Vijay Rupani Resign: बीजेपी ने दिखा दिया कि आलाकमान मजबूत हो तो दिग्गज नेताओं के भी तीर कमान सरेंडर हो जाते हैं

दिग्गज नेताओं के भी तीर कमान सरेंडर हो जाते हैं

Update: 2021-09-12 04:47 GMT

कार्तिकेय शर्मा.

भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने बिना किसी को भनक लगने दिए गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी (Vijay Rupani) का इस्तीफा ले लिया. यह केवल राजनीतिक पत्रकारों के लिए चुनौती नहीं है. बल्कि सोचने वाली बात है कि किसी भी व्यक्ति को इस बात की जरा सी भी भनक नहीं लगी. रूपाणी भी बिना किसी ड्रामे के चुपचाप इस्तीफ़ा दे कर किनारे बैठ गए. भारतीय जनता पार्टी ने 2 महीने के भीतर 2 बार उत्तराखंड में बदलाव किया और कोई कुछ नहीं बोला. तीरथ सिंह रावत को हटा कर त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया और फिर पुष्कर धामी. लेकिन किसी ने चू चपड़ नहीं की.

ऐसा ही कुछ असम में भी हुआ, जब सर्बानंद सोनोवाल की जगह हेमंत बिस्व शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया. बिना किसी विवाद के सभी के सभी नेता वहीं तैनात हो गए जहां पार्टी के नेतृत्व ने उन्हें बोला. इसके बीच में बीजेपी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी बदलाव किये और बड़े-बड़े नेताओं को ड्रॉप कर दिया और फिर भी कोई नाराज़ नहीं दिखा. सब अपने-अपने काम में ऐसे लग गए जैसे कि ये रूटीन का काम हो.
गुजरात ऑपरेशन से 2 चीज़ें बहुत साफ़ रूप से उभर कर आती हैं. पहला इसका जनता में अच्छा असर पड़ेगा क्योंकि बीजेपी ने ये साबित कर दिया है की वो प्रशासनिक स्थिरता के साथ-साथ  जनीतिक स्थिरता भी दे सकती है. दूसरा बीजेपी लगातार केंद्र और राज्य में बदलाव कर, आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस रही है.
संगठन में इस तरह का बदलाव बीजेपी की मजबूती दर्शाती है
बीजेपी जिस तरीके से सरकार और संगठन में बदलाव कर पा रही है वो उसकी बड़ी ताक़त है. कांग्रेस इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में ऐसा ही करती थी. यानि बड़े-बड़े सतरप बिना चू चपड़ किये इधर से उधर हो जाते थे. नेहरू का कामराज प्लान सबसे बड़ा उदाहरण है, जब उन्होंने पार्टी के बॉसेज को राज्यों में काम करने के लिए भेजा था. यानि नेहरू ने बता दिया था की पार्टी के नेता वही हैं.
इंदिरा गांधी भी ऐसे ही फैसले लेती थीं. इंदिरा गांधी ने एक झटके में आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरसिम्हा राव जो बाद में चलकर प्रधान मंत्री बने उनको दिल्ली बुला लिया था. राव ने एक शब्द नहीं बोला था. राव का लैंड डिस्ट्रीब्यूशन का फैसला इंदिरा को पसंद नहीं आया था. हम सोनिया गांधी का भी उदाहरण ले सकते हैं. 2004 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में फतह करवाई थी सुशील कुमार शिंदे ने और सोनिया ने मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख को बनाया था. शिंदे 2 साल तक आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहें. आज भी वो राजनीति में सक्रिय हैं पर उन्होंने इस बात पर कभी आलाकमान पर हमला नहीं किया.
कांग्रेस में स्थिति खराब है
