देश की भलाई के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने वाले नरसिंह राव को कांग्रेस ने क्यों नहीं दिया सम्मान

हाल ही में देश का विदेशी मुद्रा भंडार 600 अरब डालर (लगभग 444 खरब रुपये) के पार पहुंच गया है।

Update: 2021-06-21 07:39 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | ब्रजबिहारी। हाल ही में देश का विदेशी मुद्रा भंडार 600 अरब डालर (लगभग 444 खरब रुपये) के पार पहुंच गया है। यह हमारी डेढ़ साल की आयात जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। अब हम विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में रूस से आगे निकलते हुए चौथे नंबर पर पहुंच गए हैं। लगभग 3400 अरब डालर के विदेशी मुद्रा भंडार के साथ चीन पहले नंबर पर है। उसके बाद जापान और स्विट्जरलैंड का नंबर आता है। संयोग देखिए कि इसी जून के महीने में ठीक 30 साल पहले देश का विदेशी मुद्रा भंडार रसातल में पहुंच गया था। तब हमारे पास महज 2500 करोड़ रुपये का विदेशी मुद्रा भंडार रह गया था, जो तीन महीने के आयात बिल को पूरा करने के लायक भी नहीं था। महंगाई आसमान छू रही थी और देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया था।

ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में 21 जून, 1991 को पीवी नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इसके एक दिन पहले जब वे तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण के सामने सरकार बनाने का दावा पेश कर लौट रहे थे तो उनके पास कैबिनेट सेक्रेटरी नरेश चंद्रा का फोन आया कि वे तत्काल मिलना चाहते हैं। यह नए प्रधानमंत्री और कैबिनेट सचिव की परंपरागत मीटिंग नहीं थी, बल्कि इन दोनों की डेढ़ घंटे की मुलाकात में देश की किस्मत बदलने वाले फैसले किए गए। तय किया गया कि देश को वित्तीय संकट से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के साथ समझौता किया जाएगा। आइएमएफ हमें लोन देगा और बदले में हमें आर्थिक सुधार करते हुए उदारीकरण का मार्ग प्रशस्त करना होगा।

सबसे पहले डालर के मुकाबले रुपये में अवमूल्यन किया गया। पहला अवमूल्यन नौ फीसद का था, जिसकी घोषणा 30 जून, 1991 को की गई। इसके बाद अगले साल जुलाई में रुपये में 11. 83 फीसद का अवमूल्यन किया गया। अवमूल्यन के कारण हमारा निर्यात पहले से सस्ता हो गया और इसके जरिये विदेशी मुद्रा अर्जति करने में मदद मिली। अवमूल्यन के कारण आयात महंगा हो गया और इससे विदेशी मुद्रा की बचत हुई। तत्कालीन वाणिज्य मंत्री पी चिदंबरम ने नई व्यापार नीति की घोषणा की जिसके तहत निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय अमल में लाए गए। देश का खजाना भरने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई में पेश किए गए अपने पहले बजट में पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की कीमतों में 26 फीसद की बढ़ोतरी की घोषणा की, जिससे सरकार को 2500 करोड़ रुपये से ज्यादा का राजस्व प्राप्त हुआ।
आर्थिक उदारीकरण के नरसिंह राव के इस फैसले का कांग्रेस में खूब विरोध हुआ, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बताए समाजवादी माडल से अलग होकर अगर राव ने यह नया रास्ता नहीं चुना होता तो देश को इसके भयंकर दुष्परिणाम ङोलने पड़े होते। आज 30 साल के बाद हम देख सकते हैं कि देश आर्थिक रूप से कितना मजबूत हो गया है। इस बढ़ती आर्थिक ताकत के कारण अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भी हमारा दबदबा बढ़ा है। अब हमें बड़े देशों की जितनी जरूरत है उससे कहीं ज्यादा उन्हें हमारी आवश्यकता है। इन उपलब्धियों के लिए यह देश नरसिंह राव का हमेशा ऋणी रहेगा, लेकिन कांग्रेस ने कभी इस महान नेता को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वह हकदार थे। वर्ष 2004 में उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार तक नहीं होने दिया गया। पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर रहने वाले राव के पाíथव शरीर को 24 अकबर रोड स्थित पार्टी मुख्यालय तक में नहीं रखने दिया गया। उनका अंतिम संस्कार हैदराबाद में किया गया। सोनिया गांधी ने वहां जाने की जरूरत नहीं समझी।
सबसे ज्यादा दुख तो इस बात से होता है कि नरसिंह राव ने जिस मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधारों को लागू के लिए खुली छूट दी और इस वजह से उन पर होने वाले राजनीतिक हमलों से उनका बचाव किया, उन्हीं मनमोहन सिंह ने वर्ष 2012 में 28 जून को राव की 91वीं जयंती के कार्यक्रम में आने से इन्कार कर दिया था। इस अवसर पर आंध्र के कुछ नेताओं ने आंध्र भवन में एक कार्यक्रम रखा था, जिसमें मनमोहन सिंह मुख्य वक्ता थे, लेकिन वह नहीं आए। जाहिर है, उन्हें इसके लिए उन्हें 10, जनपथ से अनुमति नहीं मिली होगी।
नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेताओं की कांग्रेस में अनदेखी कोई नई बात नहीं है। पूरा देश पार्टी के इस रवैये से परिचित है। यह नेहरू के जमाने से चला आ रहा है। तब उनके सामने सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे कद्दावर नेताओं की कोई हैसियत नहीं समझी गई। दरअसल नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेताओं को तवज्जो नहीं दिए जाने के कारण ही एक-एक करके बड़े नेता पार्टी से निकलते गए और अपनी पार्टी बनाकर राजनीति में जमे रहे। शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी तक कई मिसालें मौजूद हैं। आज ऐसे नेताओं की पार्टियों की देश के कई राज्यों में सरकारें हैं, लेकिन वंशवादी कांग्रेस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उसके अनुसार तो नेता बनते नहीं, बल्कि पैदा होते हैं।


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