UP Assembly Elections: क्या पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा को रोक पाएगा एसपी-आरएलडी गठबंधन?

क्या पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा को रोक

Update: 2021-12-31 15:25 GMT
यूसुफ़ अंसारी।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में बीजेपी को टक्कर देने के लिए अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी (RLD) और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई और छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया है. मीडिया में आ रही ख़बरों के मुताबिक समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के बीच सीटों का बंटवारा हो चुका है. हालांकि अभी इसका आधिकारिक रूप से ऐलान नहीं किया गया है. लेकिन सूत्रों के अनुसार अखिलेश ने आरएलडी को 38 सीटें दी हैं. बता दें कि आरएलडी पहले भी 1996 और 2002 में 38 सीटों पर चुनाव लड़ चुकी है.
एसपी-आरएलडी के बीच सीटों के बंटवारे पर दो तरह की प्रतिक्रिया हैं. समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) में कहा जा रहा है कि अखिलेश ने जयंत के सामने घुटने टेक दिए हैं और उन्हें उनकी औक़ात से ज़्यादा सीटें दे दी हैं. वहीं आरएलडी में कहा जा रहा है कि जयंत ने बहुत कम सीटों पर समझौता कर लिया है. अखिलेश के सामने वो मुंह नहीं खोल पाए. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या एसपी-आरएलडी का यह गठबंधन पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी को टक्कर दे पाएगा? पिछले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इन दोनों समेत सबका सफाया कर दिया था. जहां आरएलडी को सिर्फ बागपत जिले की एक छपरौली सीट ही मिली थी, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी के चौधरी अजीत सिंह और जयंत दोनों ही बुरी तरह चुनाव हार गए थे.
संकट में है आरएलडी का वजूद
दरअसल जयंत के सामने आरएलडी का वजूद बचाने की बड़ी चुनौती है. एक राजनीतिक पार्टी के बतौर आरएलडी का वजूद संकट में है. दरअसल दो लोकसभा चुनावों और एक विधानसभा चुनाव में लगातार हार के बाद आरएलडी का वजूद पूरी तरह ख़तरे में है. 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने 277 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए थे. तब आरएलडी तो सिर्फ छपरौली की सीट ही पाई थी और 266 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गई थी. से 15,45811 वोट मिले थे. ये कुल पड़े वोटों का सिर्फ 1.87 फीसदी था. इस वजह से आरएलडी की क्षेत्रीय पार्टी की भी मान्यता ख़त्म हो गई थी. बाद में 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसे एक सीट भी नहीं मिली इससे उसके वजूद पर और संकट गहरा गया है.
जाट-मुस्लिम एकता पर भरोसा
ऐसा माना जा रहा है कि एक साल तक चले किसान आंदोलन ने 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों से पैदा हुई दरार को पाट दिया है. इससे किसानो की स्वभाविक पार्टी समझी जाने वाली आरएलडी काफी मज़बूत स्थिति में आ गई है. यही वजह है कि अखिलेश यादव ने जयंत का हाथ थामा है. गठबंधन के ज़रिए अखिलेश और जयंत किसानों की बीजेपी से नाराज़गी को वोटों में तबदील करना चाहते हैं. इसका अहसास बीजेपी को भी है कि किसानों की नाराजगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उसका सफाया कर सकती है. इसी लिए बीजेपी मे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी गृहमंत्री अमित शाह को सौंप कर उन्हें यहां का प्रभारी बना दिया गया है. 2017 मे विधानसभा और 2019 में लोकसभा चुनाव बीजेपी ने अमित शाह का नेतृत्व में ही जीता था.
क्या शाह पर भारी पड़ेंगे अखिलेश-जयंत
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अखिलेश और जयंत की जोड़ी अमित शाह पर भारी पड़ेगी. एक बार ऐसा हो चुका है. 2018 में लोकसभा के उपचुनाव के दौरान अजित सिंह और जयंत ने समाजवादी पार्टी की तबस्सुम हसन को आरएलडी के टिकट पर लोकसभा चुनाव जिताया था. तब बीएसपी भी इस गठबंधन का हिस्सा थी. उस चुनाव में अजीत सिंह और जयंत ने गांव गांव जाकर जाट और मुसलमानों के बीच एकता लाने की कोशिश की थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह एकता ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. जयंत बागपत से हारे तो चौधरी अजित सिंह मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान के हाथों पराजित हुए. अब जयंत अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए एसपी से गठबंधन कर एक बार और किस्मत आज़माना चाहते हैं. इस गठबंधन में बीएसपी शामिल नहीं है. लिहाजा उनके सामने चुनौती और बड़ी है.
जयंत के सामने बड़ी है चुनौती
जयंत के सामने चुनौती इस लिए भी बड़ी है कि आरएलडी अपने दम पर इक्का-दुक्का सीट ही जीतने की क्षमता रखती है. लेकनि किसी और पार्टी के साथ गठबंद करके उसकी ताक़त बढ़ जाती है. मिसाल के तौरक पर 2012 में राष्ट्रीय लोक दल ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. इसमें उसे 46 सीटें मिली थीं. उसने 9 सीटें जीती थीं. उसे कुल 17,63,354 वोट मिले थे. जो कि कुल वोटों का 2.33 फीसदी थे. इससे पहले 2007 में आरएलडी ने 254 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 10 सीटें जीती थीं, जबकि 2002 और 1996 के चुनाव में उसने सिर्फ 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 2002 में वह 14 सीटें जीती थी और 1996 में आठ सीटें. इस विश्लेषण से पता चलता है कि आरएलडी की चुनाव लड़ने की क्षमता करीब 40 सीटों पर है. वो ज़्यादा से ज़्यादा 15 सीटें जीत सकती है.