यानि मोदी के किये गए बदलाव बताते हैं कि उन्हें शासन करना आता है और देश और संगठन को वो आराम से चला रहे हैं. ये फैसले उनकी मज़बूती का परिचय हैं. इन फैसलों से आम आदमी को यही सन्देश जाता है. लोग इन फैसलों की कांग्रेस में चल रही अंदरूनी लड़ाई से भी तुलना करते हैं. यानि कांग्रेस में जो ड्रामा पंजाब और राजस्थान में हो रहा है. पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं और चला रहे राहुल गांधी हैं. जिनकी बात उन्हीं के लोग नहीं मानते. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टी एस सिंह देव के बीच जो तनातनी लोगों के बीच हुई उससे मैसेज यही गया कि जहां प्रचंड बहुमत है वहां भी कांग्रेस अपना घर सलामत नहीं रख सकती. यानि वहां भी सतरप केंद्र की बात नहीं मानते. और कोई बेवकूफ ही होगा जो कांग्रेस में चल रहे घटनाक्रम को लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से जोड़ कर देखे. क्योंकि खुल कर बात करना और राजनीतिक अराजकता में बहुत बड़ा फर्क़ होता है.
यानि जो पार्टी राज्यों में स्थिर सरकार नहीं दे सकती वो देश कैसे चला सकती है. यानि राहुल गांधी कितना भी अपने आप को संघ के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करें. लेकिन जब तक वो अपने घर को ठीक नही करेंगे, जनता उन्हें केंद्र के चुनाव में वोट नहीं देगी. यानि केंद्र में जनता को मज़बूत सरकार पसंद आती है और इसलिए कांग्रेस का विकल्प केंद्र में अन्ततोगत्वा सोशलिस्ट नहीं बल्कि बीजेपी और संघ बनी. सोनिया भी 2004 में सत्ता में तब आ पाईं जब देश में 10 से ज़्यादा राज्यों में कांग्रेस आराम से सरकार चला रही थी.
कई जगह बीजेपी जीत कर भी हार की स्थिति में है
दूसरी पहल अंदरूनी है. यानि बीजेपी 2022 और 2023 के विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस रही है और तभी बी एस येदियुरप्पा, रावत और रूपाणी हटाए गए हैं. 2019 के बाद बीजेपी को बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली है. जहां सफल भी हुए वहां महत्वाकांक्षा के चलते अच्छे प्रदर्शन के बाद भी हार माननी पड़ रही है. पश्चिम बंगाल इसका एक माकूल उदहारण है. लेफ्ट और कांग्रेस को पछाड़ने के बावजूद और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी बीजेपी के लिए वो हार जैसी हो गयी है. वहीं महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनने की बावजूद बीजेपी सत्ता में नहीं रह पायी. बीजेपी झारखण्ड हारी और जेजेपी के समर्थन से हरियाणा में सरकार बना पाई.
तमिलनाडु और केरल में दाल नहीं गली और कर्नाटक में भी सरकार तोड़ फोड़ के बाद ही बन पायी. यानि जीत केवल असम में ही मिली. मध्य प्रदेश में भी सरकार कांग्रेस को तोड़ कर बनी. पुडुचेरी में भी कांग्रेस के टूटे घटक दल के साथ ही बीजेपी सरकार में है. बिहार में भी बीजेपी बड़ी पार्टी बन कर उभरी, लेकिन वहां भी गठबंधन की सरकार है. यानि बीजेपी के लिए ये सारे चुनाव इमेज के दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण हैं और सबसे ज़्यादा गुजरात जहां बीजेपी को पिछले विधानसभा में अच्छी टक्कर मिली थी. यानि बीजेपी को अपने बूते अब राज्य जीतने होंगे.
बीजेपी टाइम पर होमवर्क कर रही है
लेकिन इसमें एक चीज़ साफ़ है कि बीजेपी अपना होम वर्क टाइम पर कर रही है. कांग्रेस ने अपना होम वर्क कई राज्यों में शुरू भी नहीं किया है और जहां किया जैसे की पंजाब वहां जनता के बीचों-बीच उनके आपस के लोगों में ही लड़ाई चल रही है. यानि अमरिंदर सिंह और सिद्धू एक दूसरे को देखने को तैयार नहीं हैं. सचिन पायलट मुंह फुला कर बैठे हैं. कांग्रेस ने अभी तक केंद्र में कोई बदलाव नहीं किये हैं. ये कांग्रेस और बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ी चुनौती है.

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