जब गांधी को गंदगी परेशान और विचलित कर रही थी...

तारीख थी 6 फरवरी, साल 1916. जगह वाराणसी और मौका था, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का. मंच पर कांग्रेस नेता एनी बेसेंट

Update: 2021-10-02 11:26 GMT

तारीख थी 6 फरवरी, साल 1916. जगह वाराणसी और मौका था, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का. मंच पर कांग्रेस नेता एनी बेसेंट, पंडित मदन मोहन मालवीय और दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह सहित बड़ी संख्या में राजा-महाराजा और प्रबुद्ध लोग बैठे थे. 47 साल के मोहनदास करमचंद गांधी भाषण देने के लिए खड़े हुए. सब लोग उम्मीद कर रहे थे कि लंदन में उच्च शिक्षा हासिल कर चुके मोहनदास, मालवीय की ड्रीम यूनिवर्सिटी पर बड़ी-बड़ी बातें करेंगे. पर गांधी ने अपने भाषण की शुरुआत में ही शहर और धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी की बात छेड़ दी. बेहद दुखी मन से गांधी कहते हैं-


'कल मैं बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए गया था. जिन गलियों से मैं जा रहा था, उन्हें देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि अगर कोई अजनबी इस महान मंदिर में अचानक आ जाए, तो हिंदुओं के बारे में वो क्या सोचेगा. अगर वो हमारी निंदा करेगा, तो क्या वो गलत होगा? इस मंदिर की जो हालत है, क्या वो हमारे चरित्र को नहीं दिखा रही?'

करीब 100 साल पहले महात्मा गांधी का दिया गया ये भाषण भारत में उनका पहला सार्वजनिक भाषण था. उन्होंने क्या जिक्र किया था, गंदगी का. हिन्दुओं के सबसे पवित्र तीर्थ स्थानों में से एक बनारस का. शिव की नगरी काशी का. मोक्ष की धरती काशी का. जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति की धरती का.

मोहनदास करमचंद गांधी आखिर ऐसी बातें क्यों कर रहे थे? गांधी धार्मिक किस्म के व्यक्ति थे- तो क्या काशी की गंदगी को देखकर गांधी की धार्मिक भावना जाग उठी थी? या फिर यूरोप और दक्षिण अफ्रीका की साफ-सफाई की संस्कृति से प्रभावित होने की वजह से सवाल उठा रहे थे? मोहनदास करमचंद गांधी अभी महात्मा नहीं हुए थे. मोहनदास बीएचयू की स्थापना के मौके पर आगे कहते हैं-

'मैं ये बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूं. क्या ये कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मंदिर के आसपास की गलियां इतनी गंदी हों? उसके आस-पास जो घर बने हुए हैं, वे चाहे जैसे तैसे बने हों, गलियां टेढ़ी-मेढी और संकरी हों, अगर हमारे मंदिर भी सादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज्य कैसा होगा? अगर अंग्रेज़ यहां से बोरिया बिस्तर बांध के चले भी गए, तो क्या हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता और शांति के धाम बन जाएंगे.'

गांधी जिस मंच से सफाई का संदेश दे रहे थे, उस मंच पर कांग्रेस के बड़े नेताओं के अलावा वे राजा-महाराजा मौजूद थे, जिनकी मदद से बीएचयू को बनाया जा रहा था. गांधी बिना लाग-लपेट के जो कुछ बोल रहे थे, उसे अब सुन पाना मेहमानों के लिए मुश्किल हो रहा था. गांधी मंच पर आने से पहले ही ये कहकर खिंचाई कर चुके थे कि ऐसा लग रहा है कि वह अंग्रेजों के किसी कार्यक्रम में शामिल हो रहे हों. गांधी शान-ओ-शौकत की नुमाइश करने वाले राजा-महाराजाओं पर बरस रहे थे.


गांधी अभी बोल ही रहे थे कि बीएचयू के सर्वे-सर्वा मदन मोहन मालवीय और ऐनी बेसेंट ने उन्हें रोकने की कोशिश की. महात्मा गांधी की गंदगी और साफ-सफाई की बातों को सुन कर राजे-महाराजे वहां से निकल गए. इतना ही नहीं दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने सभा को ही तुरंत बर्खास्त कर दिया.


