उत्तर प्रदेश की रजनीति में क्यों हाशिए पर पहुंच गए मुसलमान

उत्तर प्रदेश की रजनीति

Update: 2021-12-11 06:12 GMT
'मत सहल हमें जानो
फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के परदे से
इनसान निकलता है.'
-मीर तकी मीर
मीर का यह शेर मानव जीवन के इतिहास के उन विलक्षण व्यक्तित्वों, महानायकों के लिए ही लिखा गया लगता है जो अपने काम के बूते जीवन-मृत्यु के चक्र और काल की सीमा से परे अमरत्व हासिल कर चुके हों. दिग्गज फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ऐसी ही एक हस्ती हैं. अमर हो चुके हैं. 11 दिसंबर 1922 को जन्मे दिलीप कुमार (Dilip Kumar) का इस साल 7 जुलाई को देहांत हो गया था. शतायु हो पाते तो अच्छा होता. भले ही अब वह दैहिक रूप से हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन सच तो यह है कि उम्र के किसी भी आंकड़े से ऊपर, अपनी अदाकारी के बूते पर दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के इतिहास में ही नहीं, दुनिया के सिनेमा में अमर हो चुके हैं.
2022 दिलीप कुमार का जन्म शताब्दी वर्ष होगा
मेघनाद देसाई ने दिलीप कुमार पर लिखी अपनी किताब में उन्हें नेहरू का हीरो कहा है. हालांकि दिलीप कुमार अकेले नेहरू के हीरो नहीं थे. 1940 के दशक में हिंदी सिनेमा में उभरी मशहूर अभिनय त्रयी के सितारे राजकपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार तीनों ही नेहरूवादी राजनीति और सामाजिक बदलावों से जुड़े स्वप्न और यथार्थ को सिनेमाई फंतासियों में ढाल कर पेश करने वाले नायक रहे. गुरुदत्त का सिनेमा नेहरू के नायकत्व और नेहरूवादी राजनीति से जुड़ी रूमानियत से मोहभंग का सिनेमा है, जिसका चरमोत्कर्ष है प्यासा फिल्म का गाना- 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं.' राजकपूर की फिल्म फिर सुबह होगी के गानों में भी नेहरूवाद से मोहभंग की स्पष्ट झलक मिलती है वो सुबह कभी तो आएगी और अल्लामा इक़बाल के कौमई तराने की मशहूर पैरोडी- चीनो अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा. दिलचस्प इत्तफ़ाक़ है कि यह तीनों गाने साहिर लुधियानवी की कलम से निकले हैं.
बहरहाल, बात दिलीप कुमार की हो रही है जिनकी मुस्कुराती हुई उदास आंखों और आवाज़ के उतार-चढ़ाव ने सिनेमा के परदे पर पीड़ा की अभिव्यक्ति का एक नया व्याकरण रच दिया. प्रेम कितना जटिल और जानलेवा हो सकता है/होता है ये अगर आपके जीवन में घटा है तो भी और नहीं घटा है तो भी, दिलीप कुमार की अदाकारी उस अनुभव को जितनी सघनता से दिखाती है, शायद ही हिंदी सिनेमा मे कोई दूसरा अभिनेता कर पाया हो.
दिलीप कुमार जितनी शोहरत पाना हर कलाकार का सपना होता है
कुंदन लाल सहगल उनसे पहले देवदास बन चुके थे, शाहरुख़ ख़ान ने उनके बरसों बाद देवदास का किरदार निभाया लेकिन शरत चंद्र के देवदास का अक्स दिलीप कुमार के चेहरे पर जितना प्रामाणिक लगा उतना कहीं और नहीं. दिलीप कुमार शायद इकलौते अभिनेता हैं जिन्होंने एक्टिंग की क्राफ्ट को एक मिस्टिकल टच देकर उसका रुतबा बढ़ाया है. प्रेम में नाकामी, जीवन की त्रासदी और मृत्यु को इतना आकर्षक बना देना कि लोग किसी नाकाम इन्सान के किरदार से बेपनाह मोहब्बत करने लग जाएं, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ दिलीप कुमार ने बहुत प्रामाणिक ढंग से किया और ऐसा लगातार करते हुए अदाकारी को एक ऐसी तिलिस्मी ऊंचाई दे दी जहां पहुंचना किसी भी अभिनेता का सपना तो हो सकता है लेकिन जहां पहुंच पाना सबके बस की बात नहीं.
