच्चे ऑनलाइन भी तभी पढ़ सकते हैं जब उनके माता-पिता के पास स्मार्टफोन हो। स्मार्टफोन का ज्ञान और सिग्नल इत्यादि की भी समस्या न हो, जबकि हमारे पहाड़ी प्रदेश के किसान माता-पिता के पास खेतीबाड़ी व पशुओं का इतना काम होता है कि उनके लिए बच्चों को ऑनलाइन कक्षाओं के लिए समय निकालना बहुत कठिन है। ऊपर से वे पूर्ण रूप से शिक्षित भी नहीं हैं। फेसबुक आदि चलाना एक अलग बात है और ऑनलाइन पढऩा-पढ़ाना अलग बात है। इससे बच्चों की पढऩे की आयु निकल रही है जिससे भावी पीढ़ी का विकास रुक सा गया है। सबसे अधिक नुकसान प्राथमिक पाठशाला के बच्चों का हो रहा है जहां बच्चों के भविष्य की नींव का निर्माण होता है।
इसके साथ जो बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, ंउनकी निराशा भी बढ़ रही है। पाठशाला का विकल्प ऑनलाइन कक्षाएं नहीं हो सकती। यह तो कोरोना जैसी महामारी से बचने के लिए एक विवशता है। परंतु बाजारों में भीड़ है, बसों में सभी सफर कर रहे हैं, रैलियां हो रही हैं, शादियों-समारोह में ये बच्चे भी बड़ों के साथ जा रहे हैं, सामूहिक भोजन आदि कर रहे हैं, उनके अभिभावक सब स्थानों में जाकर घर अपने बच्चों के पास रह रहे हैं तो पाठशाला में खतरा क्यों बढ़ रहा है? देखा जाए तो हमारे प्रदेश में अधिकतर छोटे-छोटे गांव हैं और सरकार ने लगभग सभी गांवों के पास प्राथमिक पाठशालाएं स्थापित की हैं। इन पाठशालाओं के पास ये बच्चे खेलते हैं, पशु आदि चराते हैं। हमारे सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत कम रह गई है। जबकि दो या तीन कमरों के भवन लगभग सभी पाठशालाओं के हैं तो सामाजिक दूरी रखी जा सकती है। जब कहा जा रहा है कि हमें कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी तो स्कूलों को खोल देना चाहिए ताकि छात्रों का थमा विकास आगे बढऩा आरंभ हो सके। इसके लिए पाठशाला प्रबंधन समिति की बैठक बुलाकर अभिभावकों की भी सहमति ली जानी चाहिए, उनसे विचार-विमर्श करना चाहिए ताकि वे भी अपने बच्चों को उचित हिदायतें देकर स्कूल भेजना आरंभ करें। अगर आर्थिक समस्या है तो एसएमसी फंड का प्रयोग सेनेटाइजेशन इत्यादि के लिए किया जा सकता है। आंगनवाड़ी व आशा वर्कर की सेवाएं ली जा सकती हैं जो पाठशालाओं में प्रवेश से पहले स्कूल स्टाफ, छात्रों व अन्य आगंतुकों की कोरोना जांच कर सकं।
मिड डे मील वर्कर सहित सारे स्टाफ का टीकाकरण होना चाहिए। सफाई कर्मचारी की भर्ती हर स्कूल में होनी चाहिए जो शौचालय और पाठशाला परिसर की उचित साफ-सफाई करे। मास्क, साबुन, हैंडवाश, सेनेटाइजर आदि के प्रयोग पर विशेष ध्यान दिया जाए। इसके लिए क्लास फोर व जलवाहक कर्मचारियों का योगदान लिया जा सकता है क्योंकि इनके पास अधिक कार्यभार नहीं होता। ऐसे कठिन समय में बच्चों की सुरक्षा और उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए थोड़ी मेहनत भी करनी पड़े तो गुरेज नहीं करना चाहिए। लॉकडाउन में कोरोना से बचने के लिए हमें घर में रहकर आराम भी तो बहुत करना पड़ा है। हमारे चिकित्सक और वैज्ञानिक छोटे बच्चों के टीकाकरण के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। भगवान की कृपा से इसमें अवश्य सफल होंगे और सभी बच्चों को भी टीका लगाने से बहुत राहत मिलने वाली है। अभिभावक, स्कूल स्टाफ, आंगनवाड़ी व आशा वर्कर इत्यादि के सहयोग से बच्चों को कोरोना से बचाया जा सकता है और विद्यालय खोले जा सकते हैं जिससे उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पल, विद्यार्थी जीवन में आए ठहराव को गतिशील किया जा सकता है ताकि हमारी भावी पीढ़ी शिक्षित, गुणवान, स्वस्थ और संस्कारित बनकर अपने भारत देश को उन्नति के शिखर पर ले जाए।
कविता सिसोदिया, लेखिका बिलासपुर से हैं