हम सभी किसी न किसी के यहां काम करते हैं, लेकिन फिर भी हम सभी के लिए नहीं
ओपिनियन
एन. रघुरामन का कॉलम:
शुक्रवार रात मैं अपने एक दोस्त की बेटी को मुम्बई सेंट्रल स्टेशन छोड़ने गया। वो पढ़ाई के बाद गृहनगर लौट रही थी। उसी सुबह मेरे हाथ में चोट लग गई थी, फिर भी मैंने उसे स्टेशन छोड़ने का निर्णय लिया, क्योंकि उसके पास पांच लगेज थे। पीक-ऑवर्स के कारण टैक्सी वाले ने 300 रुपए के बजाय लगभग चार गुना पैसा लिया, इसके बावजूद मेरे परिवार का आग्रह था कि मैं टैक्सी ही लूं।
जब हम अपनी निर्धारित बोगी के समीप पहुंचे तो एक सहयात्री- जो इंदौर से थे- ने मुझे पहचान लिया और मुझसे कहा कि वे यात्रा के दौरान मित्र की बेटी का ध्यान रखेंगे। मैंने इस मदद के लिए उन्हें शुक्रिया कहा। वीकेंड के कारण शहर की सड़कों पर खासा ट्रैफिक था, इसलिए मैंने तुरंत ही लौटने का निर्णय किया।
मैं पुराने जमाने के लोगों में से हूं, इसलिए मैं कभी अपने कम्फर्ट पर खर्चा नहीं करता। मैंने लोकल ट्रेन से जाने का फैसला किया, जबकि मैं जानता था कि ये पीक-ऑवर्स हैं और मैंने बीते 30 सालों से लोकल में सफर नहीं किया है। अपनी उम्र को देखते हुए शायद मैं लोकल ट्रेन पकड़ नहीं सकता था।
जब मैं टिकट काउंटर की तरफ जा रहा था, मैंने जाती हुई ट्रेनों को देखा, जो खचाखच भरी थीं, जबकि प्रथम श्रेणी की बोगी में फिर भी सांस लेने की जगह थी। मैंने अंधेरी तक के लिए प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदा, जिसके लिए मुझे 105 रु. चुकाने पड़े। काउंटर टिकट क्लर्क ने मुझे देखकर मुस्कराते हुए कहा, मैं सुझाव दूंगा आप एसी ट्रेन पकड़ें, जिसके लिए आपको केवल 135 रु. चुकाने पड़ेंगे।
वह ट्रेन छह मिनट बाद आने वाली है। मैंने तुरंत भुगतान किया। मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, जहां ट्रेन समय पर आई और मैं उसमें चढ़ गया। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पूरी बोगी में मैं केवल 17वां पैसेंजर था। मैं दो व्यक्तियों के सामने जाकर बैठा, जिन्होंने यूनिफॉर्म पहन रखी थी। उनके लगेज सीट पर थे।
जब ट्रेन दादर पहुंचने को थी तो उनमें से एक ने दूसरे को इशारा करते हुए कहा कि अब और यात्री भीतर आएंगे, लगेज को रैक पर रख दो। दूसरे ने सहमति जताई। ट्रेन में चढ़े एक यात्री ने यह देखा और इसके लिए शुक्रिया कहा। पूरी यात्रा के दौरान मैं मुम्बईकरों के जज्बे को देखता रहा। वे सभी नौकरीपेशा थे। 20 मिनट की यात्रा में मैंने सरलतापूर्ण संकेत, मुस्कराहटें, प्रोत्साहन, पीठ थपथपाना, सराहना के शब्द आदि देखे-सुने। यह किसी हवाई जहाज की यात्रा से बेहतर था।
जब आप ठहरे पानी में पत्थर फेंकते हैं तो नहीं जानते उसकी लहरें कितनी दूर तक जाएंगी। अकसर जब हम मुश्किलों का सामना करते हैं तो मनुष्य के रूप में कोई देवता हमें प्रेरित करता है और रास्ता दिखलाता है। इनमें परिवार के सदस्य भी हो सकते हैं, जैसा मेरा साथ हुआ।
ऐसा समय आता है, जब हम अपनी ही क्षमताओं पर विश्वास नहीं कर पाते, लेकिन उस दौरान प्रोत्साहन के शब्द हमें आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। आज हम जहां भी हैं, वह इसलिए है कि जीवन के किसी मोड़ पर किसी ने हम पर इतना विश्वास किया था, जितना कि हम भी खुद पर नहीं करते थे।
अब हमारी बारी है कि दुनिया के लिए वह करें, जो दुनिया ने हमारे लिए किया था। अगर वे विश्वास की खोज कर रहे हैं तो हम उन्हें भरोसा दिला सकते हैं। अगर वे प्रेरणा की तलाश कर रहे हैं तो हम उनके लिए प्रेरणा बन सकते हैं। जब तक उन्हें अपने पर यकीन नहीं आता, हम उनमें वह यकीन पैदा कर सकते हैं।
फंडा यह है कि हम सभी किसी न किसी के यहां काम करते हैं, लेकिन फिर भी हम सभी के लिए नहीं तो जीवन में आने वाले कुछ लोगों के लिए जरूर प्रेरणा बन सकते हैं। उत्सव मनाइए, आज हमारा श्रम दिवस है।