महात्मा गांधी को 1916 में ही नहीं, 1903 से ही काशी की गंदगी परेशान कर रही थी. मोहनदास करमचंद गांधी लंदन से पढ़ाई करने के बाद दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने लगे थे. वकालत करते हुए ही वो अश्वेतों के अधिकार की लड़ाई में जुट गए थे. रंगभेद के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के बाद मोहनदास करमचंद गांधी 1903 में पहली बार वाराणसी आए थे. गांधी जी काशी के विश्वनाथ मंदिर में पूजा के लिए निकले, पर यहां जो कुछ उन्होंने देखा, उससे उनका मन बेहद दुखी हो गया. चारों तरफ मक्खियों का झुंड, दुकानदारों और तीर्थयात्रियों का शोर शराबा, ये सब उन्हें नागवार गुज़रा. महात्मा गांधी अपनी डायरी में लिखते हैं-


'जिस जगह पर लोग ध्यान और शांति के माहौल की उम्मीद करते हैं, वहां यह बिल्कुल नदारद है. मंदिर पहुंचने पर मेरा सामना सड़े हुए फूलों की दुर्गंध से हुआ. मैंने देखा कि लोगों ने सिक्कों को अपनी भक्ति का ज़रिया बनाया हुआ है, जिसकी वजह से न केवल संगमरमर के फर्श में दरारें दिखने लगी हैं, बल्कि इन सिक्कों पर धूल के जमने से वहां काफी गंदगी भी दिख रही थी. ईश्वर की तलाश में, मैं मंदिर के पूरे परिसर में भटकता रहा, मगर मुझे धूल और गंदगी के सिवाय कुछ नहीं दिखा.'


महात्मा गांधी 1903 के बाद 1916 में वाराणसी आए. देश बदल चुका था. गांधी दक्षिण अफ्रीका को छोड़ भारत आने का फैसला कर चुके थे, पर नहीं बदली तो काशी. नहीं बदला मोक्ष देने वाला शहर. पर ये हाल क्या सिर्फ बनारस का था?


गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती की त्रिवेणी का शहर इलाहाबाद. कुंभ नगरी प्रयागराज. विद्या की देवी सरस्वती का शहर इलाहाबाद. मुगल बादशाहों और अंग्रेजों की पसंद का शहर इलाहाबाद. पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर सेंट्रल यूनिवर्सिटी का शहर.


तारीख 17 नवंबर, साल 1929. महात्मा गांधी तब के इलाहाबाद में एक अभिनंदन समारोह में शामिल होने आए थे. नगरपालिका और ज़िला बोर्ड की तरफ से चंदे की थैली भेंट की जानी थी. कार्यक्रम में मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी कहते हैं-


'मुझे ये जानकर बड़ा धक्का लगा है कि हरिद्वार की तरह प्रयाग की पवित्र नदियां भी नगरपालिका के गंदे नालों के पानी से अपवित्र की जा रही हैं. इस खबर से मुझे काफी दुख हुआ है. इस प्रकार ज़िला बोर्ड पवित्र नदियों के पानी को गंदा ही नहीं करता बल्कि हज़ारों रुपया नदी में फेंकता है. नालियों के पानी का सही उपयोग किया जा सकता है पर मुझे आश्चर्य होता है कि ज़िला बोर्ड ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है.'


महात्मा गांधी 1903 से लगातार पूरे देश सहित उत्तर प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे. वो जहां कहीं जाते स्वच्छता का मुद्दा उठाते. वाराणसी में गांधी ने गंदगी का सवाल उठाया. प्रयाग गए तो संगम नगरी की गंदगी को देखकर गांधी परेशान हुए. क्या अब गंगा किनारे हरिद्वार का तजुर्बा भी गांधी के लिए इतना ही बुरा रहने वाला था?


