राजनेताओं को क्यों चुनाव से पहले गोत्र याद आने लगा है, क्या देश अब सेक्युलर राजनीति से ऊपर उठ रहा है?
हिन्दू धर्म अब राष्ट्रीय स्वरूप हो गया है
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को ठीक चुनाव के बीच अपना गोत्र याद आ गया है. पिछले चुनावों में राहुल गाँधी (Rahul Gandhi) की पार्टी को उनका गोत्र याद आ गया था. केजरीवाल ने चुनावों के बीच हनुमान जी का सहारा लिया था. अब सभी नेताओं को सभी त्योहार जनता के बीच मनाने का मन कर रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है? जवाब सीधा है और वो यह है कि भारत की राजनीति में धर्म की बात करना और संस्कृति से जुड़े मुद्दे राजनीति में अब रूढ़िवादी नहीं माने जाते हैं. ये भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव है. पहले ये चीज़ें करना सेक्युलर राजनीति के खिलाफ माना जाता था.
अब यह भारतीय संस्कृति से जुड़ी एक अभिव्यक्ति मानी जाती है. आज़ादी के बाद नेहरू ने आपत्ति व्यक्त की थी कि सोमनाथ मंदिर से जुड़े प्रोजेक्ट में कांग्रेसियों की कोई भागीदारी नहीं होनी चाहिये और हो भी तो उसमें केवल निजी चंदा इस्तेमाल हो. मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल और मुंशी जैसे कई नेता इस सोच के खिलाफ थे. मंदिर का जीणोद्धार हुआ लेकिन नेहरू इस काम से नहीं जुड़े. लेकिन अब ऐसा नहीं होता है, राम मंदिर निर्माण के लिए राष्ट्रपति कोविंद ने निजी धनराशि भी दी और उसको लेकर कोई सवाल भी नहीं उठा. प्रधानमंत्री मोदी खुद मंदिर पहुंचे और बकायदा पूजा की.
हिन्दू धर्म अब राष्ट्रीय स्वरूप हो गया है
इससे साफ होता है कि देश में सेक्युलर राजनीति की परिभाषा बदल गयी है. हिन्दू धर्म की राजनीतिक अभिव्यक्ति को अब गलत नहीं माना जाता है. फ्रेंच सेक्युलरिज्म को अब देश के लोग रोल मॉडल नहीं मानते हैं. यही कारण है कि पार्टी कोई भी हो लेकिन अब वो हिन्दू भावना को नज़र अंदाज़ नहीं करती है. इसका एक और कारण है, पहले हिन्दू धर्म और त्योहारों के प्रांतीय रूप ज़्यादा होते थे. लेकिन अब हिन्दू धर्म एक राष्ट्रीय स्वरूप हो गया है जो शहरीकरण के कारण पूरे देश में फैल गया है. इसे चाहे तो आप हिन्दू अस्मिता कह लें या राजनीति में हिन्दू धर्म से जुड़े प्रतीक. इसपर किसी को कोई भी आपत्ति नहीं है. आपत्ति केवल तब है जब हिन्दू धर्म का टकराव किसी और धर्म से हो जाता है.
हिन्दू धर्म को राष्ट्रीय स्वरूप इंदिरा गाँधी ने दिया था
लेकिन ये कहना कि इसकी शुरुआत मोदी ने की तो ये सरासर गलत होगा. इसकी शुरुआत इंदिरा गाँधी ने की थी जब उन्होंने खुल कर पब्लिक रैलियों से पहले मंदिर जाना शुरू कर दिया था. तब योग गुरुओं से लेकर बाबाओं से उनकी मुलाक़ात टीवी पर दिखाई जाने लगी थी और वो मोटी रुद्राक्ष की माला पहन कर लोगों से मिलती थीं. इस परम्परा को आगे राजीव गाँधी ने बढ़ाया था, जब पहली बार रामायण और महाभारत के सीरियल दूरदर्शन में चले तो इन दोनों धर्म ग्रंथों ने स्थानीय हिन्दू प्रतीकों को पीछे कर राष्ट्रीय हिन्दू धर्म की नयी कल्पना गढ़ दी. यही कारण है की राम मंदिर को एक मंदिर होने एक अलावा भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जीत भी माना जाने लगा है.
इसलिए नेताओं को चुनावों में मंदिर और गोत्र याद आ रहे हैं. हिंदुस्तान ना केवल धार्मिक देश है बल्कि घनघोर राष्ट्रवादी देश भी है. बीजेपी ने इन दोनों भावनाओं को दोबारा मिला दिया है. इससे पहले ये केवल इंदिरा गाँधी कर पायी थीं. तभी सबसे पहले एक मुश्त हिन्दू वोट इंदिरा की हत्या के बाद 1984 में राजीव गाँधी को मिला था और 2014 में दोबारा एक मुश्त हिन्दू वोट नरेंद्र मोदी को मिला जो मुसलमान केंद्रित राजनीति के खिलाफ था. इसलिए देश के बदले मिजाज़ को देखते हुए नेताओं के हाव भाव भी बदल गए हैं.