रचनात्मकता सूखी तो सोशल मीडिया पर अनावश्यक विवाद खड़ा करके चर्चा में बने रहने का सहारा
हिंदी के एक कहानीकार हैं।
हिंदी के एक कहानीकार हैं। नाम है उदय प्रकाश। उनकी लंबी कहानी 'मोहनदास' को साहित्य अकादमी ने उपन्यास मानते हुए पुरस्कृत किया था। उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार देने वाली जूरी में अशोक वाजपेयी भी थे। ये वही अशोक वाजपेयी हैं जिनको कभी उदय प्रकाश ने 'भारत भवन का अल्सेशियंस' कहा था।
ये वही उदय प्रकाश हैं जिनको योगी आदित्यनाथ ने पहला 'नरेन्द्र स्मृति सम्मान' दिया था। जब उनको ये पुरस्कार मिला था तब हिंदी के कई लेखकों ने बयान जारी कर उनकी निंदा की थी। इनमें 'पहल' पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन के अतिरिक्त विद्यासागर नौटियाल, विष्णु खरे, भगवत रावत, मैनेजर पांडे, राजेन्द्र कुमार, इब्बर रब्बी, मदन कश्यप और देवी प्रसाद मिश्र जैसे वामपंथी लेखक शामिल थे। उस वक्त खूब विवाद हुआ था। इसके बाद उदय प्रकाश ने 2015 में पुरस्कार वापसी का शिगूफा छेड़ा था।
ये अलग बात है कि अभी तक वो अपनी पुस्तकों पर अपने परिचय में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक लिखते हैं। पुरस्कार वापसी का शिगूफा छोड़ने वाले उदय प्रकाश पहले लेखक थे लेकिन बाद में अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल जैसे लेखकों ने इसको लपक लिया था और वो पुरस्कार वापसी अभियान के अगुआ माने गए थे। उदय प्रकाश इस बात को लेकर अपने वामपंथी साथियों से झुब्ध हुए थे कि पुरस्कार वापसी का पर्याप्त श्रेय उनको नहीं मिल पाया।
उदय प्रकाश ने लंबे समय से छिटपुट लघु कथाएं और कविताओं को छोड़कर कुछ लिखा नहीं। लेकिन चर्चा में बने रहने की कला में माहिर हैं। कभी रेत माफिया से जान का खतरा तो कभी हिंदी लेखक प्रभात रंजन के साथ इंटरनेट मीडिया पर अनावश्यक विवाद खड़ा करके वो चर्चा में बने रहते हैं। उदय प्रकाश के बारे में इतना लिखने का औचित्य ये है कि वो एक बार फिर से विवादों में हैं। दरअसल पिछले दिनों उदय प्रकाश ने अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए चंदा दिया और उसकी रसीद अपने फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट कर दी। इस टिप्पणी के साथ कि 'आज की दान दक्षिणा'।
इसके नीचे कोष्ठक में लिखा 'अपने विचार अपनी जगह पर सलामत'। उनकी इस पोस्ट के बाद वामपंथी खेमे से विरोध के स्वर उठने लिखे। कई लोगों ने उदय प्रकाश का नाम लेकर तो कइयों ने बगैर नाम लिए उनपर पाला बदलने का आरोप लगाया। उदय प्रकाश के इस कदम को लेकर हिंदी साहित्य के कई लेखक अबतक उबल रहे हैं। कुछ ने तो सारी हदें पार करते हुए राम मंदिर तक पर मर्यादाहीन टिप्पणी कर डाली। इसके बाद राम मंदिर के पक्षधरों ने भी मोर्चा खोल दिया।
परिणाम ये हुआ कि उदय प्रकाश एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में आ गए। उदय प्रकाश हिंदी के एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने किसी जमाने में कुछ अच्छी कहानियां और कविताएं लिखी थीं। बाद में जब रचनात्मकता का सिरा उनके हाथ से छूटा तो वो साहित्येतर क्रियाकलापों से खुद को प्रासंगिक बनाने की जुगत में लग गए। कुछ सालों पहले इस बात की चर्चा हुई थी उदय प्रकाश अपना पहला उपन्यास लिखने जा रहे हैं। खुद लेखक ने भी इस आशय की बातें की थीं। उस वक्त कवि केदारनाथ सिंह जीवित थे, उन्होंने भी अपने एक साक्षात्कार में ये बात बताई थी कि उदय प्रकाश 'चीना बाबा' के नाम से एक उपन्यास लिख रहे हैं।
साहित्यिक हलकों में तो इस बात की भी चर्चा थी कि उदय प्रकाश ने एक विदेशी प्रकाशन गृह से इसके प्रकाशन के लिए अनुबंध कर लिया है और उनको अग्रिम धनराशि भी मिल गई है। लेकिन सालों बीत जाने के बाद भी अबतक हिंदी साहित्य जगत 'चीना बाबा' का इंतजार कर रहा है। इस बीच 'चीना बाबा' को लेकर कई तरह की बातें हिंदी प्रकाशन की दुनिया में होती रहीं। कभी किसी प्रकाशन से तो कभी किसी प्रकाशन से उसके प्रकाशित होने की चर्चा होती रही। इस बीच करीब दो साल पहले उनका एक कविता संग्रह 'अंबर में अबाबील' प्रकाशित हुआ था। इस कविता संग्रह को ना तो पाठकों ने पसंद किया और ना ही आलोचकों ने। हिंदी साहित्य जगत में तो इसकी चर्चा ही नहीं हुई।
