मन के किसी कोने से शब्द उमड़ते हैं तब लगता है कि जैसे खुद सरस्वती हमसे लिखवा रही हैं
ओपिनियन
रश्मि बंसल का कॉलम:
आजकल हर गली-नुक्कड़ में कैफे खुल गया है। यहां तरह-तरह की चाय-कॉफी पीने वालों और गपशप करने वालों की भारी भीड़ रहती है। वैसे हर दूसरी टेबल पर ऐसे लोग भी दिखते हैं, जो अपने कम्प्यूटर में मगन हैं। काम की गरमा-गरमी में उनकी कॉफी ठंडी हो चुकी हैं, मगर उंगलियां की-बोर्ड पर थिरक रही हैं- ता थैया ता थैया हो...
मैं भी इन लोगों की गिनती में अकसर रहती हूं। हालांकि घर पर बढ़िया चाय-कॉफी उपलब्ध है, फिर दो-ढाई सौ रुपए खर्च करके, बाहर बैठने का क्या आकर्षण है? बस, लेखक का काम ही कुछ ऐसा है। अकेलापन जब काटता है तो दिल ढूंढता है दुनिया से कुछ कनेक्शन। लेकिन कुछ ऐसा जो पास भी, दूर भी। इसलिए कान में हेडफोन जरूर होता है।
खैर, पते की बात ये है कि व्यस्त दिखने वाला इंसान अकसर टाइमपास में ही उलझ जाता है। कभी ईमेल चेक कर रहा है, कभी फोन के मैसेज। दस मिनट का ब्रेक एक घंटे का कब हो गया, पता ही नहीं चला। जब कोई डंडे लगाने वाला नहीं तो डांडी मारने का मौका हम छोड़ते नहीं।
इसी समस्या में एक बिजनेसमैन ने अपना फायदा देखा और टोक्यो में एक ऐसी कैफे खोली है, जहां सिर्फ लेखक ही अलॉउड हैं। आपको प्रवेशद्वार पर बताना होगा कि आज मेरा राइटिंग-गोल क्या है- 500 शब्द, 1000 शब्द, इत्यादि। शर्त ये है कि इस लक्ष्य को हासिल किए बिना आप कैफे से निकलेंगे नहीं।
अब आप सोच रहे होंगे, क्या इधर सोने का भी इंतजाम है? काम कम्प्लीट नहीं हुआ तो और क्या चारा है... लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि आज तक ऐसी कोई जरूरत पड़ी नहीं। ज्यादातर लोगों का यह कहना था कि जिस काम के लिए उन्होंने तीन घंटे का समय रखा था, वो इस माहौल में एक घंटे के अंदर सम्पूर्ण हो गया।
तो इस कमाल के पीछे क्या है? एक तो डेडलाइन, यानी कि काम समाप्त करने का प्रेशर। मनमौजी रचनात्मक दिमाग वाले जिससे कतराते हैं। वो चाहते हैं कि बैठे-बैठे उनको कोई ऐसा अद्भुत आइडिया आएगा, जो आज तक किसी ने सोचा ही नहीं होगा। मन झूम उठेगा, कलम खुद-ब-खुद चलेगी। बस, उस पल का इंतजार है।
मगर अनुभव की बात ये है कि वो पल तभी आता है, जब मैं लक्ष्य की तरफ ध्यान देती हूं। इसे कहते हैं- लॉ ऑफ अट्रैक्शन। कई बार आलस आता है, और शंका भी, कि मेरे पास कुछ लिखने को है भी? फिर लैपटॉप के सामने बैठती हूं और यूनिवर्स को कहती हूं, कोई अच्छा आइडिया दो। कुछ क्षण सन्नाटा। कोई आइडिया आता नहीं। फिर चाहे बेमन से, लिखना शुरू करती हूं।
और मन के किसी रहस्यमय कोने से शब्द उमड़ते हैं। ऐसा लगता है कि खुद सरस्वती मां डिक्टेशन दे रही हैं। अपार ज्ञान के सागर से लोटा भर पानी लेकर मैं पाठकों की प्यास बुझा रही हूं। तो चाहे टाइप मैं कर रही हूं, पर मैं सिर्फ एक मैसेंजर हूं। जिसके माध्यम से आपको संदेश मिल रहा है।
ऐसे समय पर लेखक को ना समय की सुध-बुध रहती है, ना भूख या प्यास। इसे कहा जाता है फ्लो स्टेट यानी कि बहते हुए पानी की तरह मनोस्थिति। ऋषिकेश में गंगाजी का प्रवाह इतना तेज होता है कि अगर आप नदी में कूदते हो तो स्वाभाविक और सरल रूप से आप नदी के साथ बहते चलोगे। कोई भी रचनात्मक कार्य करने के पीछे यही राज है।
रोजमर्रा की जिंदगी में भी इसकी झलक आपको मिल सकती है। एक दिन खाना बहुत स्वादिष्ट बना। कैसे? क्योंकि आपने विधि से हटकर कुछ इस तरह बनाया, जैसे किसी हायर पावर ने आपको गाइड किया। ये तब पॉसिबल होता है, जब आप अहंकार-भावना त्याग दें कि करता तो मैं हूं। क्योंकि आप हैं भी, और नहीं भी।
आइए, एक प्रयोग करते हैं, जिसे कहते हैं- फ्री राइटिंग। आप कलम लीजिए, या फिर की-बोर्ड और दस मिनट का समय। पहला शब्द लिखिए, फिर दूसरा और लिखते जाइए। बिना रोकटोक, बिना डिलीट बटन दबाए। चाहे ग्रामर-स्पेलिंग गलत हो, चिंता ना करें। आपका लक्ष्य है- टु बी इन फ्लो। इन दस मिनट में आपके अंदर से क्या निकला, आपको कैसी फीलिंग आई? मुझे ईमेल कीजिए।
सरस्वती मां के आशीर्वाद से कुछ भी मुमकिन है!
एक प्रयोग करें- फ्री राइटिंग। कलम लीजिए, और 10 मिनट का समय। फिर लिखते जाइए। बिना रोकटोक, बिना डिलीट बटन दबाए। चाहे ग्रामर-स्पेलिंग गलत हो, चिंता न करें। लक्ष्य है- टु बी इन फ्लो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)