देवदास, नया दौर, दाग, अंदाज, दीदार, अमर, पैगाम, कोहिनूर, उड़नखटोला, राम और श्याम, मधुमती, मुगलेआजम, आदमी,शक्ति, मशाल यादगार फिल्में ही नहीं हैं, अदाकारी की वो किताबें हैं जिन्हें देखकर जाने कितने अभिनेताओं ने दिलीप कुमार जैसा बनने का सपना देखा. शायद ही कोई एक्टर होगा जिसकी परछाइयों (मनोज कुमार, राजेंद्र कुमार) के हिस्से में भी अपने अपने ढंग से लोकप्रियता का भरपूर उजाला आया हो.
नाम बदलने के पीछे भी है दिलचस्प कहानी
पेशावर में 11 दिसंबर 1922 को जन्में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा 1944 में आई थी. बांबे टाकीज़ के बैनर तले. जिसकी मालकिन थीं देविका रानी. हिमांशु राय की मौत के बाद जब बांबे टाकीज़ दो टुकड़ों में बंटा और स्टूडियो के लिए बतौर हीरो काम करने वाले अशोक कुमार बांबे टाकीज छोड़कर फिल्मिस्तान चले गये तो देविका रानी को अपनी कंपनी के लिए हीरो ढूंढने की फिक्र सताने लगी. ऐसे में एक दिन यूसुफ खान नाम के एक नौजवान से उनकी मुलाकात हुई. बात आगे बढ़ी. चेहरा-मोहरा, कद-काठी तो देविका रानी को पसंद आ गये, लेकिन नाम नहीं जंचा. यूसुफ खान अपना नाम बदलने के हक में नहीं थे, लेकिन अपने कड़क पठान पिता से फिल्मों में काम करने की बात छुपाने के लिए (क्योंकि वो इसे भांडो का पेशा मानते थे) अपनी पहचान गुप्त रखने की जरूरत की वजह से मान गये.
कंपनी में काम कर रहे गीतकार और लेखक पंडित नरेंद्र शर्मा ने तीन नाम सुझाये- वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार. यूसुफ को जहांगीर नाम पसंद आया, लेकिन उसी कंपनी में काम कर रहे मशहूर हिंदी साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार नाम चुना. देविका रानी ने इस पर मुहर लगा दी. और इस तरह यूसुफ खान दिलीप कुमार बन गये. दिलचस्प बात यह है कि पिता से डरने वाले यूसुफ़ खान उन्हें यह नहीं बता पाये कि घर की चारदीवारी से परे बाहर की दुनिया में उनको दिलीप कुमार के नाम से जाना जाने लगा है.
मधुबाला से अपनी मोहब्बत का सरेआम इक़रार किया था
1944 से लेकर 1998 तक 54 साल के करियर में दिलीप कुमार ने 60 फ़िल्मों में काम किया. 1948 में ही एक साल के भीतर पांच फ़िल्में आईं. उसके बाद उन्होंने कभी एक साल में दो या तीन फ़िल्मों से ज़्यादा काम नहीं किया. 1948 से लेकर 1961 के 13 बरसों में उनकी 31 फ़िल्में आईं. दिलीप कुमार को 8 बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर सम्मान मिला लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि उन्हें एक बार भी राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला. दादा साहेब फाल्के सम्मान के अलावा पाकिस्तान के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय नागरिक सम्मान निशाने इम्तियाज़ से भी सम्मानित हुए. निशाने इम्तियाज़ को स्वीकार करने के लिए उनकी आलोचना भी हुई थी और हिंदुत्ववादियों ने उनको निशाना बनाया था.
दिलीप कुमार ने सबसे ज़्यादा फ़िल्में नरगिस और वैजयन्ती माला के साथ की थीं. उनका नाम शुरुआत में क़ामिनी कौशल के साथ भी जुड़ा, लेकिन मधुबाला के साथ उनकी मुहब्बत को हिंदी सिनेमा के बेहद रोमांटिक क़िस्सों में एक महाकाव्यात्मक प्रेम कहानी का दर्जा हासिल है. जो दिलीप कुमार की ही किसी फ़िल्मी त्रासदी की ही तरह असल ज़िंदगी में मुकम्मल न हो सकी. नया दौर फिल्म को लेकर क़ानूनी विवाद के सिलसिले में दिलीप कुमार ने भरी अदालत में अपनी गवाही के दौरान मधुबाला से मुहब्बत का सरेआम इक़रार किया था.
