ख़ाकी वर्दी में छुपा ये गुंडा आखिर कौन है?
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे जस्टिस ए. एन.मुल्ला ने अपने एक फैसले में पुलिस के लिए लिखा था
नरेन्द्र भल्ला
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे जस्टिस ए. एन.मुल्ला ने अपने एक फैसले में पुलिस के लिए लिखा था- "ये वर्दी में छिपा अपराधियों का संगठित गिरोह है, जिस पर लगाम कसने के लिए देश की न्यायपालिका को और भी सख्त होने की जरुरत है." बरसों बाद मध्य प्रदेश की पुलिस ने अपनी शर्मनाक करतूत से ये सच साबित कर दिखाया है कि खाकी वर्दी का चेहरा आज भी वैसा ही है.
प्रदेश के सीधी जिले की पुलिस ने थाने में पत्रकारों के कपड़े उतरवाकर उनके साथ जो सलूक किया है, वह सिर्फ लोकतंत्र को शर्मसार वाली घटना ही नहीं है, बल्कि इससे ये भी जाहिर होता है कि अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए पुलिसवाले किस हद तक जा सकते हैं. पुलिस के इस भयावह बर्ताव की घटना मीडिया की सुर्खियां बनने और देश के तमाम पत्रकार संगठनों द्वारा इसकी तीखी निंदा किये जाने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी सरकार की इज्जत बचाने के लिए भले ही कुछ पुलिसकर्मियों को निलंबित करने की लीपापोती की है. हालांकि सवाल ये है कि संविधान या आईपीसी की किस किताब में लिखा है कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को थाने लाकर सिवाय अंडर वियर के उसे सारे कपड़े उतारने पर मजबूर किया जाए?
पिछले हफ्ते पत्रकारों की गिरफ्तारी और उनके कपड़े उतरवाने की इस घटना पर प्रदेश की पुलिस ने अपनी सफाई में कहा है कि ऐसा प्रोटोकॉल के तहत किया गया, ताकि वे थाने में कहीं आत्महत्या न कर लें. ये कितनी मूर्खतापूर्ण और बेतुकी दलील है जिस पर मामूली जुर्म करके अक्सर गिरफ्तार होने वाले छोटे अपराधी भी हंस रहे होंगे.
क्योंकि वे भी जानते हैं कि किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को थाने में बने लॉकअप में बंद करने से पहले उसकी जामा तलाशी ली जाती है, जिसमें बेल्ट से लेकर बालों की कंघी,अंगूठी, गले की चैन से लेकर हर वस्तु पुलिस अपने कब्जे में ले लेती है. इसलिये कि व्यक्ति खुद को चोट पहुंचाने के लिए किसी भी वस्तु का इस्तेमाल हथियार के बतौर न कर सके. ये देश का पहला व अजूबा ऐसा मामला है, जहां करीब दर्जन भर पत्रकारों और रंगकर्म के कलाकारों को लॉकअप में भेजने से पहले उन्हें नंगा किया गया, पिटाई की गई और फिर उनकी अर्ध नग्न तस्वीरें लेकर पुलिस ने खुद ही उसे सोशल मीडिया पर वायरल किया.
बेशक शांति भंग करने के आरोप में पुलिस को कानून के तहत ऐसे किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार है, लेकिन उन्हें नंगा करने और सोशल मीडिया के जरिये उसे बदनाम करने का अधिकार उन्हें किसी ने नहीं दिया? अब गिरफ्तारी उन पुलिसकर्मियों की होनी चाहिए, जो इस घटना में शामिल थे, ताकि बाकी पुलिसवालों को इससे सबक मिल सके.
सच तो ये है कि बात किसी प्रदेश की हो या फिर देश की, पांच साल बाद सत्ता में तो बदले हुए चेहरे देखने को मिल जाते हैं, लेकिन खाकी वर्दी के पहरेदार वही रहते हैं. कोई भी सरकार पुलिस का चेहरा 'मानवीय' बनाने के लाख दावे कर ले, लेकिन इसकी हक़ीक़त तो वही जानता है, जिसका कभी पुलिस से पाला पड़ा हो.
ख़ाकी का इतना खौफ़ है कि महानगरों तक में आज भी कोई इंसान अपनी किसी समस्या को लेकर भी थाने जाने से डरता है. जरा सोचिये कि छोटे शहरों व कस्बों में क्या हालत होगी? उससे भी ज्यादा चिंता की बात तो ये है कि एक छोटे शहर में जब पत्रकारों के साथ ऐसा हो सकता है, तब आम इंसान के साथ क्या होता होगा, जो अपनी आवाज कहीं उठा पाने की ताकत भी नहीं रखता.
संपादकों के संगठन एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (Editors Guild of India) ने मध्य प्रदेश और ओडिशा में पत्रकारों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई की घटनाओं को बेहद परेशान करने वाल बताया है. गिल्ड ने एक बयान जारी करके लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रेस की स्वतंत्रता का सम्मान करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से सभी कानून प्रवर्तन एजेंसियों को कड़े निर्देश जारी करने का आग्रह भी किया है. राज्य की शक्तियों का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जरूरत बताते हुए मंत्रालय से दोनों घटनाओं पर तत्काल संज्ञान लेने की मांग की गई है.
मीडिया बिरादरी भी जानती है कि ऐसी घटना का ज्यादा विरोध होने के बाद दो -चार पुलिस वालों के खिलाफ मामूली कार्रवाई करके पूरे मामले को ठंडा कर दिया जाता है. सच तो ये है कि लोकतंत्र का कोई भी हुक्मरान कभी नहीं चाहता कि उसके कुर्सी पर रहते हुए मीडिया ताकतवर बन जाये और जब वह ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसकी आवाज़ दबाने और सबक सिखाने के लिए पहले भी खाकी वर्दी का इस्तेमाल होता रहा है और आगे भी होता रहेगा. हर दौर में निष्पक्ष रहने वाले मीडिया का एकमात्र मूल मंत्र फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ये नज़्म ही रही है-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले.