पीएम मटीरियल नीतीश कुमार का सपना क्यों अचानक 'नॉनसेंस' बन गया

सपने सभी देखते हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

Update: 2021-08-30 07:50 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| अजय झा | सपने सभी देखते हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) भी. लेकिन अगर उज्ज्वल भविष्य का सपना वर्तमान को अंधकारमय करने लगे तो उसे सपना नहीं 'नॉनसेंस' कहते हैं. इस 'नॉनसेंस' शब्द का इस्तेमाल नीतीश कुमार ने कल बिहार की राजधानी पटना में किया, जब उनसे उनके प्रधानमंत्री बनने के सपने के बारे में पूछा गया. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद के सपने पर लगाम उसी दिन लगी जिस दिन उनके सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी (BJP) में चिराग पासवान (Chirag Paswan) धड़े के दो बड़े नेता लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए. शायद यह एक चेतावनी थी जिसे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) (JDU) ने ठीक तरह से समझ लिया कि अभी वह समय नहीं आया है कि बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पंगा लिया जाए.

विरोधी दलों को तोड़ने की कला में कभी कांग्रेस (Congress) पार्टी पारंगत होती थी, पर बीजेपी का वर्तमान में कोई मुकाबला नहीं है. जेडीयू ने इसकी एक छोटी सी झलक पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक बाद भारत के पूर्वोतर राज्य अरुणाचल प्रदेश में देखी थी, जब जेडीयू के 7 में से 6 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे. नीतीश कुमार ने उस समय उस मुद्दे को वहीं दबा दिया, यह कह कर कि जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन सिर्फ बिहार तक ही सीमित है, किसी अन्य राज्य में नहीं है. कुछ समय के लिए ही सही, पर इस घटना के बाद जेडीयू और बीजेपी के संबंधों में थोड़ी खटास जरूर आ गयी थी.

एलजेपी को तोड़ कर नीतीश कुमार ने लिया था बदला?

एलजेपी का पिछले महीने विभाजन हो गया जब एलजेपी के संस्थापक स्वर्गीय रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस ने पार्टी पर कब्ज़ा कर लिया और अपने भतीजे चिराग पासवान को पार्टी अध्यक्ष पद से बेदखल कर दिया. माना जाता है कि पशुपति पारस के विद्रोह के पीछे नीतीश कुमार का हाथ था.

एनडीए में होने के बावजूद चिराग नीतीश कुमार के आलोचक थे. एलजेपी ने बिहार चुनाव में एनडीए से बाहर रह कर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया. एलजेपी बीजेपी का समर्थन कर रही थी और जेडीयू के खिलाफ चुनाव लड़ रही थी. नतीजा, चिराग फ्लॉप हो गए, एलजेपी मात्र एक सीट ही जीत पाई पर जेडीयू का भारी नुकसान किया. नीतीश कुमार की पार्टी 71 सीटों से लुढ़क कर 43 सीटों पर सिमट गयी. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बने पर बीजेपी की बदौलत. पहली बार जेडीयू को बीजेपी के मुकाबले कम सीटों पर जीत नसीब हुई और वह भी तब जबकि जेडीयू ने बीजेपी से कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा था.

एलजेपी में बगावत और चिराग पासवान को अध्यक्ष पद से हटाने को नीतीश कुमार का प्रतिशोध माना गया. एलजेपी के जिन दो नेताओं ने कल चिराग पासवान का साथ छोड़ दिया उनके पास विकल्प था कि वह पशुपति पारस के साथ जुट जाएं या फिर जेडीयू में शामिल हो जाएं. पर उनका बीजेपी में शामिल होना एक संकेत था और जेडीयू के लिए चेतावनी भी.

नीतीश कुमार नहीं बनना चाहते प्रधानमंत्री?

कल पटना में जेडीयू की एक अहम बैठक के बाद पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव के.सी. त्यागी ने घोषणा की कि नीतीश कुमार का फोकस बिहार है और उन्हें प्रधानमंत्री बनने की कोई चाह नहीं है, जिसके बाद नीतीश कुमार ने 'नॉनसेंस' शब्द का प्रयोग कर के इस चर्चा पर पूर्णविराम लगाने की कोशिश की. तो क्या यह मान लिया जाए कि नीतीश कुमार सच में प्रधानमंत्री बनने का सपना नहीं देख रहे थे और इस चर्चा को खत्म करने के निर्णय के पीछे बीजेपी का खौफ नहीं था कि अगर वह एक सीमा से बाहर गए तो बिहार में भी जेडीयू को तोड़ा जा सकता है.

पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र की राजनीति में दखल देने की सोची. चर्चा चलने लगी कि मोदी के खिलाफ वह संयुक्त विपक्ष की तरफ से 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं. ममता बनर्जी दिल्ली के दौरे पर भी आईं और कई गैर-बीजेपी दलों के नेताओं से उनकी मीटिंग भी हुई. लगभग ठीक उसी समय जेडीयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में हुई, जिसके बाद जेडीयू नेता उपेन्द्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार को 'पीएम मटीरियल' घोषित कर दिया. लेकिन ना तो के.सी. त्यागी ने उस समय कुछ बोला, ना ही नीतीश कुमार ने उस समय इसे नॉनसेंस करार किया.

बीजेपी से फिलहाल पंगा नहीं लेना चाहते नीतीश कुमार

ठीक इसके विपरीत वह इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला से भी मिले. चौटाला अपने स्तर पर गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस दलों का तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. पर बीजेपी के कल एक छोटे से झटके के बाद नीतीश कुमार को शायद यह अहसास हो गया कि बीजेपी से पंगा लेने का क्या फल हो सकता है. प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते-पालते कहीं उनका मुख्यमंत्री पद भी ना चला जाए, यह सोच कर नीतीश कुमार और जेडीयू ने एक कदम पीछे खींचने का निर्णय लिया और इस पूरे चर्चा को नॉनसेंस बता कर ख़त्म करने की कोशिश की.

राजनीति में कोई भी फैसला पूर्णकालिक नहीं होता

बहरहाल नीतीश कुमार की कुर्सी सुरक्षित रहेगी, पर यह सोचना कि वह प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना छोड़ देंगे सही नहीं होगा. अभी भी कई ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो ना तो बीजेपी के साथ हैं और ना ही कांग्रेस पार्टी के साथ. इस दलों में ओडिशा की सत्ताधारी पार्टी बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश की सत्तारूढ़ वाई एस आर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना की सत्ताधारी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति, उत्तर प्रदेश के दो बड़े विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तथा पंजाब में बीजेपी की पूर्व सहयोगी शिरोमणि अकाली दल प्रमुख हैं. इसके अलावा और भी कई छोटे दल हैं जो ना तो बीजेपी के प्रशंसक हैं ना ही विरोधी.

लिहाजा नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति पर पैनी नज़र रखेंगे और संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले वह अपना नॉनसेंस वाला बयान वापस ले लें और अपने सपनों को साकार करने में जुट जाएं. क्योंकि जहां नीतीश कुमार हैं, वहां सब कुछ संभव है. नैतिकता, जनादेश, वगैरह की जंजीरों से उन्होंने बहुत पहले भी अपने आप को मुक्त कर लिया था.

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