बीजेपी को शाह पर भरोसा
बीजेपी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी गृह मंत्री अमित शाह को सौंपी है. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद अमित शाह को ये ज़िम्मेदारी दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी सूरत में यूपी की सत्ता खोने नहीं देना चाहते. किसानों की नाराज़गी के चलते पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सफाए की खबरें आ रही है. पहले मोदी सरकार ने तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेकर किसानों के बीच नाराज़गी दूर करने की कोशिश की है. अब अमित शाह को ज़िम्मेदारी सौंपकर किसानों का रुख़ फिर से बीजेपी की तरफ़ मोड़ने की कोशिश की है. अमित शाह पहले भी पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों को साध कर बाकी दलों का सफाया कर चुके हैं. इसलिए बीजेपी को उम्मीद है कि अमित शाह इस चुनाव में भी यह कारनामा अंजाम दे सकते हैं.
उपचुनाव में मज़बूत था एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन
अब सवाल यह है कि अमित शाह के सामने अखिलेश और जयंत का की जोड़ी कितनी कारगर साबित हो पाएगी. हालांकि 2018 के लोकसभा के उपचुनाव में एसपी-बीएसपी और आरएलडी ने मिलकर बीजेपी को धूल चटा दी थी. तब एसपी की तबस्सुम हसन ने आरएलडी के टिकट पर चुनाव लड़कर 4,81,181 वोट हासिल किए थे जो कि कुल पड़े वोटों का 51.26 फीसदी थे. उन्होंने इसी सीट से जीते हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को हराया था. मृगांका को 4,36,564 वोट मिले थे. हुकुम सिंह के निधन से ही यह सीट खाली हुई थी. तब इस जीत को इस गठबंधन की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया था. यह दावा किया गया था कि ये गठबंधन लोकसभा चुनाव में बीजेपी को धूल चटा सकता है. लेकिन हुआ एकदम उल्टा. बीजेपी ने इस गठबंधन के तिलिस्म को तोड़ दिया. इसमे अमित शाह की बड़ी भूमिका थी.
लोकसभा के आम चुनाव में टूटा गठबंधं का तिलिस्म
2019 के लोकसभा चुनाव में कैराना लोकसभा सीट से तबस्सुम हसन एसपी के टिकट पर चुनाव लड़ीं. उन्हें 4,74,801 वोट मिले. ये कुल पड़े वोटों का 42.24 फीसदी थे. उन्हें बीजेपी के प्रदीप चौधरी ने भारी अंतर से हराया बीजेपी के प्रदीप चौधरी को 5,66,961 वोट मिले थे जो कि कुल पड़े वोटों का 50.4 फीसदी था. उपचुनाव में कांग्रेस ने यहां चुनाव नहीं लड़ा था लेकिन 2019 में कांग्रेस के हरेंद्र मलिक यहां से चुनाव लड़े थे. उन्हें 69,355 वोट मिले थे लेकिन हरेंद्र मलिक नहीं भी होते तो भी तबस्सुम हसन चुनाव नहीं जीत पाती. क्योंकि उनकी हार का अंतर कांग्रेस को मिले वोटो से कहीं ज्यादा था. ये कहा जा सकता है कि अमित शाह की चुनावी रणनीति तीन दलों के इस गठबंधन पर भारी पड़ी. लिहाज़ा लिहाज़ा उन्हें हल्के मे लेना इस बार भी अखिलेश और जयंत की जोड़ी को भारी पड़ सकता है.
अजित और जयंत दोनों हारे
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह और जयंत दोनों ही अपना लोकसभा का चुनाव हार गए थे. तब जयंत बागपत से चुनाव लड़े थे. उन्हें बीजेपी के सत्यपाल सिंह ने हराया था. 2014 में सत्यपाल ने यहां अजित सिंह को हराया था. जयंत को 5,02,287 वोट मिले थे जबकि सत्यपाल सिंह ने 5,25,789 वोट लेकर उन्हें हरा दिया था. अजीत सिंह ने मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ा था. अजित सिंह को बीजेपी के संजीव कुमार बालियान ने क़रीब 23 हज़ार वोटों से हराया था. संजीव बालियान को 5,73,780 वोट मिले थे और चौधरी अजित सिंह को 5,67,254 वोट मिले थे. हालांकि इस सीट पर बीजेपी को 2014 के मुकाबले 9.52 फीसदी कम वोट मिले थे, लेकिन इसके बावजूद अजित सिंह एक लाख से ज्यादा वोटों से हारे थे. 2014 में वो बागपत सीट पर तीसरे स्थान पर रहे थे. ये जाटों के बीच अजित और जयंत की लगातार कम होती लोकप्रियता का सबूत है.
ऐसे में देखने वाली बात होगी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों के बीच एसपी-आरएलडी गठबंधन कितनी मज़बूत पैठ बना पाता है. दिल्ली-यूपी के गाजीपुर बॉर्डर पर सालभर तक किसानों की कमान संभालने वाले राकेश टिकैत पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि वह किसी भी राजनीतिक दल के समर्थन में वोट डालने के लिए नहीं कहेंगे और ना ही अपने मंच का किसी को इस्तेमाल करने देंगे. यह सवाल है कि अगर लोकसभा के चुनाव में एसपी-बीएसपी और आरएलडी गठबंधन कोई कमाल नहीं कर पाया था तो इस चुनाव में अकेले एसपी-आरएलडी गठबंधन कितना कमाल कर पाएगा, यह चुनावी नतीजे ही बताएंगे.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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