तारीख थी 31 अक्टूबर और साल 1929. यंग इंडिया में महात्मा गांधी लिखते हैं- 'इसमें कोई शक नहीं है कि हरिद्वार और दूसरे जाने-माने तीर्थस्थान एक समय सचमुच पवित्र थे. धर्म के प्रति मेरे मन में सहज प्रेम है और मैं प्राचीन संस्थाओं का हमेशा आदर करता हूं लेकिन फिर भी इन तीर्थस्थानों में आदमी की बनाई किसी भी चीज़ में मुझे कोई आकर्षण दिखलाई नहीं दिया.'

महात्मा गांधी 1929 में पहली बार नहीं दूसरी बार आए थे हरिद्वार. पहली बार वो 1915 में हरिद्वार आए थे, जब महाकुंभ लगा था. गांधी जी के यंग इंडिया में लिखे लेख से पता चलता है कि तीर्थस्थानों को लेकर गांधी जी की जो कल्पना थी, वैसा कुछ भी हरिद्वार में नहीं था. धार्मिक स्वभाव के गांधी को धर्म नगरी घूमते हुए झटका लग रहा था. महात्मा गांधी लिखते हैं-

'पहली बार जब सन 1915 में मैं हरिद्वार गया था, तब मैं वहां सर्वेंट ऑफ इंडिया सोसाइटी के अध्यक्ष पंडित हृदयनाथ कुंजरू के अधीन एक स्वयंसेवक की तरह गया था. मैं बड़ी-बड़ी आशाएं लगाकर और बड़ी श्रद्धा के साथ हरिद्वार गया था, लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत शिखरों ने मुझे मोह लिया, दूसरी ओर इस पवित्र स्थान पर मनुष्य के कामों से मेरे हृदय को कुछ भी प्रेरणा नहीं मिली. पहले की तरह आज भी धर्म के नाम पर गंगा मैली की जाती है. अज्ञानी और विवेकशून्य स्त्री-पुरुष गंगातट पर जहां ईश्वर दर्शन के लिए ध्यान लगा कर बैठना चाहिए, वहां पाखाना, पेशाब करते हैं. इन लोगों का ऐसा करना प्रकृति, आरोग्य और धर्म के नियमों का उल्लंघन करना है.'

महात्मा गांधी आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ स्वच्छता को अभियान के रूप में लेकर चलने की कोशिश कर रहे थे. गांधी जहां कहीं जाते, उन्हें गंदगी परेशान करती. पर धार्मिक स्थलों की गंदगी उन्हें विचलित कर देती थी. गांधी यंग इंडिया में एक बार फिर लिखते हैं-

'धर्म के नाम पर जान बूझ कर भी गंगा को गंदा किया जाता है. विधिवत पूजा कराने के लिए मुझे हरिद्वार के गंगातट पर ले जाया गया. जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं, उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरह चीजें इस विश्वास में डाली गईं कि ये एक पुण्य काम है. मैंने इसका विरोध किया तो जवाब मिला कि ये तो युगों से चली आ रही एक सनातन प्रथा है. इस सबके अलावा मैंने ये भी सुना है कि शहर की गंदी नालियों का गंदा पानी भी आकर नदी में मिलता है, वह एक बड़ा अपराध है.'

गांधी जिसे अपराध बता रहे थे, वह अपराध बदस्तूर जारी रहा. लोग धर्म के नाम पर अपनी नदियों और सरोवरों को प्रदूषित करते रहे. गांधी ने जिस स्वच्छता को सौ साल पहले अभियान बनाने की कोशिश की, उसे प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी आगे बढ़ाने की मुहिम चला रहे हैं. देश भर में गंदगी के खिलाफ जन जागरण चल रहा है. पर सरकार का ये अभियान तभी कामयाब होगा, जब ये जनता का अभियान बनेगा और इसका पूरी तरह से जनता का अभियान बनना अभी बाक़ी है.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
मनोज मलयानिल, Sr Editor,Bihar,Jharkhand
25 years of experience in radio, newspaper and television journalism. After working with Doordarshan, Sahara TV, Star News, ABP News and Zee Media, currently working as senior editor with News18 Bihar-Jharkhand, a part of country's largest news network.


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