मुग़ल-ए-आज़म का सलीम हमेशा अमर रहेगा
मुग़ल-ए-आज़म का एक-एक सीन यादगार है. सलीम अनारकली के प्रेम दृश्य तो ख़ैर अमर हैं ही, लेकिन जहां अनारकली को लेकर शहंशाह अकबर और शहज़ादे सलीम का टकराव हुआ है, वे सारे दृश्य भी अपनेआप में बेमिसाल हैं. बाप-बेटे के टकराव का चरम जंग के मैदान में होता है, लेकिन उससे पहले जब अकबर सलीम को समझाने और उससे मिलने उसके खेमे में जाते हैं और पिता पुत्र के साथ सम्राट और बाग़ी शहज़ादे के दोहरे किरदार में जो बातचीत होती है, उस सीन में दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर के बीच का टकराव शानदार अभिनय की एक यादगार मिसाल है. उस सीन में एक जगह शहजादे सलीम बने दिलीप कुमार अकबर यानि पृथ्वीराज कपूर पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं- शहंशाह बाप का भेस बदल कर बोल रहा है.
जो लोग फ़िल्में ग़ौर से देखते हैं उन्हें शायद याद आ जाए कि यही संवाद मुग़ले आज़म के बरसों बाद अमिताभ बच्चन की फ़िल्म दीवार में दोहराया गया, शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के बीच एक तनावपूर्ण दृश्य में. बस थोड़े से फ़र्क़ के साथ. शहंशाह की जगह मुजरिम और बाप की जगह भाई, क्योंकि यह संवाद दीवार में इंस्पेक्टर बने शशि कपूर अपने स्मगलर भाई अमिताभ बच्चन से कहते हैं. टकराव वाले अलग-अलग रास्तों पर चल रहे दोनों भाई उसी पुल के नीचे मिलते हैं जहां दोनों ने अपना अभावग्रस्त बचपन एक साथ गुज़ारा था.
खैर, बात फिल्म मुग़ले आज़म में बाप और बेटे के टकराव वाले दृश्य के बहाने दिलीप कुमार की हो रही थी. बातचीत में तनाव इस हद तक बढ़ जाता है कि सलीम अपने पिता के ख़िलाफ़ तलवार निकाल लेता है. पिता जो कि मुल्क का शहंशाह भी है, बादशाही अकड़ से सीना तानता है लेकिन उसी सेकेंड के सौंवे हिस्से में कमज़ोर बाप का कंधा झुकता है, आंखों में अविश्वास सा कौंधता है और हल्की सी व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ मुग़ले आज़म बने पृथ्वीराज कपूर सलीम बने दिलीप कुमार से कहते हैं- शेखू, क्या इसी दिन के लिए मांगा था तुम्हें?
दिलीप कुमार एक संस्थान हैं
झुंझलाया सलीम तलवार फेंक देता है. ग़ुस्सा, शर्मिंदगी, झुंझलाहट, पराजय- ये सारे मिलेजुले भाव दिलीप कुमार के चेहरे पर तेज़ी से आते हैं. दिलीप कुमार तो ख़ैर दिलीप कुमार हैं, लेकिन इस सीन में पृथ्वीराज कपूर ने अद्वितीय अभिनय किया है. अब मुग़ले आज़म के बरसों बाद बनी शक्ति का एक सीन याद करिए जहां दिलीप कुमार सख़्त अनुशासनप्रिय पिता की भूमिका में हैं और अमिताभ बच्चन उनके बाग़ी बेटे बने हैं. पिता पुलिस अफ़सर है, बेटा स्मगलर. स्मगलर के ठिकाने पर पुलिस धावा बोलती है और बेटे की पिस्तौल पिता की तरफ़ तनी नज़र आती है. बाप-बेटे की आंखें मिलती हैं और एक बार फिर बेटा हथियार फेंक देता है.
सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन की अदाकारी पर दिलीप कुमार का असर साफ दिखता है, ख़ास तौर पर ट्रेजेडी के दृश्यों में. उनकी फिल्म दीवार में दिलीप कुमार की गंगा जमुना का अक्स देखा जा सकता है. दिलीप कुमार के प्रति अपनी श्रद्धांजलि में उन्होंने कहा भी था कि वे एक संस्थान थे. एक संस्थान के रूप में दिलीप कुमार की अभिनय परंपरा के विस्तार का सिलसिला रूप बदल-बदल कर जारी रहेगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ऑर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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