पिछले दो साल से ही उनके नए कहानी संग्रह के प्रकाशन की चर्चा सुनाई दे रही है लेकिन वो भी अबतक प्रतीक्षित है। इन सालों में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने जो खबरनुमा लघु कथाएं लिखी हैं वो भी अबतक इतनी नहीं हो पाई हैं कि जिसको एक संग्रह का रूप दिया जा सके। रचनात्मकता के स्तर पर चुक जाने के बाद उदय प्रकाश ने अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए या खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए राम के शरण में जाना तय किया। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए उन्होंने चंदा दिया। राम मंदिर को चंदा देने को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है।
राम को किसी वाद विशेष के अनुयायियों के आराध्य के तौर पर देखने वालों से इस तरह की गलतियां हो जाती हैं। राम के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करने वालों से भी अक्सर इस तरह की भूल हो जाती हैं। राम भारतीय संस्कृति में इस तरह से रचे-बसे हैं कि उनके सामने कोई भी वाद अर्थहीन हो जाता है। राम के व्यक्तित्व का जो वैराट्य है वो धर्म, जाति, विचारधारा, तर्क आदि की परिधि से परे है। राम मंदिर निर्माण को किसी संकीर्ण दृष्टि से देखना या उस पर विवाद खड़ा करना अनुचित है।
राम मंदिर पर उठने वाले तमाम विवादों को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से विराम दे दिया था। उसके बाद ही अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण आरंभ हुआ है। मंदिर का निर्माण पूरे देश की जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो रहा है। ऐसे में एक वामपंथी लेखक का प्रभु श्रीराम के अयोध्या में निर्मित हो रहे मंदिर के लिए योगदान करना कोई ऐसी बात नहीं है जिसको लेकर विवाद खड़ा किया जाए। वो उनकी आस्था है। यहां यह याद दिलाना उचित होगा कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में नामवर सिंह की ईश्वर में आस्था सार्वजनिक हुई थी।
लेकिन उदय प्रकाश ने जिस तरह से मंदिर के लिए दिए गए चंदे की रसीद को सार्वजनिक किया उसको लेकर प्रश्न उठाना सही है। लेकिन वामपंथी लेखक प्रश्न इस बात पर नहीं ख़ड़े कर रहे हैं, उनको आपत्ति इस बात को लेकर है कि उदय प्रकाश ने मंदिर निर्माण के लिए चंदा क्यों दिया? यह अनायास नहीं है कि उदय प्रकाश जैसे विवादाचार्य वामपंथ की इन कमजोरियों का फायदा उठाकर खुद को चर्चा में बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। उदय प्रकाश को ये बखूबी पता रहा होगा कि राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा देने से वामपंथी नाहक विवाद खड़ा करेंगे। हुआ भी वैसा ही।
दरअसल भारत के वामपंथी बुद्धिजीवी अबतक ना तो भारत को समझ पाए हैं और ना ही भारतीय मानस को। अगर भारतीय मानस को समझ जाते तो प्रभु श्रीराम के मंदिर निर्माण को लेकर इस तरह की अमर्यादित टिप्पणियां नहीं करते। समझ तो वो भारतीय संस्कृति को भी नहीं पाए, अगर समझ पाते तो राम मंदिर को किसी खास विचारधारा या खास राजनीतिक दल से जोड़कर देखने की गलती नहीं करते। वो बहुधा इस तरह की गलतियां करते रहे हैं और इसी गलत सोच के चलते उनके सारे कदम भारतीय संस्कृति के खिलाफ ही उठते रहे हैं।
इन्हीं गलत आकलन के चलते वामपंथ भारत में लगभग अप्रसांगिक हो चुका है। सांस्कृतिक तौर पर भी और राजनीतिक तौर पर भी। आज जब एक बार फिर से पूरा विश्व भारत की ज्ञान परंपरा को, भारतीय संस्कृति को, भारतीय चिकित्सा पद्धति को एक नई उम्मीद के साथ देख रहा है वहीं भारतीय वामपंथी बुद्धिजीवी अब भी विदेशी विचारधारा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।