सुनक पर भारत में 'रस्साकशी'
ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री पद पर भारतीय मूल के श्री ऋषि सुनक के पदारूढ़ हो जाने पर भारत में जिस तरह की ओछी राजनीति इस देश के लोकतन्त्र को कमतर करके देखने की हो रही है
आदित्य नारायण चोपड़ा: ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री पद पर भारतीय मूल के श्री ऋषि सुनक के पदारूढ़ हो जाने पर भारत में जिस तरह की ओछी राजनीति इस देश के लोकतन्त्र को कमतर करके देखने की हो रही है उससे किसी भी स्तर पर भारत का सम्मान नहीं बढ़ रहा है बल्कि उल्टे इसकी लोकतान्त्रिक प्रतिष्ठा पर आघात हो रहा है। बेशक हमें ब्रिटेन के लोकतन्त्र से अभी भी बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पिछले 75 वर्षों के दौरान हमने जिन जनतान्त्रिक रस्मों की जड़ें गहरी की हैं उनका कोई महत्व नहीं है। भारत में अल्पसंख्यक वर्ग या किसी मुस्लिम नागरिक के प्रधानमन्त्री पद के ओहदे तक पहुंचने की बहस पूरी तरह तब बेमानी हो जाती है जब 1947 में सिर्फ मजहब की बुनियाद पर ही मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान बना दिया गया था। 75 वर्ष पहले जो एक देश पाकिस्तान बना था आज वह दो देशों पाकिस्तान व बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में हैं और इन दोनों देशों में खास कर पाकिस्तान में तो यह सपने में भी नहीं सोचा जा सकता कि कभी वहां कोई गैर मुस्लिम राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री बन सकता है क्योंकि इस देश के संविधान में ही लिख दिया गया है कि इन दोनों पदों पर केवल कोई मुस्लिम व्यक्ति ही बैठ सकता है। इसके बावजूद भारत के लोकतन्त्र की बुनावट को देखते हुए हम यह सवाल उठा सकते हैं कि इस व्यवस्था के भीतर ही कभी कोई मुस्लिम व्यक्ति प्रधानमन्त्री के पद तक पहुंच सकता है क्योंकि हमारे संविधान में मजहब, लिंग , भाषा , क्षेत्र के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया गया है। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि ऋषि सुनक को ब्रिटेनवासियों ने न तो उनके अल्पसंख्यक या एशियाई मूल अथवा हिन्दू होने की वजह से प्रधानमन्त्री चुना है बल्कि केवल और केवल एक ब्रिटिश नागरिक के रूप में उनकी योग्यता के आधार पर उन्होंने प्रधानमन्त्री पद पर बैठाया है। भारत में एेसे एक नहीं कई मौके आये हैं जब मुस्लिम समुदाय के योग्य व कर्मठ व्यक्तियों को उच्च पदों तक जाने में सफलता मिली है। इसमें उनका धर्म कभी आड़े नहीं आया। बेशक भारत में कोई मुस्लिम प्रधानमन्त्री अभी तक न बना हो मगर कई हिन्दू बहुसंख्यक राज्यों में इस समाज से आने वाले योग्य व्यक्तियों को मुख्यमन्त्री बनने का अवसर मिला है। राजस्थान जैसे राज्य के मुख्यमन्त्री पद पर स्व. बरकतुल्लाह खान बैठाये गये और वह आम जनता में खासे लोकप्रिय भी थे। मुसलमान होने के बावजूद उन्होंने इस राज्य की हिन्दू संस्कृति के रस्मो-रिवाजों को पूरे दिल से निभाया था। इसी प्रकार बिहार जैसे राज्य में भी स्व. अब्दुल गफूर मुख्यमन्त्री रहे और जय प्रकाश नारायण आन्दोलन के दौरान रहे। असम जैसे संजीदा राज्य में अनवरा तैमूर मुख्यमन्त्री रहीं। देश के राष्ट्रपति पद पर तीन मुस्लिम राष्ट्रपति स्व. डा. जाकिर हुसैन, फकरुद्दीन अली अहमद व डा. एपीजे अब्दुल कलाम रहे। देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश पद पर स्व. हिदायतुल्लाह व अल्तमश कबीर रहे। उपराष्ट्रपति पद पर भी श्री हामिद अंसारी व हिदायतुल्लाह रहे। वायुसेना के एयर चीफ मार्शल पद पर श्री ए.एच. लतीफ रहे। राज्यपालों की तो गिनती ही नहीं है। भारतीय सेना में लेफ्टि. जनरल व मेजर जनरल पद तक पहुंचने वाले भी अनगिनत मुस्लिम अफसर रहे। ये सब भारत की वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था के दौरान ही इन पदों तक पहुंचे। मगर कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने जिस तरह भारत के लोकतन्त्र का अवमूल्यन करने का प्रयास यह कह कर किया कि क्या कभी हम अल्पसंख्यक प्रधानमन्त्री की संभावना भी देख सकते हैं उससे न केवल कांग्रेस के मूल सिद्धान्तों की मानहानि हुई है बल्कि समूचे भारत की जनता का घनघोर अपमान हुआ है। शशि थरूर अक्सर भारतीयों की मान्यताओं और इसके समर्पित नेताओं का अपमान करते देखे जाते हैं। यह व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता और वहां की रवायतों से इस कदर प्रभावित है कि राष्ट्रीय गान का अपमान करने से भी बाज नहीं आता। शशि थरूर ने ही कुछ वर्षों पहले कहा था कि राष्ट्रगान गाते समय बजाय सावधान की मुद्रा में खड़े होने के अमेरिकी तर्ज पर एक हाथ अपने सीने के समीप लाकर खड़ा होना चाहिए। इसी व्यक्ति ने यह भी कहा था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयन्ती पर अवकाश या छुट्टी नहीं होनी चाहिए बल्कि उस दिन लोगों को और ज्यादा काम करना चाहिए।