ट्रूडो की अनाधिकार दखलंदाजी

किसान आन्दोलन के सम्बन्ध में कमोबेश यही स्थिति प्रशासन की ओर से बनी हुई है

Update: 2020-12-03 09:41 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कनाडा के प्रधानमन्त्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत में चल रहे किसान आन्दोलन पर टिप्पणी करके न केवल किसी दूसरे देश के अन्दरूनी मामले में दखलंदाजी करने का प्रयास किया है बल्कि दो लोकतान्त्रिक देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की खिंची उस नैतिक आचार संहिता का भी उल्लंघन करने का प्रयास किया है जो राजनीतिक प्रक्रिया के चलते किसी भी लोकतन्त्र में स्वाभाविक समझी जाती है। लोकतन्त्र में विरोध और असहमति का मूल अधिकार होता है जिससे यह व्यवस्था निरन्तर जीवन्त रहती है किन्तु शर्त केवल यह होती है कि विरोध या प्रतिकार सम्बन्धित देश के संविधान के दायरे में होना चाहिए। भारत में किसान आन्दोलन पूरी तरह शान्तिपूर्ण ढंग से हो रहा है और सरकार की तरफ से भी कमोबेश ऐसे कदम नहीं उठाये जा रहे हैं जिन्हें दमनकारी कृत्यों की श्रेणी में रखा जा सके।


लोकतन्त्र में प्रदर्शनकारियों के विरोध का सामना प्रशासन को करना पड़ता है और प्रशासन का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों को अशान्त होने से रोकने के लिए केवल ऐसे सांकेतिक कदम उठाये जिनसे किसी को शारीरिक नुकसान न पहुंच पाये। किसान आन्दोलन के सम्बन्ध में कमोबेश यही स्थिति प्रशासन की ओर से बनी हुई है और इसके समानान्तर किसान प्रतिनिधियों से बातचीत का दौर भी जारी है। अतः श्री ट्रूडो के बयान पर भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय की यह प्रतिक्रिया पूरी तरह समयोचित और जायज कही जायेगी कि कुछ विदेशी नेताओं की किसान आन्दोलन के बारे में टिप्पणियां गलत सूचनाओं पर आधारित लगती हैं जो किसी लोकतान्त्रिक देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप जैसी हैं।

कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों की संख्या अच्छी खासी ही नहीं बल्कि उनका वहां की राजनीति में भी अच्छा-खासा प्रभाव है। कनाडा के रक्षा मन्त्री श्री हरजीत सिंह सज्जन हैं जिनकी जड़ें भारत के पंजाब राज्य से ही चली हैं। उन्होंने भी एक ट्वीट करके किसान आन्दोलन से निपटने की भारत सरकार की रणनीति पर असन्तोष व्यक्त किया।
यह समझने की जरूरत है कि भारत की विपक्षी पार्टियां सरकारी कदमों की बेशक तीखी आलोचना कर सकती हैं और इस क्रम में वे अपनी सुविधानुसार किसी भी सीमा तक जा सकती हैं परन्तु यह अधिकार किसी भी तरह किसी विदेशी को नहीं दिया जा सकता कि हमारे देश के भीतर चल रहे किसी आन्दोलन की समीक्षा अपनी सुविधा के अनुसार करे। भारत की यह महान परंपरा स्वतन्त्रता के बाद से ही रही है कि जब भी कोई विपक्षी नेता या राजनीतिक दल का प्रतिनिधि विदेश में जाता है तो वह भारत का प्रतिनिधि होता है और भारत की सरकार उसकी सरकार होती है।

विपक्षी नेता कभी भी विदेश में जाकर अपने देश की सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं करते, चाहे नई दिल्ली में उनके सबसे बड़े विरोधी दल की ही सरकार क्यों न हो। सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानून भारत की संवैधानिक रूप से चुनी गई सरकार द्वारा संसद के माध्यम से लाये गये हैं। इनकी आलोचना देश के भीतर संसद से लेकर सड़क तक विरोधी दल कर सकते हैं मगर विदेश की धरती पर पैर रखते ही ये विपक्षी नेता सारे मतभेद दिल्ली हवाई अड्डे पर ही छोड़ देते हैं क्योंकि विदेशी जमीन पर उनकी नीति वही होती है जो भारत सरकार की होती है। यही तो लोकतन्त्र की खूबी होती है कि यह घर में लाख विवाद और झंझट खड़ा करता है परन्तु विदेशी के सामने एक सूत्र में बन्ध जाता है।
इसकी वजह यह होती है कि लोकतन्त्र में सरकार बेशक राजनीतिक बहुमत के आधार पर गठित होती है मगर हुकूमत पर काबिज होते ही यह सरकार समस्त देशवासियों की सरकार हो जाती है और इनमें वे लोग भी शामिल होते हैं जिन्होंने चुनावों में सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ मत दिया होता है। मगर श्री ट्रूडो के अलावा ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया के लेबर पार्टी के कई सांसद हैं जिन्होंने किसान आदोलन के बारे में ट्वीट करके अपनी चिन्ता जताई है। यहां तक कि अमेरिका के एक रिपब्लिकन पार्टी के सांसद ने भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है मगर इन सभी की टिप्पणियों का भारत के सन्दर्भ में कोई मतलब नहीं है, बेहतर हो कि वे अपने-अपने देश की समस्याओं को सुलझायें।

भारत के लोगों और इसके राजनीतिक दलों में इतनी कूव्वत है कि वे अपनी समस्याएं स्वयं सुलझा सकते हैं। इसके लिए उन्हें किसी विदेशी की सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है। स्वतन्त्रता के बाद से भारत में एक नहीं बल्कि सैकड़ों आन्दोलन हुए हैं और प्रत्येक आन्दोलन का हल हमने स्वयं ही बातचीत के माध्यम से निकाला है। यहां तक कि जिस कश्मीर समस्या को पाकिस्तान ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी उसका हल भी हमने अपने बूते पर ही निकाला।
जहां तक किसान आन्दोलन का सवाल है तो यह देखना भारत सरकार का ही दायित्व है कि भारत में अन्नदाता कहे जाने वाले इन लोगों के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो मगर इसमें किसी विदेशी नेता की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि भारत का संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है। इसके साथ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोग अपने-अपने देश के सम्मानित नागरिक हैं और उन्हें वहां के कानूनों के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। वे भारत के किसी भी राज्य या क्षेत्र से वहां जाकर बसे हों परन्तु भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली का अब वे अंग नहीं हैं।
उन्हें भारतीय नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए और वे अधिकार यह हैं कि भारत का एक साधारण नागरिक भी सरकार की किसी कार्यवाही की खुल कर आलोचना कर सकता है और अपने समर्थन में जनभावनाएं जुटा कर आन्दोलन भी कर सकता है बशर्ते उसका रास्ता पूरी तरह अहिंसक हो।
पूरी दुनिया को यह भी पता होना चाहिए कि यह देश उन गांधी बाबा का है जिन्होंने कहा था कि जहां भी अन्याय का प्रतिकार है वहीं गांधी है। अतः भारतवासी अपने कर्त्तव्य और धर्म दोनों को जानते हैं और समझते हैं, उन्हें किसी विदेशी की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। किसानों के मामले में नीतिगत द्वन्द चल रहा है जिसका नीतिपूर्ण तरीके से ही हल होगा। इसीलिए तो वार्ताओं के दौर चल रहे हैं।


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